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हिन्दी साहित्य में हास्यबोध और कविता का 'अनामिका युग'
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हिन्दी साहित्य में हास्यबोध को लेकर शुरू से ही एक संकुचित दृष्टिकोण मिलता है। यही कारण है कि हास्य कवियों को हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा में कभी स्थान नहीं दिया गया। उन्हें या तो हास्यकवि कहकर अलग कर दिया गया या मंचीय कवि कहकर। किसी भी आलोचक ने हास्यकवियों की कविताओं को आलोचना या समीक्षा के योग्य समझा ही नहीं। ऐसी स्थिति में निस्वार्थ चुटकुले बनाने वाले लेखकों को भला कौन याद रखता है? किंतु समाज की हँसी और हँसोड़पन को बचाए रखने में उनका योगदान अविस्मरणीय है।
बदलते समय के साथ-साथ साहित्य की विधाएँ अपना विकास करती हैं। आज के उदारीकरण और बाजारवाद के युग में हास्य कविताएँ ही नहीं, हास्य समीक्षाएँ या आलोचनाएँ भी लिखी जा रही हैं जो अपनी तरह की नितांत नूतन और अद्भुत विधा है। इस विधा का मूल्यांकन करने के लिए हमारी आलोचनाशास्त्र के पास अभी कोई मानदंड नहीं हैं। किंतु स्वार्थ की धुन पर बदलता यह दौर इसे शीघ्र ही मुमकिन कर सकेगा। जैसे एक समय में मुक्तछंद की कविताएँ साहित्य रसिक नहीं पसंद करते थे, उसी भाँति आज हास्यास्पद समीक्षाओं को लोग महत्व नहीं दे पा रहे।
लेकिन आने वाला दौर ऐसी ही हास्यास्पद समीक्षाओं-आलोचनाओं का होगा। वे लोग साहित्य के सबसे बड़े समीक्षक-आलोचक माने जाएँगे जो अवसाद से भरे आधुनिक मानव को अपनी कविताओं-कथाओं और चुटकुलों से ही नहीं बल्कि अपनी समीक्षाओं-आलोचनाओं तथा आलेखों से भी हँसा सकेंगे, गुदगुदा सकेंगे।
ज़रा सोचिए, आज तक कबीर-तुलसी-सूर-जायसी आदि का कोई युग न हुआ, निराला, प्रसाद, पंत और महादेवी का कोई युग न हुआ, केदार-नागार्जुन-त्रिलोचन या मुक्तिबोध का कोई युग नहीं हुआ! यहाँ तक कि सर्वप्रतापी कवि अशोक वाजपेयी का कोई युग न हुआ और अनामिका का एक युग हो गया???
आपको क्या लगता है कि इतनी मासूम-सी बात, जो आपको मालूम है, विद्वान समीक्षक और संपादक को मालूम नहीं होगा? असल बात यह है कि साहित्य में यह विधा नितांत नूतन है और नए के प्रति इस तरह का तिरस्कार भाव हिंदी साहित्य में हमेशा से रहा है। विद्वानों का यह रवैया कुछ नया नहीं है। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भी कभी निराला की 'जूही की कली' उठा कर फेंक दी थी! और यह समीक्षा तो पूरा कमल का फूल है!! अपनी समीक्षा या आलोचना में इतना हास्य पैदा करना सबके वश की बात नहीं है।
मैं तो रात की इस निर्जनता में अकेले ही बैठा-बैठा इस बात पर घंटे-भर से ठठा रहा हूं कि यह हिंदी कविता का 'अनामिका युग' है!!
- बिपिन कुमार शर्मा
मुंबई
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