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क्या है अनुसूचित जाति और जनजाति उत्पीड़न (उत्पीड़न से बचाव) अधिनियम, और राजनीति का स्वरूप

क्या है अनुसूचित जाति और जनजाति उत्पीड़न (उत्पीड़न से बचाव) अधिनियम, और राजनीति का स्वरूप
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संक्षेप में और प्रचलित शब्दों के आधार पर कहें तो हम यहाँ एस-एसटी एट्रोसिटी एक्ट के बारे में बात करने जा रहे हैं. अब जैसा कि पिछले कुछ दिनों से भारत की सारी जनता को बुद्धिजीवी व किराँतिकारी और इस एक्ट के बेनेफेशरी इसी के बारे में ही बात करने के लिए मजबूर करके रख दिए हैं. वैसे बताते चलें कि इस पूरी बातचीत में एसटी केवल शब्द भर है बाकी 1989 में पारित होने से लेकर अब 2018 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई रूलिंग के बाद हुए विवाद तक में एसटी यानी अनुसूचित जनजाति यानी आदिवासी केवल शब्द भर रहा है. वैसे यकीन नहीं हो रहा होगा ना.
चलिए तो बात करते हैं एट्रोसिटी एक्ट पर, इस एक्ट को 1989 में संसद द्वारा लागू किया गया है. यानी राजीव गांधी के 1984 में प्राप्त हुए प्रचंड और ऐतिहासिक बहुमत के अंतिम काल में यह एक्ट अस्तित्व में आता है. शायद राजीव गांधी के राजनैतिक सलाहकारों ने आने वाली राजनीति को यानी बीजेपी के मंदिर तमाशे में पलीता लगाने के उद्देश्य से इसका इस्तेमाल किया था. बहुतों को ऐतराज होगा इस बात पर लेकिन अगर देखेंगे तो आपको पूरे मंदिर तमाशे की हिंदु राजनीति में हर जगह बैकवर्ड और फारवर्ड एक मिलेंगे, उसमें इस पूरे सेक्टर को उनके गढ़ में कमजोर करने के लिए इसका इस्तेमाल किया गया लगता है.
ओबीसी में जो आज जातियाँ हैं, उनमें से बड़ी संख्या वाली जातियाँ खेती किसानी से लगी हैं, और वहाँ ग्रामीण भारत में खेती और मजदूरी की परंपरा सदियों से रही है. आज से हमारा मतलब यह है कि ओबीसी का निर्धारण अलग-अलग राज्य सरकारों में अलग-अलग है. कई वामपंथी यहाँ मुट्ठी भींच लेंगे क्योंकि इनको ग्रामीण व्यवस्था में किसान रूस के सामंती किसान और खेती का मजदूर यूरोपियन भू-दास यानी सर्फ ही लगते हैं. खैर इनको यूरोप टहलने दीजिए अपन भारत आते हैं. यहाँ भू-स्वामी वाली जातियों का अक्सर मजदूरी को लेकर दलित वर्ग से सामना होता रहा है. पर यहाँ एक बात नोट करने वाली है कि यहाँ सारे किसान बड़ी सैकड़ों एकड़ जोत वाले नहीं बल्कि बहुसंख्या छोटे किसान का है जो आपस में एक दूसरे के यहाँ सामूहिक रूप से काम करके भी कृषि कार्य करते हैं. साथ ही बड़े से बड़ा किसान भी घुटने तक पैजामा किए हुए पानी लगाता मिल जाएगा.
खैर वापस इस एक्ट पर आते हैं तो इस एक्ट की धाराओं को अगर आप देखें तो यह बनाया ही ऐसे गया है इसमें मुख्य रूप से जमीनी विवाद सामने आते हैं. जैसे इस एक्ट में दंडनीय अपराध की जो व्याख्या दी गई है उसके दूसरे ही बिंदु को गौर से पढ़िए इसमें लिखा है कि अनुसूचित जाति व जनजाति की संपत्ति या उसके पड़ोस में गंदगी का ढेर लगाना, अपशिष्ट डालना और सड़े गले मांस को फेंक कर अपमान करना, चोट देना और झगड़ा करना अपराध है. अब इस धारा की व्याख्या शहर के हिसाब से तो ठीक है लेकिन गाँव पहुँचिए यहाँ गोबर फेंकना, पानी जमा होना और मरे जानवरों का निपटान यह ऐसी चीज़ें जिनका कोई निर्धारण शहर की तरह नहीं होता है अब ऐसे में इन चीज़ों से विवाद होना तो आम बात है. जाहिर है जो भी पशुपालक हैं वो इस व्याख्या में कभी भी आराम से फंस सकते हैं.
अब आगे चलिए और इस चौथे व्याख्या बिंदु को ध्यान से पढ़िए यही आपको सारी साजिश समझा देगी अनुसूचित जाति और जनजाति के व्यक्ति की भूमि या किसी भी रूप में प्रदान की गई या नोटिफाइड भूमि की जुताई और उस पर कब्जा अपराध है. अब यहाँ समझने वाली बात यह है कि गाँवों में ग्राम सभा या परती या फिर चरागाह की भूमि नोटिफाइड ही होती है या बटाई या झोपड़ी बांधने के लिए कृपा स्वरूप दी गई भूमि इस व्याख्या के अंतर्गत आती है. तो फिर चरागाहों या ग्राम सभा की भूमि अपने गाँव में याद कीजिए और देखिए यह एक्ट किसी खास एंगल से फंसाने वाला ही लगेगा. चरागाह और दी गई भूमि पर स्थाई आवास बना लेना अपना अधिकार इसी एक्ट के बाद से तेजी से बढ़ा है और विवाद में यह जगह बहुत आती हैं.
अब बात करता हूँ साजिश कि आपने इस एक्ट की दोनों व्याख्याओं में अनुसूचित जनजाति शब्द सुना होगा ना, तो याद कीजिए नियमागिरी से लेकर हुए संथाल तक और महाराष्ट्र से लेकर राजस्थान तक, तमाम जगहों पर आदिवासियों की जमीन छीनने की खबरें अक्सर आती है और तमाम किराँतिकारी लोग फेना कूँचते हैं. तो सवाल यह है कि कभी वेदांता से लेकर टाटा पर इस एक्ट में कार्यवाही हुई है. क्योंकि ऊपर दी गई दोनों व्याख्याओं में सबसे अधिक प्रताड़ित तो आदिवासी ही हैं ना, आखिर नोटिफाइड और स्थाई कब्जे वाली भूमि पर तमाम लोग अपने अपशिष्ट भी डालते हैं और कब्जा भी करते हैं. लेकिन सुरक्षा देने के बजाए उलटे ही सरकार अर्द्ध-सैनिक बल भेजकर कब्जा करवाती है. तो फिर इसमें अनुसूचित जनजाति के लिए कौन सी सुरक्षा है.
तो जब अनुसूचित जाति को यह कानून सुरक्षा ही नहीं देता है तो फिर यह आधा एक्ट तो अपने आप ही निष्क्रिय हो जाता है. दूसरी बात जाति को लेकर पचास बातें खुद समाज में आम-फहम हैं जैसे राजनीति कि एक बड़ी मशहूर कहावत रही है जो जनता दल के बारे में थी - "ठाकुर बुद्धि अहिर बल, झंडू हो गया जनता दल"- यह भी तो जातिवादी कमेंट रहा है, फिर यह भी पढिए "जाट बुद्धि भैंस बुद्धि" इन दोनों उदाहरण के रूप में दी गई हैं ऐसी तमाम बाते जातिगत टिप्पणियों और मज़ाक में चलता है और इससे सामने वाला बुरा भी नहीं मानता है. लालू यादव को अक्सर भैंस पर लोग बैठाते हैं यह जाति हिंसा ही है. वैसे भारत में जाति एक सच रही है, और जाति को लेकर टिप्पणी हमेशा रही है. अब अगर जाति नाम लेने से सुरक्षा देनी है तो फिर ब्राह्मणों को भी दीजिए क्योंकि वर्तमान में सबसे अधिक गाली गलौज ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद को ही टार्गेट करके दी जाती है. वैसे अगर जाति के नाम पर टिप्पणी गलत है तो फिर आपका खुद से खुद को ग्रेट कहना भी गलत होगा. चंद्रशेखर की ग्रेट वाली बातें तो याद होंगी ही आप ग्रेट भी बनना चाहते हैं और दूसरे को जाति का नाम लेने से डराना भी चाहते हैं ऐसा कैसे संभव है.
एक बात और भी है ध्यान से देेखेंगे तो पूरी दलित राजनीति इस एक्ट के सहारे ही उभरी है, क्योंकि इससे जहाँ यह मंच से खुली गालियों का प्रयोग कर लेते हैं वहीं दूसरे जाति का नाम भर ले लें तो पुलिस केस. अब एक बात और भी दलित जातियों के पूल कुछ खास को ही सबसे अधिक सुरक्षा मिली है अब वो राजनैतिक कारण से रही है या क्या यह तो आगे का विषय है. बाकी इस पूरे एक्ट में सबसे अधिक फंसे किसान ही हैं. बाकी तो देश और समाज का विषय है.
लेखक हरिशंकर शाही के द्वारा
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