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लखबीर सिंह के हत्यारे नानक-धर्म की रूह के भी हत्यारे हैं

Desk Editor
18 Oct 2021 6:33 AM GMT
लखबीर सिंह के हत्यारे नानक-धर्म की रूह के भी हत्यारे हैं
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ईश्वर से ही भरोसा उठ जाए। लेकिन यह सोचते हुए कि ईश्वर के बारे में अधिक क्या पता लगाना; क्योंकि ऐसा करते हुए तो हम काफ़िर हो जाएंगे, अगर इस तरह डर कर ही जिये तो क्या जिये! इससे तो कुछ हाथ नहीं आएगा

लखबीर सिंह के हत्यारे नानक-धर्म की रूह के भी हत्यारे हैं।

ठीक उसी तरह जैसे इस्लामिक, जैसे हिन्दू और जैसे बाकी सब

: त्रिभुवन

पंजाबी के कवि प्रोफ़ेसर मोहनसिंह के काव्यसंग्रह 'सावे पत्तर' में एक कविता है, 'रब'। इसकी शुरू की पंक्तियां बाबा नानक का सच्चा दर्शन लिये हुए हैं। वे कहते हैं :

रब इक गुंजलदार बुझारत,

रब इक गोरखधंधा।

खोलन लगेआं पेच ऐस्स दे,

काफ़िर हो जाए बंदा।

काफ़िर होणो डर के जीवें?

खोजों मूल ना खुंजीं,

लाई-लग्ग मोमिन दे कोलों,

खोजी काफ़िर चंगा!

यानी रब या ईश्वर एक अबूझ पहेली है। यह एक गोरखधंधा है। इसका हल आसान नहीं। यह इतनी उलझी पहेली है कि इसके पेंच खोलने लगो तो इन्सान काफ़िर हो जाए। ईश्वर से ही भरोसा उठ जाए। लेकिन यह सोचते हुए कि ईश्वर के बारे में अधिक क्या पता लगाना; क्योंकि ऐसा करते हुए तो हम काफ़िर हो जाएंगे, अगर इस तरह डर कर ही जिये तो क्या जिये! इससे तो कुछ हाथ नहीं आएगा। सिर्फ़ जड़ता हाथ आएगी। सिर्फ़ पत्थर होकर जिएंगे। अंधकार में भटकेंगे। काल रात्रि हमें काल कवलित कर लेगी। इसलिए बेहतर है कि खोज जारी रखें। मिट्‌टी के इस तन में मन को मस्ती से रखो और रूह को जीवंत रखकर जियो। क्योंकि 'लाई-लग्ग मोमिन दे कोलों' यानी लकीर के फ़कीर माेमिनों से बेहतर है कि खुली आँखों से अपनी भीतरी दुनिया को पढ़ा जाए और ख़ुदा की तलाश करते हुए गगन की चाँदनी को अपनी रूह में भरकर अंधकार को बाहर फेंक दिया जाए। भले इसके लिए हमें काफ़िर ही क्यों न होना पड़े!

ज़िंदगी के सिंघु बॉर्डर पर बेवकूफ़ियों का ऐसा समूह खड़ा है, जिसने अपने आपको निहंग समझ लिया है। हत्यारा कभी निहंग हो ही नहीं सकता। निहंग कभी हत्यार होगा नहीं। निहंग यानी नि:संग! जो किसी के संग नहीं। जो सबके संग है। जो-जो निर्भय है और लोगों को निर्भय करता है।

हमारी देह के भीतर एक तरनतारन है। इस तरनतारन के भीतर एक रूह है, जिसका नाम लखबीरसिंह है। ये मेरे भीतर भी है, ये तेरे भीतर भी! कभी इसी की चिंता बाबा नानक ने की थी। आदि ग्रंथ के पेज 140-141 पर लिखा है, मिहिर मसीति सिदकु मुसला हकु हलालु कुराणु। सरम सुनंति सीलु रोजा होहु मुसलमाणु। ...करणी कलमा आखि कै ता मुसलमाणु सदाइ। नानक जेते कूड़िआर कूड़ै कूड़ी पाइ।...

बाबा नानक ने कहा था, दया और करुणा की भावना सच्चे मुसलमान की मस्ज़िद है। सिदक या भरोसा उसका इस्लाम। हक़-हलाल ही कमाई ही उसका कुरआन है। नेक़-पाक़ संयम का जीवन रोज़ा है। हिंसा और बुरे कामों से बचना सुन्नत। नेक़ अमल करना और क्षमा को धारण करना काबा और सच को धारण करना पैग़ंबर है। हर इन्सान में परमात्मा की छवि देखना तश्बीह है।

इस सहस्राब्दी के सबसे महान मानवतावादी संत बाबा नानक अगर मुसलमान को यह सीख दे रहे हैं तो क्या वे सिखों या निहंगों को यह सीख नहीं दे रहे? क्या वे हिंदुओं या ईसाइयों को कुछ नहीं कह रहे? बाबा नानक की वाणी क्या आज भूमि से आकाश तक बिखरी हुई नहीं है? क्या उसे कुछ पन्नों में सहेज कर रखा जा सकता है? वह निखरा हुआ चांद और मुहब्बतों से महकती चाँदनी है। वह किसी किताब में आ सकती है क्या? जिस संत ने मूर्ति को अस्वीकार कर दिया, क्या वह किताब को मूर्ति की जगह स्वीकार करेगा? सच तो यह है कि नानक ही नहीं, समस्त संतों की वाणियों और उनके मूल्यों को उनके हठधर्मी अनुयायियों ने हत्या करके जड़ता की बैरिकेड्स पर टांग दिया है।

मेरे मन में बाबा नानक की वाणी के प्रति सबसे अधिक श्रद्धा है। जाने क्यों! शायद मेरे बचपन के कारण। मैंने हमेशा देखा, बाबा की वाणी को लोगों ने ढक रखा है। वे बुराइयों को नहीं ढकते। वे दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत और रूहानियत वाले संदेश को जाने क्यों ढकते हैं। उसे तो खुला छोड़ने की ज़रूरत है। हवा में बिखेर देने की। आख़िर वो बाबा नानक ही तो थे, जिन्होंने कहा था, बुरे लोग बसे रहें, अच्छे उजड़ जाएं!

आज के वोट की राजनीति करने वालों में यह हिम्मत नहीं कि वे इस पर कुछ बोल-बतिया सकें। वे वोट के लालच में कट्टरता को हवा देते हैं और इन्साफ़ तथा इन्सानियत का गला घोंटने में लगे रहते हैं! वे किसी ग़रीब मुसलमान की लिंचिंग कर देने वाले या किसी दलित को इस नृशंसता से जिब्ह कर देने वाले हत्यारों का कुछ कर सके? हम जिनसे इस समाज को न्याय दिलाने की उम्मीद करते हैंं, वे तो किसी ब्लू स्टार, किसी गुजरात या किसी दिल्ली संहार के आयोजनकर्ता रह चुके हैं।

यह सही है कि इन दिनों उन लबों पर कुछ ख़ास चुप्पियां या सफाइयां हैं, जो कुछ दिन पहले की लिंचिंग पर काफी मुखर थे। या जो इस्लामिक हिंसा पर तीव्र प्रतिक्रियाएं देते हैं, वे इस घटनाक्रम पर कुछ नहीं बोल पा रहे। यह हत्या तो अब हुई है, लेकिन नानक, बुद्ध, ईसा के दर्शन और मूल्यों की हत्या तो कभी से हो रही है।

आज भी दलितों की क्या स्थिति है? क्या उन्हें गुरुघरों-मंदिरों में सम्मानजनक प्रवेश है? क्या वे अपनी ज़मीनों के मालिक हैं? आज सबसे अधिक नशे में वही क्यों हैं? आख़िर इस पाताल लाेक का सच जानने के बावजूद पूरी व्यवस्था चुप क्यों रहती है? हम आए दिन किस लोकतंत्र की बात करते हैं। आख़िर एक इन्सान कुछ लोगों के सामने इतना असहाय क्यों हो जाता है? पूरी व्यवस्था बेचैन होने के बजाय मूक क्यों नज़र आने लगती है?

क्या हमारी चेतना कभी इस तरह जगेगी कि हम अपने आपको सभ्य इन्सान के रूप में देख सकें? हम कब तक असभ्यता थपेड़े इस तरह खाते रहेंगे? राजनीति कब तक धर्म से ज़हरीले फेन निकाल कर हमारी मुँह पर मारकर हमें अंधा बनाती रहेगी? कब तक क्रूर ध्वनियों से हमारा लोकतंत्र ठठाता रहेगा? लोकतंत्र पर कब तक पाषाण बरसाए जाते रहंगे और कब तक उसे सिंगारदान की तरह रखकर हमें बताया जाएगा कि हम उसके काजल को आँखों में आंजकर प्रसन्न रहें?

यह कुछ विशेष भावनाओं से निर्मित भारत है। यह कुछ विशेष कल्पनाओं से सुसज्जित भारत है। इसे हत्यारों के अभयारण्य में बदलने से बचाना लाजिमी है। इसके लिए ज़रूरी है कि हम पाँच हज़ार साल पुरानी सभ्यता के विभ्रम से छुटकारा पाएँ और इसे 15 अगस्त 1947 के एक नौजवान आधुनिक भारत मानें, जहाँ धर्म, जाति और इतिहास के बीहड़ों से आने वाली ज़हरीली हवाओं से कोई लेना-देना न हो! भले उन्होंने कोई बाना पहन रखा हो, किसी धर्म की आड़ ले रखी हो, किसी विचार के खोल ओढ़ रखे हो।

आख़िर, यह कैसा लोकतंत्र है कि उसमें एक साल होने को आए और कोई सरकार उनकी बात ही न सुने! मानो हम भारतवासी न होकर किसी इस्लामिक, किसी चीनी या किसी उत्तर कोरियाई क्षेत्र में हैं! लोक की बात न सुनने वाले लोकतंत्र के नियामक कैसे हो सकते हैं। लगता है, जैसे गुरुग्रंथ साहिब के स्वयं भू रक्षक हैं, वैसे लोकतंत्र के भी स्वयम्भू संरक्षक हो गए!

हिंसा हिंसा है। हत्या हत्या है। वह हिंसा सत्ता की हो, किसी भी धार्मिक या राजनीतिक विचार की हो, हिंदूवादियों की हो, इस्लामवादियों की हो, गांधीवादियों की हो...उसे अस्वीकार्य करना चाहिए। हत्या और हिंसा पर गर्व जताने वालों के लिए इस देश में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। इसलिए लखबीरसिंह के हत्यारे लखबीरसिंह के हत्यारे नहीं हैं। वे नानक धर्म की रूह के हत्यारे हैं। वे भारतीय संविधान की आत्मा के हत्यारे हैं। हमें चिंता करनी चाहिए कि इस देश में गांधी के हत्यारे भी गांधी के हत्यारे नहीं हैं, वे उस महान भारतीय स्वतंत्रता के मूल्यों के हत्यारे हैं, जिसे गांधी से वैचारिक असहमत लोगों ने भी जीवन न्योछावर किए थे। आख़िर बाबा नानक ने ही सबसे पहले साहसपूर्वक कहा :

सोचै सोच न होवई जो सोची लख वार।

चुप्पै चुप न होवई जे लाई रहा लिव तार।

भुखिआ भुख न उतरी जे बनां पूरियां भार।

सहस सियाणपा लख होहि त इक न चलै नालि।

किव सचियारा होइए किव कूड़ै तुटै पालि।

हुकुम रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि!!

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