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- जब आदमी चमगादड़ बन...
जब आदमी चमगादड़ बन जाएगा, फिर हमारा मुंह एक गुप्तांग होगा जानते हो क्यों?
आजकल मौलिक बातों का जीवन में घोर अभाव है। सब कुछ एक अश्लील दोहराव जैसा है। इसीलिए न लिखने का मन करता है, न कुछ बोलने का। ऐसे में जब कोई मौलिक बात अचानक आती है सामने, तो लगता है प्रकाश आ गया। गोया भांग का गोला गटक लिया हो, सहसा आँख खुल जाती है। ऐसी ही एक प्रकाशित करने वाली बात मेरे बचपन के संगी संतोष ने रात में कही।
संतोष पांडे बचपन के सबसे पुराने संगियों में एक है या कहें सबसे पुराना है, जो आज तक संपर्क में है। अमेरिका में रहता है, शिकागो शहर में। बनारस में हम और वो चौथी क्लास से स्कूल साथ जाते थे। वो आशापुर में रहता था, हम चौबेपुर के पास। एक समझौता था हम दोनों के बीच कि वो ऐसे टाइम पर सड़क पर खड़ा रहे कि हम जिस बस से आएँ वही बस उसे भी मिल जाए। चूंकि उस समय बसों का वक्त नियत था, तो तकरीबन रोज ही पहचान वाली बस मिलती थी। धरहरा या बलुआ से आने वाली कोई बस। काफी बाद में जब वो लूना ले लिया तो हम उसके साथ आशापुर तक आने लगे, फिर वहाँ से बस लेकर चौबेपुर जाने लगे। हाई स्कूल से बाद बीच में कुछ साल संतोष से संक्षिप्त अबोला रहा। फिर सब सामान्य हो गया।
बहरहाल, देर रात उसका फोन आया। उसकी जीवनसंगिनी फोन पर थीं। प्रणाम-नमस्ते के बाद बोलीं, लीजिए पांडे जी बात करेंगे। घंटा भर गप हुई। इधर-उधर के हालचाल के बाद बच्चों पर बात आयी। उसके दो छोटे बच्चे हैं। संतोष ने कहा- "आज के बच्चे कल को यही सोचेंगे कि मुंह भी एक प्राइवेट पार्ट है जिसे ढँक के रखना होता है।"
उसने बहुत सहजता से कहा था, लेकिन ये बात सुनने के बाद से ही इसके अर्थ को मैं घोंट रहा हूँ। जिसे हम आज प्राइवेट पार्ट कहते हैं, वो भी तो समय के साथ सत्ता की थोपी वर्जनाओं से ही इवॉल्व हुआ है! अगर सत्ता सार्वजनिक विषय पर बोलने को अपराध, अनैतिक, अश्लील बना दे, कि हर बार ऐसी वाणी पर दंडित किया जाने लगे, तो आदमी मुंह का इस्तेमाल केवल निजी विषयों के लिए ही करेगा।
संयोग देखिए, कि जिस दौर में मुंह को मास्क से ढंकना हमारी शारीरिक सुरक्षा के लिए चिकित्सीय रूप से जरूरी बताया जा रहा है, बिल्कुल उसी के समानांतर सामाजिक रूप से सुरक्षित रहने की भी शर्त बन चुका है मुंह बंद रखना। मतलब मुंह को बंद रखने के दो तर्क एक साथ चल रहे हैं: एक घोषित, दूसरा अघोषित। अगर इसी तर्ज पर चीजें आगे विकसित हुईं, तो बीस-तीस या पचास साल बाद मास्क पहनने का जो कृत्य आदतन बचेगा उसमें से मूल तर्क निकल चुका होगा। मास्क पहनना अंतः वस्त्र पहनने के तर्क से ही संचालित होगा। फिर हमारा मुंह एक गुप्तांग होगा, जैसा संतोष ने कल्पना की है। आदमी, आदमी नहीं चमगादड़ होगा तब। उल्टा लटका रहेगा। मुंह से मल करेगा। रात के अंधेरे में निकलेगा। दिन की रोशनी में छुपा रहेगा। गर्मी बढ़ने पर सामूहिक रूप से मरेगा। ठंडी जगहों में दीवारों से चिपटा रहेगा।