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व्यावहारिक तौर पर जातीय अस्मिता के उभार ने भारतीय समाज को समावेशी बनाया है
- रंगनाथ सिंह ( पूर्व पत्रकार, बीबीसी )
व्यावहारिक तौर पर जातीय अस्मिता के उभार ने भारतीय समाज को ज्यादा समावेशी बनाया है। दलित और पिछड़ी जातियों की मुखरता ने प्रभुवर्ग को उनकी बात सुनने के लिए बाध्य किया है। कल की ही खबर थी कि कोल जाति के भाजपा सांसद की बेटी सपा में शामिल हो गयी हैं। आज से दस-बीस साल पहले इस खबर को लिखते समय कोल जाति पर कोई जोर नहीं दिया गया होता। आज हर पार्टी को सोचना पड़ेगा कि कोल कौन हैं, कहाँ हैं और कितने हैं। यदि कोई सचमुच कोल वोटों को प्रभावित कर सकता है तो उसकी हर पार्टी में पूछ होगी।
भारत की सभी जातियों में जातीयता की भावना प्रबल है। किसी भी जाति के दो-चार प्रतिशत लोग ही इससे ऊपर उठ पाते हैं। राजनीतिक दृष्टि से देखें तो अब भारत में वही पार्टी राज करेगी जो बहुमत जातियों को साथ लेकर साथ चल सकेगी।
मशहूर जर्मन समाजशास्त्री मैक्स वेबर मानते थे कि जाति ही भारत का रिलीजन है। पश्चिम का रिलीजन और हमारा धर्म बुनियादी रूप से भिन्न है। हिन्दू पहचान तो भौगोलिक पहचान थी जो इतिहास की लीला से धार्मिक पहचान बन गयी। भारत की जातीयता इतनी मजबूत है कि लोगों ने धर्म तो बदल लिये लेकिन जाति नहीं त्यागी। मसलन, हिन्दू और मुसलमान दोनों में त्यागी, चौधरी, राजपूत इत्यादि मिल सकते हैं।
कुछ पिछड़े-दलित भले ही ब्राह्मणों को गाली देते रहते हैं लेकिन आज दलितों की देश की सबसे बड़ी पार्टी खुलेआम ब्राह्मण जाति को अपने साथ आने के लिए कह रही है। वहीं इन्हीं लोगों द्वारा ब्राह्मण-बनिया की पार्टी कही जाने वाली पार्टी पिछड़ों के हक में बड़े फैसले ले रही है। विभिन्न दलित जातियों को अपने साथ लाने का प्रयास कर रही है। इसी जातीय राजनीति के परिणामस्वरूप पंजाब को पहला दलित मुख्यमंत्री मिला।
मुझे पूरा यकीन है कि सामाजिक विकास का यह चरण पूरा होने के बाद विभिन्न जातियों के बीच पहले से बेहतर आपसी रिश्ते होंगे। कृषि से औद्योगिक अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ने के दौरान विभिन्न जातियों के लोक-व्यवहार के समीकरण भी बदलते जाएँगे। सामाजिक समरसता बढ़ने के साथ राष्ट्र-राज्य का ऐतिहासिक चरित्र उन्हें जातीयता के ऊपर राष्ट्रीयता को तरजीह देने के लिए बाध्य करेगा।