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- दान में कैसा पंथ!
शंभूनाथ शुक्ल
कानपुर में मेरी पढ़ाई-लिखाई जिस गोविंद नगर मोहल्ले में हुई। वहाँ पूर्वी पंजाब और सिंध (आज के पाकिस्तान) से आये शरणार्थियों की संख्या बहुत थी। ख़ासकर इस मोहल्ले के जिस इलाक़े में मेरा घर था। ब्लॉक नंबर छह की जिस बिल्डिंग (57 नंबर) में हमारा क्वार्टर था, उसमें कुल छह घर हिंदुस्तानियों के थे। तब पंजाबी लोग हमें इसी पहचान से बुलाते। बाक़ी में दो घर खत्री सिख थे, एक जट-सिख परिवार था, जो शरणार्थी नहीं था। यह परिवार अमृतसर से था। दो परिवार पेशावरी सहजधारी सिख थे। तीन परिवार राधास्वामी सम्प्रदाय के मोना थे। पाँच परिवार हिंदू पंजाबी खत्री थे। दो घर पंजाबी सुनारों के थे। इनमें से एक निरंकारी मोना था। जबकि दूसरा किसी अद्वैत संप्रदाय में दीक्षित था। एक परिवार पंजाबी दलित का था, जो कृष्ण प्रणामी संप्रदाय को मानता था। हिंदुस्तानियों में एक परिवार मेहरोत्रा खत्री का था। तीन परिवार ब्राह्मणों के एक परिवार नाऊ जाति का तथा एक कोई पूरब के ठाकुर थे।
हिंदुस्तानी सभी परिवार मोटा-मोटी सनातनी हिंदू समझे जाते थे। पर सबके ईष्ट अलग-अलग थे। मेरा पिताजी सनातनी, आर्य समाजी मान्यताओं से होते हुए कम्युनिस्ट हुए और एक दुर्घटना के बाद वे फिर सनातनी हो गए। मेहरोत्रा परिवार हिंदुस्तानी सनातनी था और पनकी के हनुमान मंदिर पर उन्हें बहुत भरोसा था। उनके पास सेकंड वर्ल्ड वार वाली एक पुरानी कार थी। जिस पर सब बच्चों को लेकर हमें हर मंगलवार को वे पनकी मंदिर ले जाते। कम्युनिस्ट साहित्य को पढ़ा तो हनुमान मंदिर जाना बंद कर दिया। किंतु दिल्ली में एक कम्युनिस्ट विचारक मुझे कनाट प्लेस के हनुमान मंदिर ले गए। उन्होंने समझाया कि हनुमान जी कम्युनिस्ट हैं। वे जात-पात नहीं मानते। स्त्री-पुरुष में भेद नहीं करते। और देखो वे भी लाल हैं। हालाँकि उनकी समझाइश के बाद भी मैंने कोई कनाट प्लेस के हनुमान मंदिर जाना शुरू नहीं किया। लेकिन एक बाद समझ में आ गई कि हनुमान जी दिल में बसते हैं। किसी मंदिर में नहीं।
अब पंजाबी समुदाय में इतने भेद-विभेद थे, कि कुछ समझ ही नहीं आता। एक रोज़ पिताजी ने समझाया कि सबके धार्मिक स्थलों और मान्यताओं का आदर करो। हम गुरुद्वारों में जाते और गुरु परब के जुलूस में भी। ख़ासकर चार ब्लॉक के गुरुद्वारे में। 1972 में जय प्रकाश नारायण (जेपी) ने जब चम्बल के डाकू मोहर सिंह और माधो सिंह का आत्म समर्पण कराया तब वे प्रभावती जी के साथ इस गुरुद्वारे में आए थे। पिताजी मुझे उनका भाषण सुनाने ले गए थे। हम लोगों ने उनके इस यज्ञ में धन दिया था। तब जेपी से हम लोग ख़ूब बतियाए थे। उन्होंने बताया कि गोविंद नगर में यह जो गोविंद है वह कृष्ण भी है और गुरु गोविंद सिंह भी। इसलिए सब को मिल-जुल कर रहना चाहिए। कभी-कभी सिख लोग गुरुद्वारे के निर्माण के लिए चंदा माँगने आते तो हम भी भरसक मदद करते। सात ब्लॉक के कृष्ण प्रणामी मंदिर भी जाते। और एल ब्लॉक स्थित निरंकारी मंदिर भी। पंजाबी हिंदू खत्रियों का पाँच ब्लॉक में सनातन धर्म सभा लाहौर से रजिस्टर्ड संस्था का मंदिर था। वहाँ भी जाते। लेकिन उनके मंदिर में राम जी की प्रतिमा को तो धोती पहनाई जाती किंतु सीता मैया सलवार-सूट पहनतीं। मुझे बड़ा अजीब लगता और ग़ुस्सा भी आता कि भगवान हमारे पर क़ब्ज़ा ये पंजाबी किए हुए हैं। कृष्ण और राधा की पोशाक तो और भी विचित्र होती। इसी मोहल्ले के ब्लॉक नंबर दो में एक आर्य समाज की यज्ञ शाला थी, वहाँ भी हम रविवार को हवन करने जाते। एक सिंधी समुदाय का झूले लाल मंदिर था। इसके अलावा तमाम अन्य पंजाबी मठ भी थे। शायद धर्म की जागृति सबसे पहले पंजाब में हुई होगी।
जब मैं युवा हुआ और शादी भी हो गई तथा पिता भी बन गया, तब हम लोग साकेत नगर में अपना मकान बनवा कर रहने लगे। गोविंद नगर का क्वार्टर नगर महापालिका से किराए पर लिए हुआ था। पाँच रुपए महीना किराया था लेकिन खूब खुला और हवादार। यह 75-75 गज के क्वार्टर थे। जिनमें बारह बाई बारह का एक कमरा बारह बबाई दस का एक बरामदा। उसी के कोने में रसोई और खूब खुला आँगन। ये दुमंज़िले थे। हम लोग दूसरी मंज़िल पर रहते थे। साकेत नगर में 200 गज का अपना मकान हो गया। खूब खुला इलाक़ा। यहाँ की अधिकतर आबादी कानपुर देहात के सवर्ण और ताकतवर ओबीसी समुदाय की थी। इसलिए इस समुदाय की हड़पू प्रवत्ति के चलते इसका विकास वैसा नहीं हुआ, जैसा कि मारवाड़ी, अग्रवालों और पंजाबी-सिंधी बिरादरी वाले मोहल्लों का हुआ। यहाँ जिसकी जैसी धमक और हैसियत थी, उसने वैसे क़ब्ज़े किए। पार्क तथा अन्य सार्वजनिक सम्पत्तियों पर। जहां जगह देखी मंदिर बना लिए। पीपल के पेड़ से हनुमान जी निकाल दिए आदि-आदि। इसके आसपास मुस्लिम बस्तियाँ भी थीं। कभी-कभी चार लोग हरी चादर का एक-एक कोना पकड़े आते और मस्जिद या मज़ार के लिए धन माँगते। हम उनको भी देते। होली में होली जलाने वालों को धन देते और क्वार के महीने में राम लीला वालों को भी। कहने का आशय यह कि धार्मिक कार्यों में दान देते समय किसी धर्म या समुदाय अथवा पंथ में कोई भेद नहीं किया।