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तीन पत्रकारों की नौकरी जाने पर मचा हंगामा पाखंड के सिवा कुछ नहीं!

तीन पत्रकारों की नौकरी जाने पर मचा हंगामा पाखंड के सिवा कुछ नहीं!
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अवधेश कुमार
तीन पत्रकारों की एबीपी से नौकरी क्या गई कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर ऐसा हंगामा मचाया हुआ है मानो अनहोनी हो गई। मानो पत्रकारिता पर ही कभी न छंटने वाला ग्रहण लग गया। ऐसे कितनों लोग संस्थान से कई कारणों से जाते हैं, दूसरे संस्थान से जुड़ते हैं, कई को बाद में अवसर भी हीं मिलता और उनके लिए जीवनयापन कठिन हो जाता है। यह एक शाश्वत दुःस्थिति है। पत्रकार ही क्यों, किसी व्यक्ति को यदि प्रबंधन अपने यहां से अचानक निकालता है और उसके पीछे वाजिब कारण नहीं हो तो यह अन्याय है और इसका विरोध करना हम सबका धर्म बनता है। हमने ऐसी अनेक लड़ाइयां लड़ीं हैं। किंतु क्या इस समय का मामला ऐसा ही है?
इसका उत्तर आप जो भी दीजिए, लेकिन क्या नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद ही ऐसा हुआ है? विचित्र है। हमारे सामने ऐसे अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं, जब एक संपादक तक को अगले दिन कार्यालय में आने से मना कर दिया गया। आम उप संपादक, संवाददाता, प्रोड्युसर, एंकर आदि के गले पर हमेशा तलवार लटकती रहती है। मुझे किसी पत्रकार की राजनीतिक विचारधारा से कोई समस्या न रही है न रहेगी। एक लोकतांत्रिक समाज कई प्रकार की विचारधाराओं से स्वस्थ बना रहता है। हां, जब लोग सामचार में अपना विचार घुसेड़ते हैं, या अपने वैचारिक लेखों में हद से ज्यादा दुराग्रही हो जाते हैं, या अपनी बात को सही साबित करने के लिए तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करते हैं तो मुझे अवश्य पीड़ा होती है। जहां मौका मिलता है मैं इसे व्यक्त भी करता हूं।
इस समय ऐसा लग रहा है जैसे देश में तीन-चार पत्रकार ही हैं जिनकी रीढ़ की हड्डी बची हुई है और वे ही सच्ची पत्रकारिता कर रहे हैं। बाकी तो सब रीढ़विहीन और पतनशील हैं। जब ये लोग नहीं थे तब भी पत्रकारिता थी, ये नहीं रहेंगे तब भी पत्रकारिता रहेगी। अजीत अंजूम न्यूज 24 छोड़कर इंडिया टीवी आए। वहां से उनको जाना पड़ा। उनका निकलना कभी मुद्दा नहीं बना। लेकिन उनके पहले वहां से कमर वहीद नकवी निकल गए तो मुद्दा बन गया। सिद्धार्थ बरदराजन जैसे अनैतिक और झूठ की पत्रकारिता करने वाले संपादक को स्वयं एन. राम ने द हिन्दू से बाहर किया, क्योंकि वो समाचारों के साथ छेड़छाड़ कर रहे थे। एन. राम कबसे मोदी समर्थक हो गए? उन्होंने देखा कि वरदराजन जानबूझकर मोदी की जो खबरें प्रथम पृष्ठ पर होनी चाहिए, उसे अंदर कोने में डाल रहे थे। बहुत सारी खबरों को रोक रहे थे। एन. राम ने कहा कि यह हमारी पत्रकारिता नहीं है। आपको विचार में जो लिखना है लिखो, लेकिन समाचार से ऐसा अन्याय तो द हिन्दू की परंपरा के खिलाफ है। उस समय भी यही हल्ल मचा कि मोदी ने सिद्धार्थ को निकलवा दिया। खूब अभियान चले और एक पतनशील पत्रकार को हीरो बना दिया गया।
ठीक वैसा ही अभी हो रहा है। पुण्य प्रसून वाजपेयी के पास तो एक कार्यक्रम था, अभिसार शर्मा के पास ऐसा कोई कार्यक्रम भी नहीं था जिस पर कोई आपत्ति करता। उनकी ड्युटी सुबह से दोपहर लगती थी। उनको तो प्रबंधन ने काफी पहले संकेत दे दिया था उनसे बहस आदि के कार्यक्रम लेकर। वे स्वयं जमे हुए थे। वैसे पत्रकार से किसी को क्या समस्या हो सकती है? मिलिंद खांडेकर 15 वर्ष वहां रहे, पहले स्टार न्यूज में और बाद में एबीपी में। यह कोई छोटी अवधि थोड़े होती है। जहां तक पुण्य प्रसून वाजपेयी का प्रश्न है तो उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी पर मुझे कभी कोई संदेह नहीं रहा। लेकिन उनकी पत्रकारिता से कई बार मेरी असहमति रही है। हालांकि जब अरविन्द केजरीवाल से साक्षात्कार में ब्रेक के दौरान उनकी बात का टेप बाहर आ गया और उनके खिलाफ अभियान चलने लगा तो मैंने उसका अपने लेख में पूरा बचाव किया। कारण, ब्रेक में हमलोग आपस में ऐसी बातचीत करते हैं। हमारी लड़ाई होती है, लेकिन ब्रेक में वही व्यक्ति पूछते हैं कि मैं ठीक बोल रहा हूं या नहीं और हमें जो जवाब देना होता है देते हैं। यह सामान्य व्यवहार है।
खैर, मेरा मानना है कि उन्हें स्वयं जो कुछ हुआ है सामने आकर बताना चाहिए। वे चुप क्यों हैं? जब वे आज तक से अलग हुए तो कहा गया कि स्वामी रामदेव ने उन्हें हटवा दिया। इंडिया टुडे जैसा समूह इतना कमजोर हो गया कि किसी के दबाव में वह अपने यहां से पत्रकारों को हटाता और रखता है! अगर ऐसा ही होता तो इंडिया टुडे में राजदीप सरदेसाई और राहुल कंवल बने नहीं होते। जब राजदीप सरदेसाई के हाथ से सीएनएन आईबीएन गया तो यही हंगामा हुआ कि मोदी ने उनका काम तमाम कर दिया। आज भी वे पत्रकारिता में हैं और अपना विचार प्रस्तुत कर रहे हैं। उनकी पत्नी भी पत्रकारिता में हैं। बरखा दत्त एनडीटीवी की अंदरुनी समस्या से अलग हुईं। उस समय भी कहा गया कि उसे मोदी ने हटवा दिया। जैसे मोदी के पास पत्रकारों के हटाने के अलावा कोई काम नहीं है। तो फिर अर्नब गोस्वामी टाइम्स नाउ से क्यों हटे? खैर, आज उनके पास अपना चैनल है। लेकिन उन्हें हटाया तो टाइम्स प्रबंधन ने।
एबीपी में आज भी जितने पत्रकार हैं उन सबको क्या आप रीढ़विहीन, सिद्धांतीन, दुर्बल करार देंगे। अनुराग मुस्कान वहां घंटी बजाओ कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं। वो कार्यक्रम सरकार की योजनाओं की विफलताओं को प्रतिदिन दर्शाता है। उनको वहां से क्यों नहीं हटवा दिया गया? अनुराग मुस्कान कभी अपने को क्रांतिकार पत्रकार नहीं करते। बस, ईमानदारी से अपना काम करते हैं। चित्रा त्रिपाठी लगातार राजनीतिक शो करती है और बिल्कुल स्वतंत्र रुप से। उसको क्यों बाहर नहीं किया गया। रुमायना भी वहां एक शो करती है और वह भी खुला होता है। ऐसे अनेक साक्षात् प्रमाण हैं जिनसे यह साबित होता है कि खड़ा किया गया पूरा तूफान झूठ पर आधारित है।
एक अजीब वातावरण है। पत्रकार जो चाहते हैं खुलकर लिख रहे हैं, बोल रहे हैं, फिर भी कह रहे हैं कि अघोषित आपातकाल लग गया है। एबीपी पर आज भी वे सारे पत्रकार गेस्ट के रुप में आ रहे हैं जो मोदी और भाजपा के कट्टर विरोधी हैं। वो अपना विचार उसी तरह रखते हैं। क्या वे पत्रकार नहीं हैं? मैंने अपने एक मित्र की फेसबुक पोस्ट पढ़ी। अच्छे पत्रकार हैं। उनकी नौकरी संपादक के कारण गई, लेकिन इस प्रकरण से जोड़कर वे भी लिख रहे हैं कि हमारी नौकरी भी इसी में गई। वे स्वयं भाजपा के खिलाफ खुलकर लेख लिख रहे हैं, लेकिन कह रहे हैं कि सच लिखना असंभव हो गया है। मैं उन सारे लोगों से जो अखबारों में लिखते हैं या टीवी पर बहस में जाते हैं पूछता हूं कि क्या आपको कभी कहा गया कि आपको मोदी और भाजपा के पक्ष मेें लिखना और बोलना है? जो अखबार के अंदर संपादकीय लिखते हैं या राजनीतिक खबरें करते हैं क्या उनसे कभी उनके संपादक या प्रबंधन ने ऐसा कहा? मुझे अभी तक एक भी उदाहरण नहीं मिलता। कई बार लोग अपनी अयोग्यता, अक्षमता को छिपाने के लिए स्वयं को शहीद बनाने की व्यूह रचना करते हैं। कुछ राजनीतिक दुराग्रह के शिकार हैं और उसे लिखने या वैसी रिपोर्ट करने की अनुमति नहीं मिलती तो उसकी कुंठा वे क्रांतिवीर बनकर निकालने का पाखंड करते हैं। यही इस समय हो रहा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है, यह उनके निजी विचार है)
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