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फिर आया हिंदी दिवस,कदाचित हमारे शर्मिंदा होने का दिन : एम इकराम फ़रीदी

Desk Editor
14 Sept 2021 6:20 PM IST
फिर आया हिंदी दिवस,कदाचित हमारे शर्मिंदा होने का दिन : एम इकराम फ़रीदी
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वो लेखक अस्तरीय कैसे हो सकता है जिसने अपने उपन्यास में एक पूर्ण कथा का सृजन किया हो | क्या इसलिए कि वो लेखक अपराध साहित्य लिखता है ? तो क्या अपराध साहित्य के बिना भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की जा सकती है ?

55 करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा का आज दिवस हैं |

प्रायः कहा तो यही जाता है कि दिवस मनाने का अर्थ उपेक्षित, दबे कुचले और नजर अंदाज कर दिये गये वर्ग को इस बहाने याद किया जाता है ताकि उसकी स्वीकार्यता का लोप न हो जाये |

यह बड़ा हास्यास्पद है कि जिस भाषा को 55 करोड़ से अधिक लोग बोलते हों जिसकी टीवी चैनलों पर इतनी धाक हो कि चैनलों पर भाग लेने आये प्रतिभागी को एन्कर द्वारा फर्राटा अंग्रेजी बोलने पर बार बार टोका जाता हो ---"सर हिंदी में बोलिये |"

क्योंकि एन्कर को विश्वास है कि अगर प्रतिभागी ने इसी तरह अंग्रेजी बोली तो अगले कुछ सेकिंड में कार्यक्रम की टीआरपी धाराशायी हो जाएगी |

लेकिन विडंबना देखिये कि आज गरीब हिंदी भाषी भी अपने बच्चे को इंगलिश मीडियम में पढ़ा रहा है | जिस रिक्शा चालक की प्रतिदिन आय 800--1000 रुपये है उसका बच्चा इंगलिश मीडियम में जा रहा है |

क्यों ---????

क्या हिंदी रोजगार की भाषा नहीं रही ?

मैं इसके साहित्यिक पक्ष पर बात करूंगा | उससे पहले बताऊं कि हमारे घरों में अंग्रेजी इस तरह प्रवेश पा चुकी है कि खुद अनपढ़ मांएं अपने बच्चे को चांद दिखाते हुए कहती हैं ----वो देखो बेटा मून , वो केट , वो डॉग ...

उनको पता ही नहीं है कि चांद के साथ हमारी कितनी लोकगाथाएं हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं | चंदा मामा हो सकता है , मून मामा नहीं हो सकता | चांद सी महबूबा हो सकती है, मून सी महबूबा हमारी संस्कृति में नहीं पायी जाती |

हिंदी की इस बरबादी के तार हिंदी साहित्य पक्ष से जुड़े हैं | जिस भाषा के बोलने वाले बड़ी संख्या में हों और उस भाषा को अनपढों की भाषा स्वीकार कर लिया जाये तो इसका सीधा सा अर्थ है कि उस भाषा के साहित्कार तमाम फर्जी हैं | साहित्यकारों पर यह उत्तरदायित्व तय होता है कि वे अमुक भाषा को जन जन की बनायें , अमुक भाषा का जादू व्यक्ति के सिर चढ़कर बोले |

कैसी शर्म की बात है कि हिंदी क्षेत्र में हिंदी भाषी लोग हिंदी की मौजूदगी में सर्वमान्य स्वर में कहते हैं---'उर्दू बड़ी मीठी जबान है |'

इसका सीधा सा अर्थ है कि वे कहना चाहते हैं कि हिंदी कड़वी और उगल देने योग्य जबान है | क्या कोई भाषा मीठी या कड़वी हो सकती है ?

हिंदी साहित्यकारों का दिमागी आयतन देखिये कि अक्षर के नीचे बिंदी हिंदी वर्णमाला में नहीं है लेकिन हिंदी साहित्यकार गर्व के साथ लगाते हैं | दूसरी भाषा वालों ने हिंदी भाषा में घुसपैठ की और अपनी मर्जी के नियम बना दिये और यह स्टेचू लोग उसे स्वीकार कर बैठे |

अरे श्रीमान जी आप तो किसी दूसरी भाषा में घुसपैठ करके दिखाइए | आप कहिये कि क्रम और कर्म में आधा र हिंदी में अलग प्रकार से लगाया जाता है इसलिए जब हम इन शब्दों को रोमन या फारसी में लिखेंगे तो अंतर स्पष्ट करने के लिए एक नुक्ता लगाएंगे | तो देखना कि उस भाषा के विद्वानों द्वारा किस प्रकार उपहास उड़ाया जाएगा , कम स कम यह अवस्था तो कभी नहीं आ सकती कि उस भाषा के विद्वान भी नुक्तेबाजी करने लगें | तब उस भाषा पर हिंदी के घुसपैठियों का आधिपत्य माना जाएगा और उस भाषा के विद्वानों की गुलाम मानसिकता लिपिबद्ध की जाएगी |

इन हिंदी विद्वानों को कतई पीड़ नहीं होती कि हिंदी स्वर में ---- नफ्अ , जम्अ , शम्अ , मरज , तजरिबा , मद्रसा , फस्ल , सुब्ह इत्यादि नहीं है बल्कि हिंदी स्वर में ----जमा , नफा , शमा , तजुर्बा, मर्ज , मदरसा , सुबह , फसल इत्यादि है | हम हिंदी भाषी लोग 'शम्अ' स्वर पर ठहर ही नहीं सकते | हम जब भी बोलेंगे शमा बोलेंगे तो क्यों न एक अधिवेशन करके तमाम हिंदी विद्वान सर्वसम्मति से शम्अ को शमा का उच्चारण घोषित करें ताकि शमा लिखने वाले अपराध बोध और शर्मिंदगी का शिकार होने से बचें लेकिन यह काम तभी तो होगा जब किसी की चेतना में इतनी जागृति हो |

अक्षर के नीचे बिंदी लगाना तो हद दर्जे की हास्यास्पद बात है | कोई इनसे पूछे तो कि फिर ह, अ, त के नीचे बिंदी क्यों नहीं लगाते हो तो यह जबान तोड़कर चुप खड़े हो जाएंगे , इन्हे कोई जवाब नहीं बनेगा क्योंकि बिंदी क्यों लगायी जाती है , इनके पास इसका कोई समुचित उत्तर ही नहीं है |

ईश्वर ने बस इनको इतनी समझ विकसित की है --- वेद प्रकाश शर्मा अस्तरीय लेखक है |

श्रीमान जी, वो लेखक अस्तरीय कैसे हो सकता है जिसने अपने उपन्यास में एक पूर्ण कथा का सृजन किया हो | क्या इसलिए कि वो लेखक अपराध साहित्य लिखता है ? तो क्या अपराध साहित्य के बिना भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की जा सकती है ?

दूसरा गब्बर सिंह पैदा न हो , क्या यह तब तक संभव है जब तक गब्बर सिंह के क्रियाकलाप पर पूर्ण रूपेण प्रकाश न डाला जाये ?

मगर यह चेतना तब जागती है जब किसी भाषा में जन्मजात प्रतिभाएं जन्म लेती है | हालांकि मुझे विश्वास है कि हिंदी के आने वाले दिन स्वर्णिम हैं क्योंकि हिंदी को भावी विद्वान जन्मजात प्रतिभाशाली मिलेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है | धन्यवाद |

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