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भारत में टीवी पत्रकारिता के गॉडफादर माने जाने वाले सुरेन्द्र प्रताप सिंह उर्फ़ एसपी की आज पुण्यतिथि है
जितेंद्र कुमार
भारत में टीवी पत्रकारिता के गॉडफादर माने जाने वाले सुरेन्द्र प्रताप सिंह उर्फ़ एसपी की आज पुण्यतिथि है. 1997 में उनकी मौत के बाद बीते दो दशक से ज्यादा वक़्त में भले एसपी के शिष्य और शिष्याएं टीवी चैनलों के सर्वेसर्वा बन चुके हैं और मीडिया की दिशा तय कर रहे हैं, लेकिन इसी अवधि में टीवी मीडिया जितना नैतिक और वैचारिक पतन का शिकार हुआ वह भी अद्भुत है. आखिर इसकी वजह क्या है? मूल शीर्षक "टेलीविज़न पत्रकारिता: सन्दर्भ एसपी सिंह" से लिखा गया यह लेख इस बात की पड़ताल करता है कि टीवी पत्रकारिता की सड़ांध बुनियाद में थी, स्तंभों में या फिर उस चूने-पेंट में है जिसे आज के संपादक खुलेआम दोषी ठहरा रहे हैं। यह लेख 2013 में इसी दिन जनपथ पर छपा था. इस लेख में अनामित व्यक्तियों और पदों को 2007 जनवरी के हिसाब से पढ़ें और समझें। (संपादक)
अपनी बात शुरू करने से पहले एक कहानी। बात उन दिनों की है जब दिल्ली में मेट्रो रेल शुरू ही हुई थी। मेरे एक मित्र मेट्रो से घर जा रहे थे। उन्हें कश्मीरी गेट पर मेट्रो का टिकट खरीदना था। उन्होंने टिकट खरीदते समय 50 रुपए का नोट दिया। टिकट लेते समय ही ट्रेन आ गई और वे हड़बड़ी में मेट्रो में बैठ गए। मेट्रो में बैठने के बाद उनको याद आया कि अरे, बकाया पैसे तो उन्हें मिले ही नहीं। अगले स्टेशन पर उतर कर उन्होंने इस बात की शिकायत 'शिकायत कक्ष' में की। थोड़ी देर पूछताछ और दरियाफ्त करने के बाद यह पाया गया कि सचमुच उनके पैसे वहीं रह गए हैं, अतः वे आकर अपने बचे हुए पैसे ले जाएं।
खैर, अगले दिन सवेरे उनसे मिलना था लेकिन उन्होंने फोन करके मुझसे आग्रह किया कि दोपहर के बाद मिलने का कार्यक्रम रखा जाए। जब हम मिले तो उन्होंने बताया कि वह कल वाली घटना की शिकायत मेट्रो प्रमुख सहित इससे जुड़े देश के तमाम लोगों से कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि जब आपको पैसे मिल गए हैं तो फिर शिकायत किस बात की कर रहे थे? इस पर उनका जवाब था- "देखिए, मेट्रो अभी बनने की प्रक्रिया में है, अभी जो भी खामियां हैं, अगर नीति-निर्माता और इसके कर्ता-धर्ता ईमानदारीपूर्वक चाहें तो वे खामियां दूर की जा सकती है। मैंने उन्हें सुझाव दिया है कि दिल्ली मेट्रो को ऐसा सिस्टम बनाना चाहिए जिसमें यात्रियों को टिकट (टोकन) के साथ ही बचे हुए पैसे वापस कर दिए जाएं।" और थोड़े दिनों के बाद ही मेट्रो में यह व्यवस्था बन गई कि टोकन के साथ ही पैसे भी वापस किए जाने लगे।
बात उन दिनों की है जब भारत में टेलीविज़न पत्रकारिता की शुरुआत हो रही थी- वर्ष 1993/94/95, एस.पी. सिंह (सुरेन्द्र प्रताप सिंह) कोलकाता से निकलने वाले अंग्रेजी दैनिक 'द टेलीग्राफ' के राजनीतिक संपादक से उठाकर 'आजतक' (तब तक यह चैनल नहीं बना था, दूरदर्शन पर सिर्फ एक समाचार का कार्यक्रम था) के प्रमुख 'बना दिए' गए थे। ('बना दिए गए थे' का जुमला एस.पी. का था। उनका कहना था कि वह इसके लिए तैयार नहीं थे, बस ए.पी. यानी अरुण पुरी ने जबरदस्ती उन्हें वीपी हाउस के लॉन से कंपीटेंट हाउस में लाकर बैठा दिया था)। इस प्रोग्राम के लिए स्लॉट तो मिल गया था लेकिन कार्यक्रम अभी तक शुरू नहीं हुआ था। ढेर सारे बेहतरीन प्रोफेशनल और सामाजिक सरोकार रखने वाले पत्रकार (एस.पी. के 'सरोकार' को ध्यान में रखकर) उनसे नौकरी मांगने और वैसे ही मिलने के लिए आते-जाते रहते थे। इन्हीं दोनों सिलसिले में मैं भी उनसे मिलता रहता था (हालांकि हमारी जान-पहचान 1992 से थी जब तथाकथित 'राष्ट्रवादियों' द्वारा बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद देश के हजारों संवेदनशील लोगों का समूह सड़कों पर उतर आया था और हम लोग सीलमपुर के दंगा प्रभावित क्षेत्र में काम कर रहे थे)।
यह एस.पी. के जीवन का वह दौर था जब वे प्रिंट मीडिया में अपना परचम फहराकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में पांव रख रहे थे। इसी बीच दूरदर्शन पर 'आजतक' शुरू हो गया और वह कार्यक्रम धीरे-धीरे लोकप्रिय होने लगा। जानने वालों के लिए एस.पी. और आम लोगों के लिए एस.पी. सिंह अपने पत्रकारीय जीवन के शिखर पर विराजमान हो गए।
जिस रफ्तार से आजतक 'सफल' हो रहा था उसी तेजी से एस.पी. से मिलने वालों की भीड़ भी बढ़ती जा रही थी, लेकिन वह भीड़ सामाजिक सरोकार व चाहने वालों की ही नहीं थी बल्कि टीवी पर दिखने वाले उस 'सफल' पत्रकार की थी जिसने 'खबरों' को 'बिकाऊ' बना दिया था। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है कि मिलने वालों के साथ-साथ नौकरी मांगने वालों की भीड़ भी उसी अनुपात में बढ़ रही थी। 'आजतक' की 'सफलता' के साथ-साथ लोगों को रोजगार भी मिल रहे थे और टेलीविज़न में अधिकांश रोजगार देने वाले एस.पी. ही थे।
इसी बीच एस.पी. के चाहने वाले एक सज्जन से मेरी मुलाकात 'आजतक' के पहले वाले दफ्तर कनॉट प्लेस में 'कंपीटेंट हाउस' की सीढ़ी पर हुई। ये वह सज्जन थे जिनके बारे में एस.पी. का कहना था कि उत्तर भारत की वर्तमान राजनीति पर इससे बेहतर समझ वाला व्यक्ति उन्हें नहीं मिला है। मैं ऊपर न जाकर उनके साथ ही नीचे उतर आया। इधर आने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि वह किसी की सिफारिश लेकर आए थे लेकिन एस.पी. ने साफ-साफ कह दिया कि टेलीविज़न पत्रकारिता में पढ़े व समझदार लोगों की ज़रूरत नहीं है। अगर वह चाहते हैं तो वह उनके वार्ड को किसी अखबार में रखवा सकते हैं। उसके बाद मैं जब भी एस.पी. से मिलने जाता, यह जानने की कोशिश करता कि वे पढ़े-लिखे व समझदार लोगों से इतना परहेज़ क्यों करते हैं, जबकि खुद वे पढ़े-लिखे व समझदार व्यक्ति माने जाते थे? अंत में बहुत झिझक के बाद एक बार मैंने उनसे पूछ ही लिया कि आप पढ़े-लिखे और समझदार लोगों से इतना परहेज़ क्यों करते हैं? इस पर उनका जवाब था- 'वे प्रश्न बहुत पूछते हैं। इसलिए मैं मूर्ख-मूर्खाओं (मूर्खाओं का तात्पर्य बेवकूफ़ लड़कियों से था) को रखता हूं और उनसे जो भी काम कहता हूं वे तत्काल करके ला देते हैं।'
एक बार मैं एस.पी. से मिलने गया था और अपनी बारी का इंतजार कर रहा था। जब मैं उनके केबिन में दाखिल हुआ तो वे काफी गुस्से में थे। मुझे देखते ही झल्लाकर बोलने लगे- "अभी जो सज्जन निकले हैं उन्हें नौकरी चाहिए! अब बताओ भला, इस विजुअल मीडिया में खादी पहनकर थोड़े न काम होगा! यू हैव टु बी स्मार्ट, सुंदर दिखना पड़ेगा!" एस.पी. उस समय इतने चिढ़े हुए थे कि उन्हें यह भी ध्यान नहीं था कि वे जिस व्यक्ति से यह बात कर रहे हैं वह खुद खादी पहने हुआ है और गाहे-बगाहे उनसे अपनी नौकरी की बात करता रहा है (यह संयोग है कि उस दिन मैंने उनसे इस संदर्भ में यह बात नहीं की थी)। इतने वर्षों के बाद जाकर उनकी बातों का अर्थ अब समझ में आने लगा है।
आज टेलीविज़न पत्रकारिता बाजार में ताल ठोककर खड़ी है, समाचार पहले से ज्यादा बिकाऊ है, न्यूज़ से करोड़ों की कमाई हो रही है और सैकड़ों लोगों को इस 'इंडस्ट्री' में रोजगार मिला है, तब यह प्रश्न उठता है कि बहस किस बात को लेकर हो? इसलिए एस.पी. आज बहस के केन्द्र में हैं, गुज़रने के इतने वर्ष के बाद भी।
आखिर एस.पी. को प्रश्न पूछने वालों या खादी पहनने वालों से इतना परहेज़ क्यों था? क्या इसे एक 'ट्रेंड' के रूप में परिभाषित किया जा सकता है? या इसका कोई वैचारिक धरातल भी है? इन सब बातों पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है। जिस समय एस.पी. हिन्दुस्तान में टेलीविज़न पत्रकारिता की ज़मीन तैयार कर रहे थे, वे बहुत अच्छी तरह जानते थे कि आने वाले दिनों में आज के 'ट्रेंड' का ही अनुसरण किया जाएगा। इसलिए वे पत्रकारों की ऐसी पीढ़ी तैयार करना चाह रहे थे जो पूरी तरह बाजारोन्मुखी हो और बाजार के सामने कोई भी समझौता करने को तैयार हो (व्यक्तिगत जीवन में वह खुद उदारीकरण के बड़े पैरोकार और समर्थक थे)। उन्हें पता था कि यह काम सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध और पढ़े-लिखे पत्रकारों से वह नहीं करवा सकते थे, क्योंकि समझदार पत्रकार उनसे कई तरह के प्रश्न पूछ सकते थे। निश्चय ही जब वे उनसे प्रश्न पूछते तो सवाल व्यक्तिगत तो नहीं ही होते बल्कि समाज की चिंता से जुड़ी बातें ही वे पूछ रहे होते जिसमें उदारीकरण, बाजार, सामाजिक दुर्दशा और सामाजिक सरोकार से जुड़े न जाने कितने अन्य प्रश्न होते और यहीं पर एस.पी. अपने को असहज महसूस करते। कल्पना कीजिए कि एस.पी. ने सामाजिक सरोकार से जुड़े सभी काबिल पत्रकारों को नौकरी पर रख लिया होता और वे मीडिया में महत्वपूर्ण पदों पर होते तो क्या बाजार उन्हें उसी तरह अपनी जद में ले पाता जैसा कि एस.पी. के बनाए 'बड़े-बड़े महारथी पत्रकारों' को अपनी जद में उसने ले लिया है? शायद एस.पी. का यही 'विज़न' था जो उन्हें एक साथ सामाजिक सरोकार का पुरोधा भी बनाता था और बाजार का प्रबल समर्थक भी!
दूसरी बात उनकी खादी पहनने वालों से चिढ़ने की है। उस वक्त मैं सोचता था कि आज अगर गांधी या लोहिया होते तो क्या एस.पी. उनसे भी उतना ही चिढ़ते! लेकिन धीरे-धीरे मेरी इस सोच में बदलाव आया और मैंने जाना कि वह उन्हीं प्रतिबद्ध, ग्रामीण, गरीब और मजबूर खादी पहनने वालों से चिढ़ते हैं जो उनसे कुछ मांगने (रोजगार, पैसे नहीं) आते हैं। जो उनसे कुछ मांगने नहीं आता था बल्कि प्रतिबद्धता के साथ-साथ शौक से भी खादी पहनता था उनकी वे इज्जत ही करते थे। इसका एक उदाहरण योगेन्द्र यादव हैं।
तीसरी बात, जब प्रतिबद्ध और सामाजिक सरोकारों से जुड़े पत्रकार टेलीविज़न मीडिया में होते तो आज की स्थिति कैसी होती, यह एक बार फिर काल्पनिक प्रश्न है। लेकिन अगर सचमुच ऐसा हुआ होता तो क्या इस बात को कोई भी इस विश्वास के साथ कह पाता कि टेलीविज़न पत्रकारिता में एकमात्र प्रतिबद्ध व्यक्ति एस.पी. सिंह ही हुए!
एस.पी. सिंह के पत्रकारीय जीवन को देखा जाय तो आपको एक भी ऐसा व्यक्ति नज़र नहीं आएगा जो सीधे तौर पर सामाजिक सरोकार से जुड़ा रहा हो या फिर एस.पी. ने किसी प्रतिबद्ध पत्रकार की व्यावसायिक जीवन में किसी तरह की मदद की हो। वे हमेशा ऐसे लोगों को ही प्रश्रय देते और प्रोत्साहित करते रहे जो पूरी तरह मूढ़ और सामाजिक सरोकारों से बिल्कुल कटे हुए थे। उदाहरण के लिए 'आजतक' में एस.पी. ने एक ऐसे व्यक्ति को नौकरी दी थी जो वहां काम करने वालों में सबसे अधिक संवेदनशील और राजनीतिक समझदारी वाले थे लेकिन उन्हें टेलीप्रिंटर पर टिकर देखने का काम दिया गया था जिसे वह एस.पी. निधन के बाद भी करते रहे और यह काम उन्होंने तकरीबन सात वर्षों तक किया। लेकिन एस.पी. ने उन्हें कभी रिपोर्टिंग के लिए नहीं भेजा।
इसी तरह उन्होंने एक ऐसे व्यक्ति को नौकरी दी जिनके बारे में मशहूर है कि वह 'बिकनी किलर' चार्ल्स शोभराज का इंटरव्यू करने के लिए छोटा-मोटा अपराध कर के गोवा की जेल में चला गया जहां शोभराज को कैद करके रखा गया था और वहां से उसने शोभराज का इंटरव्यू किया। यह एक अलग तरह की पत्रकारिता हो सकती है और इसे शायद पत्रकारीय सरोकार ही कहा जाना चाहिए। लेकिन चार्ल्स शोभराज को तिहाड़ जेल से भगाने में मदद करना (आईबी की रिपोर्ट में यह बात दर्ज है) सिर्फ अपराध ही है। लेकिन एस.पी. ने उस व्यक्ति को इतना अधिक प्रश्रय दिया कि वह आज हिंदी के बड़े चैनल का प्रमुख बना हुआ है। दुखद ये है कि एस.पी. के पास ऐसे पत्रकारों की लंबी सूची थी जिन्हें वे बड़ा पत्रकार मानते थे और उन सबके साथ 'मिलकर-जुलकर काम' करते थे। बड़े पत्रकारों की सूची में प्रभु चावला सबसे ऊपर थे!
जब देश में टेलीविज़न पत्रकारिता की शुरुआत हो रही थी तो एस.पी. उसे दिशा दे सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसका कारण यह नहीं है कि उनमें यह करने का माद्दा नहीं था बल्कि इसका कारण यह है कि वह काफी 'होशियार' व्यक्ति थे और जो करना चाहते थे उसे कर लेते थे। ऐसा वह नवभारत टाइम्स में आंशिक रूप से ब्राह्मणवाद के वर्चस्व को कमजोर करके दिखा चुके थे (यह अलग बात है कि उनके निधन के इतने वर्षों बाद हिन्दी पत्रकारिता एक बार फिर उसी ब्राह्मणवाद की गिरफ्त में आ गई है क्योंकि आज के दिन उस काट का कोई केन्द्र नहीं रह गया है)। इसे एस.पी. ने पत्रकारिता की दूसरी पारी में फिर से प्रमाणित करके दिखा दिया जब उन्होंने सारे मीडियॉकर लेकिन गैर-ब्राह्मणों को टेलीविज़न पत्रकारिता का 'स्टार' बना दिया जो आज किसी न किसी रूप में देश के लगभग सभी हिन्दी चैनलों के कर्ता-धर्ता की हैसियत में हैं। लेकिन टेलीविज़न पत्रकारिता की कमान प्रगतिशील, समाजोन्मुख और प्रतिबद्ध पत्रकारों के हाथ में जाए यह उन्हें कतई गवारा नहीं था। उनकी ऐसी इच्छा ही नहीं थी कि पत्रकारिता की कमान कभी ऐसे लोगों के हाथ में आए। वे वैचारिक रूप से दूसरी पंक्ति के पत्रकारों के खिलाफ थे (पहली पंक्ति के तो खुद थे) जो शायद उन्होंने 'मालूला' (मायावती, मुलायम और लालू) से सीखी थी, जिसके वे बड़े प्रशंसक थे।
एस.पी. ने 'समकालीन जनमत' के पत्रकारिता विशेषांक में कृष्ण सिंह द्वारा किए गए साक्षात्कार में साफ-साफ पूछा था कि किसी को क्यों लगता है कि कोई सेठ क्रांति करने के लिए अखबार निकालेगा। उनका मानना था कि सेठ पैसा मुनाफा कमाने के लिए लगाता है। एस.पी. सिंह स्पष्ट तौर पर मानते थे कि अगर किसी को क्रांति करनी है तो पत्रकारिता करने की क्या जरूरत है! शायद एक सच यह भी है क्योंकि क्रांति और पत्रकारिता का क्या रिश्ता हो सकता है? लेकिन वे यह मानने को तैयार नहीं थे कि प्रतिबद्धता के साथ पत्रकारिता करके समाज निर्माण में सकारात्मक सहयोग किया सकता है।
यह बात दीगर है कि एस.पी. ने अपना एक 'स्कूल' बना लिया था (एस.पी. सिंह स्कूल ऑफ जनर्लिज्म) और उनके अनुयायी आज टेलीविज़न पत्रकारिता में चारों ओर भरे पड़े हैं। उसी स्कूल ऑफ थॉट के सबसे बड़े पैरोकार वर्तमान में (2007 में) आजतक के संपादक हैं। अगर आप उनसे मिलने जाते हैं और जब वह खाली होते हैं तो दो-तीन मीटिंग के बाद यह बताना कतई नहीं भूलते हैं कि वे गांव के एक बहुत ही 'मामूली' ('गरीब' शब्द का प्रयोग वह एकदम नहीं करते हैं) परिवार से आए हैं जिसने अपनी जिंदगी की शुरुआत बनारस में होटल मैनेजरी से की है और 'प्रतिभा की बदौलत' इस मुकाम तक पहुंचे हैं। उनकी प्रतिभा क्या थी या है यह ज्यादातर लोग नहीं जानते, लेकिन वह भी एस.पी. की तरह खादी पहनने वालों से गहरे चिढ़ते हैं और ग्रामीण को गंवार समझते हैं। एस.पी. खादी पहनने वालों से चिढ़ते थे यह बात तो थोड़ी बहुत समझ में आती है (हालांकि यह समझ पूरी तरह गलत है) क्योंकि उनकी परवरिश गांव में नहीं बल्कि कलकत्ता के 'भद्रलोकों' के बीच हुई थी लेकिन वे तो गांव के हैं, फिर वे ऐसे लोगों से क्यों चिढ़ते हैं? क्या इस देश में उदारीकरण शुरू होने से पहले भी 'लुई फिलिप','एलेन सॉली', 'कलरप्लस','वैन ह्यूजन' या फिर 'फैब इंडिया' जैसे मशहूर ब्रांड के कपड़े मिलते थे जिसे पहनने का संस्कार उनमें था?
दुष्यंत कुमार के कुछ शब्दों को अगर उधार लूं और कहूं कि "मत कहो आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है", तो मैं यह कहना चाहता हूं कि यहां एस.पी. को एक व्यक्ति के रूप में नहीं बल्कि एक 'फेनोमेनन' के रूप में देखें, जिनकी टेलीविज़न पत्रकारिता में जबरदस्त पैठ है और जिनके अनुयायी एम.जे. अकबर सहित देश के बड़े-बड़े पत्रकार हैं। वे जब कहीं भाषण देने जाते हैं तो बताते हैं कि आज पत्रकारिता में पढ़े-लिखे लोगों की कमी है और जब कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति वहां पहुंचता है तो खुद अकबर जैसे लोगों का जवाब होता है कि अब पत्रकारिता में पढ़े लिखे लोगों की जरूरत क्या है? तो लोगों को समझना पड़ेगा कि इस दुनिया को बनाने में उनके जैसे लोगों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है, और शायद इसे और आगे ले जाएं तो कह सकते हैं कि वे वही लोग हैं जिन्होंने पत्रकारिता खासकर हिन्दी पत्रकारिता को गर्त में पहुंचाया है और आज भी हम उनकी दुहाई देते फिर रहे हैं।
एस.पी. के ढेर सारे अनुयायियों के बारे में गौर कीजिएगा कि वे जब आपसे मिलेंगे तो यह बताना नहीं भूलते हैं कि अफसोस तो इस बात का है कि एस.पी. टेलीविज़न पत्रकारिता के आरंभ में ही गुज़र गए, नहीं तो इस पत्रकारिता की दशा-दिशा बदल गई होती। यह सुनकर मैं चुप्पी लगा जाता हूं क्योंकि वे उनकी राजनीति और उनके विरोधाभास को नहीं समझ पाते हैं। एस.पी. बाजार के बड़े समर्थक थे और सांप्रदायिकता के कट्टर विरोधी। सामान्यतया विद्वानों का कहना है कि बाजार, सांप्रदायिकता और साम्राज्यवाद तीनों एक साथ चलते हैं। अगर वे होते तो इतने वर्षों में पूरी तरह फल-फूल चुके बाजार, उदारीकरण और सांप्रदायिक पार्टी के सत्ता पर विराजमान हो जाने के बाद एस.पी. क्या करते? यह सोचकर मैं डर जाता हूं और दिमाग को सोचने से मना कर देता हूं। यह डर मेरा है… क्योंकि इससे किसी की प्रतिमा टूट सकती है।