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हम फेसबुक, व्हाट्सएप आदि पर क्या पाते और क्या खोते हैं?
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सोशल मीडिया एक बिल्कुल मध्यवर्गीय मामला है। इसपर न अमीर होते हैं और न गरीब। लाखों- करोड़ों की मासिक आमदनी वाले लोग फेसबुक आदि पर कभी नहीं होते!
कई बार सोशल मीडिया आभास कराता है कि वही सभी कला- साहित्यिक रूपों का वैकल्पिक मीडिया है। हम लेखक-बुद्धिजीवी उसमें अपनी गुमटी बना कर बैठे होते हैं। फेसबुक , व्हाट्सएप, ब्लॉग आदि हमें सहयोग देते हुए दिखते हैं। वे हमें स्वतंत्रता का आभास कराते हैं, जो चाहे पोस्ट करो। लेकिन वस्तुतः वे हमारी क्षमताएं छीन रहे होते हैं, हमारी चिंताओं को संकुचित कर रहे होते हैं। हमारी दिमागी गैस निकल जाती है। हम घर बैठे ही दिग्विजय कर लेते हैं। इसके अलावा, सोशल मीडिया प्रसूति- गृह है और तत्काल कब्रगाह भी !
यह मीडिया आत्म सम्मोहन की प्रवृत्ति को उकसाता है, नार्सिस्टिक बनाता है। ग्रीक नायक नार्सिसस को अपने चेहरे से इतना प्यार हो गया कि वह हर तरफ सिर्फ अपना चेहरा देखना चाहता था।
सोशल मीडिया पर टिड्डियों की तरह पोस्ट आते हैं। क्या करे पाठक, 'यूजर' ? ऑनलाइन पर सक्रिय कुछ संपादक और लेखक दावा करते हैं कि उनके 10 हजार फॉलोवर हैं, एक लाख फॉलोवर हैं। फॉलोवर के संबंध में यह सोचना कि वे लंबी रचनाएं पढ़ते हैं, एक बहुत बड़ा भ्रम है। 20- 30 लाइनों की छोटी रचनाएं जरूर कुछ ज्यादा पढ़ी जाती हैं, अन्यथा 5-7 लाइनों के बाद आमतौर पर दम उखड़ जाता है। कई हैं जो खुद पढ़ने की जगह पढ़ाने में ज्यादा तत्पर दिखते हैं! वस्तुतः ऑनलाइन पर दावे की तुलना में बहुत थोड़े धैर्यवान पाठक होते हैं।
डिजिटल मंच पर हमें आभास होता है कि हम एक- दूसरे से जुड़े हुए हैं। खासकर किसी की मृत्यु पर तुरंत सूचना मिल जाती है, एकमात्र इस मामले में एका झलकता है। कहना न होगा कि डिजिटल मंच अपरिहार्य हैं, पर उनपर निर्भरता एक बड़े साहित्यिक पाठक वर्ग की संभावना से हमें काट देगी। ऐसे भी सोशल मीडिया पुस्तकें, पत्रिकाएं और लंबी रचनाएं पढ़ने की संस्कृति का बड़े पैमाने पर नाश कर रहा है। नौजवानों की पीढ़ी इस सम्मोहक बाढ़ में तबाह है! उनके दिमाग में फेसबुक कई बार जोंक की तरह होता है, इसी में डूबे रहते हैं।
यह भी उल्लेखनीय है कि सोशल मीडिया के इलाकों पर मुख्यतः बड़ी सूचना- फैक्टरियों का कब्जा है। ये निर्मित और कई बार झूठी सूचनाएं प्रसारित करती हैं। पोस्ट को लाइक और आंख मूंदकर फारवर्ड करते- करते नागरिक या उपयोगकर्ता खुद सोचने और कल्पना करने की अपनी ताकत खो देता है।
कई चीजें मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं, डिजिटल मनोरुग्णता बढ़ाती हैं। कई बार किसी को अभिमन्यु की तरह घेर कर महारथियों का वीरता- प्रदर्शन भी देखने को मिला है। ऐसी घटनाओं से, यदि व्यक्ति कठकरेजी न हुआ तो अवसाद का शिकार हो जाता है।
मुझे लगता है कि सोशल मीडिया को सुबह- शाम चाय पीने से ज्यादा महत्व नहीं देना चाहिए। हम सोशल मीडिया का उपयोग करते हुए इसे स्वतंत्रता का महाद्वार न समझ लें, इसकी सीमाओं को जानें। इसकी लगाम अदृश्य हाथों में होती है।
यह भी महसूस किया जा सकता है कि साहित्य अगर प्रिंट में नहीं बचेगा तो वह ऑनलाइन में भी नहीं बचेगा। इससे समझा जा सकता है कि ऑनलाइन कभी भी प्रिंट का विकल्प नहीं है, जिस तरह कोकोकोला पानी का विकल्प नहीं है।
मेरा यह सब लिखना सोशल मीडिया पर अपने से ही युद्ध है!
--शंभुनाथ ( पूर्व प्रोफेसर, कोलकाता विश्वविद्यालय )