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पाकिस्तान का मतलब क्या' यात्रा संस्मरण भाग 3 - असग़र वजाहत
अगले दिन सुबह सजा-सजाया ऑटो रिक्शा आ गया। यहाँ यह बताता चलूँ कि पाकिस्तानी ड्राइवर, ख़ासतौर पर बसों, ट्रकों और ऑटो रिक्शा के ड्राइवर अपनी गाड़ियों की सजावट पर बहुत ज्यादा ध्यान देते हैं। ट्रकों, बसों पर ऐसी चित्राकारी, ऐसी सजावट ऐसे रंग-बिरंगी फूल-पत्ती के नमूने बने होते हैं कि देखते ही बनता है। मैंने उनकी कुछ तस्वीरें भी ली हैं पर जैसी चाह रहा था वैसी तस्वीरें नहीं ले पाया। खै़र, तो शौकत का ऑटो रिक्शा सजा सजाया था। शौकत की उम्र यही कोई बीस के आसपास रही होगी। दुबला-पतला जिस्म, चेहरे पर काली ख़शख़सी दाढ़ी और सलवार कमीज़ में शौकत पक्के ऑटो ड्राइवर लगते थे। आॅटो के अंदर भी उन्होंने तरह-तरह के धार्मिक 'स्टिकर' लगा रखे थे। उनमें से कुछ को देखकर मुझे शक हुआ था कि शौकत शायद शिआ मुसलमान हैं। लेकिन मैंने पूछना ठीक नहीं समझा था।
लाहौर की शाही मस्जिद और क़िले के बाद गुरुद्वारा डेरा साहिब लाहौर और महाराजा रणजीत सिंह की समाधि अपने आॅटो रिक्शे वाले मियाँ शौकत के साथ पहुँच गया। गुरुद्वारे के गेट पर ही तीन-चार लोग फोल्डिंग कुर्सियों पर बैठे थे। फाटक बंद था। सिपाही पहरा दे रहे थे। लगता था गुरुद्वारा सबके लिए खुला नहीं है। मैंने कहा कि मैं गुरुद्वारा देखना चाहता हूँ।"
"आप कहाँ से आये हैं?" किसी कर्मचारी ने पूछा।
"इंडिया से।"
"अपना पासपोर्ट दिखाइए।"
मैंने अपना पासपोर्ट दे दिया। छोटे कर्मचारियों के हाथ से होता यह कुछ बड़े कर्मचारी, जो थोड़ी बड़ी कुर्सी पर बैठे थे, के पास पहुँचा। वे ध्यान से पासपोर्ट देखते रहे और फिर बोले, "आप सैयद हैं।" पासपोर्ट में मेरा पूरा नाम सैयद असग़र वजाहत लिखा है।
"हाँ हूँ।" मैंने कहा।
अब दूसरे लम्हे जो हुआ उससे मैं बौखला-सा गया। प्रबंधक उठे और मुझसे लिपट गये। बोले, "अरे सैयद साहब...आप यहाँ तशरीफ लाये ये तो बड़ी खु़शकिस्मती की बात है।" वे इसी तरह के और जुमले भी बोलते रहे। मैं हैरान था कि यह क्या हो गया है। सैयद शब्द में ऐसा क्या जादू है जो उन्हें मोहित कर रहा है।
बाद में पता चला कि सैयद अर्थात् इस्लाम धर्म के पैगम्बर मुहम्मद साहब के वंशजों का पाकिस्तान में बहुत महत्त्व है। पहली बात तो यह कि सैयद होने के कारण ही, कट्टर मुस्लिम समाज में, किसी आदमी की हैसियत ऊँची हो जाती है। दूसरी यह कि पाकिस्तानी राजनीति, सेना, उद्योग-व्यापार आदि क्षेत्रों में सैयदों का बहुत असर है।
गुरुद्वारा डेरा साहब के प्रबंधक ने मुझसे कहा कि मैं अच्छी तरह गुरुद्वारा और महाराजा रणजीत सिंह की समाधि देख सकता हूँ। जबकि वहाँ के नियमों के अनुसार किसी ग़ैर सिख या गै़र हिन्दू को गुरुद्वारे के अंदर जाने की अनुमति नहीं है। लेकिन मेरे साथ दो गाइड भेज दिये गये। मैं जो कहता वह दिखाया जाता था। फोटो लेने की पूरी इजाज़त थी।
गुरुद्वारा और समाधि देखने के बाद मुझे प्रबंधक के कार्यालय में लाया गया। प्रबंधक महोदय ने बड़े प्रेम से चाय मंगयी। बातचीत होने लगी। उन्होंने बतया कि पाकिस्तान बनने के बाद सरकार ने हिन्दू मंदिरों और सिख गुरुद्वारों को अपने
अधिकार में ले लिया था। अब भी इन जगहों की देखरेख और सुरक्षा पाकिस्तानी सरकार करती है। पूजा-पाठ का काम उसी धर्म के पुजारी वगै़रह करते हैं। मैंने गुरुद्वारे में भी तीन-चार सिख देखे थे।
प्रबंधक ने बताया कि साल में एक बार पूरी दुनिया से सिख समुदाय के लोग यहाँ आते हैं। बहुत बड़ा जमावड़ा होता है। प्रबंधक ने बताया कि वे गुरुमुखी लिपि जानते हैं और हिन्दी लिपि जानने का बड़ा मन है लेकिन लाहोर में उसका कोई इंतज़ाम नहीं है। मुझसे हिन्दी लिपि के बारे में वे कुछ पूछते रहे। मैं जितना बता सकता था, बता दिया।
प्रबंधक महोदय ने कहा कि वे अपने अधिकारी, जो पाकिस्तान सिविल सर्विस के बड़े अधिकारी हैं, से मेरी फोन पर बात कराना चाहते हैं क्योंकि अधिकारी भी सैयद हैं और उनका परिवार विभाजन के वक़्त अलीगढ़ से यहाँ आया था। उन्होंने अपने अधिकारी जै़दी साहब को फोन किया और बड़े आदर, विनम्रता, सम्मान से बात करने लगे। मेरे बारे में बताया। लेकिन शायद अधिकारी ने बात करने से मना कर दिया। प्रबंधक ने कहा कि वे अभी कहीं जा रहे हैं, बाद में बात करेंगे। बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि जै़दी साहब के पिताजी अलीगढ़ जाना चाहते हैं। जबसे वे यहाँ आये हैं तब से अलीगढ़, अपने वतन नहीं गये। अब उनकी उम्र अस्सी साल के ऊपर है। वे जीवन में एक बार अलीगढ़ जाना चाहते हैं। उनके बेटे यानी पाकिस्तानी सिविल सर्विस के अधिकारी के लिए अपने वालिद को अलीगढ़ भेजना मुश्किल भी नहीं है। लेकिन एक बड़ी मुश्किल और है इसी वजह से जै़दी साहब अपने वालिद साहब को अलीगढ़ नहीं ले जाते।
"अभी भी जै़दी साहब के वालिद अलीगढ़ की बातें करते-करते रोने लगते हैं...अगर उन्हें अलीगढ़ ले जाया गया तो कहीं..."
"हाँ-हाँ मैं समझ गया।" मैंने कहा। प्रबंधक कहना चाहते थे कि कहीं जै़दी साहब के वालिद पर इतना असर न हो जाए कि वहीं अलीगढ़ में...।
"अब क्या है जनाब...अपने साहब...अपने अब्बा जान को टालते और बहलाते रहते हैं। बेचारे और क्या कर सकते हैं?" वे बोले।
मैं सन्नाटे में आ गया। अमृतसर की वह रात याद आयी जब सरदार असवंत सिंह की शानदार कोठी में पार्टी चल रही थी। खाना, पीना, बातचीत सब अपने शबाब पर था। बातचीत लाहौर पर निकल आयी थी। जसवंत सिंह की बूढ़ी माँ ने कहा था, "मैंनूं को इक बार लाहौर दिखा दो...इक बार...।" मैंने सोचा था, सरदार जसवन्त सिंह करोड़पति हैं। बाहर तीन शानदार गाड़ियाँ खड़ी हैं। हर गर्मी में यूरोप ले जाते हैं पूरे परिवार के साथ। पैसे की रेल-पेल है। लेकिन अमृतसर से पचास किलोमीटर दूर लाहौर जाने के लिए उनकी माँ पचास साल से तड़प रही हैं और वे मजबूर हैं...उनकी लक्जरी कारें पचास किलोमीटर का फषसला पचास मिनट में तय कर सकती हैं। वीज़ा फीस अगर पाँच हज़ार रुपये भी हो तो क्या है? और कुछ नहीं तो एक दिन के लिए ही उन्हें इजाज़त दे दी जाए तो बात बन सकती है ओर फिर जसवंत सिंह की अस्सी साल की मां से पाकिस्तान को क्या ख़तरा हो सकता है?
दोनों देशों की आंतरिक सुरक्षा को पूरी तरह मज़बूत बनाये रखते हुए भी भारत-पाक की वीज़ा नीति अधिक मानवीय हो सकती है। सौ तरह से वीज़ा की समस्या पर सोचा जा सकता है। एक दिन का वीज़ा, ग्रुप वीज़ा, संरक्षण में यात्रा, सिक्युरिटी के साथ वीज़ा आदि कई उपाय हैं, लेकिन दोनों सरकारों में कुछ ऐसे तत्त्व हैं जो अपने या अपने समूह के लाभ के लिए दुश्मनी बनाये रखना चाहते हैं। दुश्मनी रहेगी तो हथियार ख़रीदे जाएँगे। हथियार ख़रीदे जाएँगे तो अरबों रुपया कमीशन मिलेगा। सेना का महत्त्व बना रहेगा। दोनों देशों में ऐसी बहुत मज़बूत लाॅबी है जो सुरक्षा के नाम पर वीज़ा नीति में ढील नहीं देना चाहती। अगर कड़े वीज़ा नियमों से ही सुरक्षा संभव होती तो भारत-पाक में न तो बम विस्फोट होते और न आतंकी हमले होते। लेकिन रोज़ यही नज़र आता है। वीज़ा नियमों में ढील देने से न तो आंतरिक सुरक्षा को ख़तरा है, न आतंकवाद बढ़ेगा। हाँ ख़तरा है तो उन लोगों, समूहों को है जो भय, दुश्मनी, हिंसा और आतंक के नाम पर अंडे-पराँठे उड़ा रहे हैं। आतंकवाद और धर्मान्धता की जड़ है- अज्ञान और शोषण। लेकिन मूल मुद्दों के प्रति ध्यान कौन देता है, पर सत्ताधारियों के लिए अज्ञान और शोषण ही 'जीवन रेखा' है।
- ( फेसबुक से साभार )