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बीच मंझधार में आत्म निर्भर होने के लिए कहना ठीक इस लडकी तरह है!

Shiv Kumar Mishra
13 Jun 2020 9:33 AM IST
बीच मंझधार में आत्म निर्भर होने के लिए कहना ठीक इस लडकी तरह है!
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एलिजा एक फूल बेचने वाली लड़की का नाम है। वो इंग्लैंड की सड़कों पर फूल बेचती है। वो गरीब है, उसे बहुत सारे वो शिष्टाचार नहीं पता जिसे बड़े लोगों का समाज जीता है। प्रोफेसर हिगिंस अपने दोस्त से कहते हैं कि वो किसी की भी ज़िंदगी संवार सकते हैं। वो किसी की ज़िंदगी बदल दे सकते हैं। उसका रहन-सहन बदल दे सकते हैं। और यहीं वो शर्त लगाते हैं कि वो सड़क पर फूल बेचने वाली इस लड़की को भी अभिजात्य वर्ग की लड़की में तब्दील कर सकते हैं।

प्रोफेसर उस लड़की को अपने घर ले आते हैं। वो लड़की की ज़िंदगी बदलने लगते हैं। उसे शिष्ट बनाने लगते हैं। अभिजात्य वर्ग के बीच उठना-बैठना और उनसे घुलना-मिलना सिखाने लगते हैं। कुल मिला कर उसके सपने जगाने लगते हैं।

लड़की को प्रोफेसर पर बहुत यकीन है। उसे लगता है कि प्रोफेसर सही में उसकी ज़िंदगी बदल देंगे।

कुछ साल बीत जाते हैं। लड़की अभिजात्य वर्ग के सारे गुण सीख लेती है। और यहीं एक दिन वो प्रोफेसर के सामने विवाह का प्रस्ताव रखती है। कहती है प्रोफेसर आप मुझसे विवाह कर लीजिए।

प्रोफेसर हैरान होते हैं।

"ऐसा कैसे संभव है लड़की? मैंने तुम्हारी ज़िंदगी खूबसूरत बनाने का वादा किया था तुम्हें अपनाने का नहीं।"

लड़की प्रोफेसर के सामने सवाल रखती है। और वही सवाल आपके संजय सिन्हा के सामने बार-बार आकर खड़ा हो जाता है।

लड़की कहती है कि प्रोफेसर आपने मेरी ज़िंदगी बदलने का वादा किया था। उसे खूबसूरत बनाने का वादा किया था। लेकिन आपने इस क्रम में मेरी ज़िंदगी बुरी कर दी है। क्योंकि मेरे पास जीने के सारे रास्ते बंद हो गए हैं, इसलिए मैंने आपसे विवाह का प्रस्ताव रखा है।

प्रोफेसर सोच में पड़ जाते हैं। कैसी लड़की है? कहां मैंने इसकी ज़िंदगी बदल दी, एक फूल बेचने वाली से ये अभिजात्य हो गई है और कहां ये मुझी पर आरोप लगा रही है? अजीब नाशुक्रा संसार है।

प्रोफेसर कहते हैं कि तुम्हारी ज़िंदगी को तो मैंने संवारा है, तुम मुझी पर आरोप लगा रही हो?

लड़की कहती है कि मैंने संपूर्ण भरोसा करके अपनी ज़िंदगी आपके हाथों में दी थी। मुझे लग रहा था कि आप मेरे साथ प्रयोग कर रहे हैं तो मुझे बीच राह में नहीं छोड़ेंगे। मंज़िल तक मेरा साथ देंगे। मुझे वहां तक ले कर जाएंगे। पर आपने तो मुझे असल में कहीं का नहीं छोड़ा। बीच में आपने मेरा हाथ छोड़ दिया और कहने लगे कि अब तुम आत्मनिर्भर हो। तुम्हें अपने फैसले खुद लेने चाहिए। पर कैसे? मैं कहां जाऊं? क्या करूं?

प्रोफेसर पूछते हैं कि तुम्हारी मुश्किल क्या है लड़की?

लड़की कहती है कि प्रोफेसर, मैं एक सामान्य फूल बेचने वाली लड़की थी। जैसा भी था मेरा एक संसार था। आपने कहा कि मैं तुम्हारी ज़िंदगी बदल दूंगा। तुम मेरे साथ आओ। मैं आपके साथ चली आई। आपने मुझे अभिजात्य वर्ग के तौर तरीके सिखलाए। उन जैसा बनाने की कोशिश की। मैं बन भी गई। पर अब मैं क्या करूं? आपका अभिजात्य वर्ग मुझे अपनाने को तैयार नहीं। वो कहता है कि मैं उनकी नहीं। उनके बीच की नहीं। और मेरा पुराना समाज अब मुझे अपना मानता नहीं। वो कहता है कि मैं उनके बीच की नहीं। मैं उनकी नहीं रही। प्रोफेसर, वहां के लोगों ने मुझे छोड़ दिया है, आपके लोग मुझे अपनाने को तैयार नहीं। अब आप बताएं कि मैं क्या करूं? अब मेरे सामने कौन-सा रास्ता है? आपने तो कह दिया कि आत्म निर्भर बनो। मैं हर कदम पर तुम्हारी उंगली पकड़ कर नहीं ले चल सकता।

सारे फैसले आपके थे। आपने जो कहा, मैंने वो क्या। अब अचानक आप मुझे मेरे हाल पर छोड़ देंगे तो ये सवाल तो उठेगा ही कि मैं कहां जाऊं? अब क्या करूं? या तो आप मेरी ज़िंदगी के रहनुमा बनते नहीं, और बने तो फिर आख़िर तक साथ निभाना था। मेरी ज़िंदगी जैसी भी थी, मेरी थी। लेकिन अब मेरी ज़िंदगी मेरी नहीं रही।

प्रोफेसर हिगिंस चुप थे।

लड़की कह रही थी कि सोचिएगा प्रोफेसर। ज़रूर सोचिएगा। किसी की ज़िंदगी बदलने का फैसला जब कोई बडा़ बन कर लेता है तो क्या उसे उसकी मंज़िल तक नहीं पहुंचाना चाहिए? क्या उसे ये कह कर छोड़ देना उचित रहता है कि मैंने इतना कर दिया, आगे तुम देख लो। क्या देख लूं? आपने तो मेरे सारे रास्ते बंद कर दिए हैं। आपने पहले कहा होता कि मेरे फैसले मानोगी तो मैं तुम्हें यहां लाकर छोड़ दूंगा तो शायद मैं आपकी बात मानती ही नहीं। आप मेरी ज़िंदगी के मसीहा बनने आए थे। अब चुप क्यों हैं?

कहानी बीच में रुक जाती है।

Sanjay Sinha की आज की पोस्ट की कहानी। शीर्षक संजय कुमार सिंह का है।

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