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अपने यौन दुराचारी को बचाने के लिए "संस्कारी" पार्टी का “हम बनाम वो” का खेल

Shiv Kumar Mishra
21 May 2023 8:15 AM IST
अपने यौन दुराचारी को बचाने के लिए संस्कारी  पार्टी का “हम बनाम वो” का खेल
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मेडल लाकर देश का नाम रोशन करने वाली बेटियाँ अब वे जाट हो गई।

बादल सरोज

अब वे जाट हो गयी हैं।

जब दो-दो बार ओलम्पिक खेलने वाली विनेश फोगाट एशियन गेम्स और राष्ट्रमंडल खेलों में पदक जीतकर आ रही थीं, तब वे भारत की बेटी थीं। जब साक्षी मलिक ओलिंपिक खेलों के महिला कुश्ती मुकाबलों में भारत का पहला मैडल जीतकर लौटी थीं, तब वे देश का गौरव थीं। उनकी उपलब्धियों की खीर में साझेदारी के लिए उतावले फोटूजीवी परिधानमंत्री दलबल सहित उन्हें दावत पर बुला रहे थे, उन्हें अपने परिवार का सदस्य बताकर उनके साथ फोटू उतरवा रहे थे, हार क्या और जीत क्या का ढेर ज्ञान बगरा रहे थे, उनकी टेबल पर जाकर बतियाते हुए स्नेह और लाड़ बरसा रहे थे। अखबारों की सुर्ख़ियों में उनके साथ अपना नाम और तस्वीर चस्पा करके कुछ इस तरह नजदीकियां जता रहे थे कि जैसे मैडल के पीछे खिलाड़ियों का परिश्रम और खेल कौशल कम, मोदी नाम केवलम का पुण्यप्रताप ज्यादा था। मगर जैसे ही इनने आपबीती सुनाने के लिए मुंह खोला, अपनी पीड़ा सुनाने की कोशिश की और मोदी की पार्टी के एक सांसद, कुश्ती फेडरेशन के अध्यक्ष द्वारा किये यौन उत्पीडन के जघन्य अपराधों को उजागर किया, जैसे ही इन्होंने पुलिस में अपनी शिकायत लिखाई, वैसे ही ये “भारत की बेटियाँ, देश का गौरव, परिवार की सदस्य” अचानक से जाट हो गयीं।

अब वे खिलाड़िनें नहीं हैं – अब वे जाट हैं ; जैसे जाट होना कोई गुनाह हो। विनेश या साक्षी या बजरंग की बजाय इनके फोगाट, मलिक और पुनिया होने पर जोर देते हुए जाट भी कुछ इस अंदाज़ में कुछ इस तरह दांत भींचकर, नफरत में डुबोकर बोला जा रहा है, जिस तरह इस कुनबे द्वारा मुसलमान बोला जाता रहा है। आईटी सैल पोषित इस अभियान में यहाँ तक लिखा जा रहा है कि “जाट एक कृतघ्न परजीवी कौम है। जो उनका भला करता है, वे उन्हीं को नुकसान पहुंचाते है।" आव्हान किया जा रहा है कि “यह भी सबक मानवता की शेष जातियों को सीखना चाहिये।" मतलब यह कि जाटों के बारे सबको वही कहना और मानना चाहिये, जो ब्रजभूषण शरण सिंह को बचाने के लिए इनका गिरोह कह रहा है ।

न्याय की गुहार करती जंतर मंतर पर बैठे खिलाड़ियों को जलील करने, अपमानित करने के लिए पूरी ताकत झोंक दी गयी है। देश की शानदार खिलाड़िनों को पैसा लेकर आंदोलन करने वाली आन्दोलनजीवी से लेकर न जाने क्या-क्या नहीं कहा जा रहा है। संघ-भाजपा की पूरी आईटी सैल उन्हें गरियाने और उन पर कीचड़ उछालने में जुट गयी है ; मोदी मेहरबान तो ब्रजभूषण पहलवान, को चरितार्थ करते हुए यौन उत्पीडन का वह आरोपी भी खुलेआम इन लड़कियों के बारे में बेहूदी बातें करने से लेकर उनके निजी जीवन तक पर हर संभव-असंभव लांछन लगाने में भिड़ा हुआ है । गोदी में बैठे-बैठे गटर में जा पहुंचा मीडिया राजा का साज सजाने से होते हुए अब बलात्कारियों और यौन अत्याचारियों का बाजा बजाने तक पहुँच गया है।

क्या यह पहली बार हो रहा है? नहीं । यह “हम बनाम वे” के आख्यान का नया सर्ग है। वे हर रोज इस आख्यान में कुछ को हम बनाकर – किसी को वे बता देते हैं, लगातार बताते जा रहे हैं। इस बार यह कुछ ज्यादा ही विद्रूप, और गलीज़, भौंड़ा और घिनौना युग्म है। “हम और वे” की एक निर्धारित क्रोनोलोजी ही नहीं होती, एक निश्चित केमिस्ट्री भी होती है। यह चिन्हांकित “वे” के खिलाफ “हम” की लामबंदी से शुरू होती है और आर-पार के मुकाबले और हमलों के इरादों तक जाती है। जिस के खिलाफ यौन अपराधों की एफ आई आर दर्ज है, उसकी हिमायत के लिए कथित क्षत्रिय समागम, कथित राजपूतों की कथित पंचायतें इसी का अगला चरण हैं। इनमें खुले आम चक्कू-छुरियाँ भांजी जा रही हैं, त्रिशूल-तलवारें लहराई जा रही हैं। जंतर मंतर पहुँच कर धरना उखाड़ देने की धमकियां दी जा रही हैं – इशारों-इशारों में ठिकाने लगाने के एलान किये जा रहे हैं। खुद यौन अपराधों के आरोपी ब्रजभूषण शरण सिंह ने कुछ कथित साधु-संतों की मौजूदगी में हुयी कथित धर्मसभा से ठाकुरों के बीच उन्माद भड़काने का सिलसिला शुरू किया है। करणी सेना से लेकर बाकी स्वनामधारी जाति संगठन इसमें कूद पड़े हैं और ब्रजभूषण शरण सिंह को महाराणा प्रताप के बाद क्षत्रिय समाज का सबसे बड़ा मसीहा बताकर उनके खिलाफ शिकायतें दर्ज कराने वाली लड़कियों के खिलाफ यलगार की जा रही है ।

कौन है यह ब्रजभूषण शरण सिंह, जिस यौन दुराचारी के खिलाफ देश की गौरव बेटियाँ दिल्ली के जंतर मंतर पर धरना दिए बैठी हैं, जिसे बचाने के लिए मोदी-शाह की सरकार और उनकी पुलिस, संघी आई टी सैल पूरे प्राणपण से जुटी हुयी है, हर छोटी-बड़ी बात पर बोलने वाला आर एस एस जिसके बारे में सुट्ट मारे बैठा है, वह "संस्कारी पार्टी" भाजपा का "सदाचारी" सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह कौन है? वैसे तो उनके किये-धरे से बाबरी मस्जिद तोड़ने से लेकर दाऊद इब्राहीम से रिश्ता जोड़ने तक के आरोपों की पूरी हिस्ट्रीशीट भरी पड़ी हैं, फिर भी ताजे सन्दर्भ के लिए उनकी कुछ ख़ास-ख़ास “योग्यतायें” इस प्रकार हैं :

1993 में उन पर माफिया दाउद इब्राहिम के चार सहयोगियों को अपने आधिकारिक आवास पर शरण देने का आरोप लगा। इस मामले में उन्हें टाडा के तहत गिरफ्तार किया गया। शर्मा-शर्मी में 1996 में संस्कारी पार्टी भाजपा ने उनका टिकट काटा तो, मगर उनकी पत्नी केतकी सिंह को प्रत्याशी बनाकर लोकसभा चुनाव जितवा दिया। ध्यान रहे, तब यह अटल बिहारी वाजपेयी और अडवाणी के नेतृत्व की "चाल चरित्र और चेहरे" वाली भाजपा थी। उनके आपराधिक रिकॉर्ड की कुंडली खूब छप चुकी है। अभी हाल में ही उन्होंने टीवी इंटरव्यू में अपने हाथों से एक हत्या करने की बात कबूल की है। ठीक इन्ही योग्यताओं के चलते वे भाजपा के खर दूषण नहीं, आभूषण हैं ।

बहरहाल इनके लिए, इनके बहाने जाटों को “वे” और क्षत्रियों सहित बाकियों को “हम” बनाने का जो खेल खेला जा रहा है, उसका मैदान सिर्फ जंतर मंतर तक नहीं है। चौबीस घंटा तीन सौ पैंसठ दिन, जैसे भी हो वैसे, चुनाव जीतने की तिकडम में लगे रहने वाले डिवाइडर इन चीफ और उनकी डिवाईडिंग बटालियन का निशाना उससे आगे का है। हरियाणा विधानसभा चुनावों में 1 विरुद्ध 35, जाट बनाम बाकी सब के रूप में इसे पहले भी आजमाया जा चुका है। अब इसे हरियाणा के साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान होते हुए कुछ और आगे तक बढ़ाना है। विभाजनों की श्रृंखला कहाँ तक जायेगी, देश का क्या करेगी, इसकी परवाह किये बिना खेला जारी है । इसे ही आगे बढ़ाते हुए जब जरूरत पड़ती है, तब खुद हिन्दू-राष्ट्र-ह्रदय-सम्राट ओबीसी हो जाते हैं, हिन्दू राष्ट्र बनाने को आतुर कथित भगवाधारी साधु-साध्वी खुद को कुर्मी, लोधी बताते कुर्मी, लोधी और अपनी अपनी जातियों में विचरण करने लगते हैं।

राजनीति अंतर्विरोधों के प्रबन्धन का नाम है, की कहावत को भाजपा और संघ परिवार ने और ज्यादा सांघातिक रूप देकर राजनीति आतंरिक विरोधों को बढाने, खाईयां खोद कर उन्हें चौड़ा कर वोट जुटाने भर का काम बना दिया है। इसके नतीजे में देश और उसके अवाम को भले ही विग्रह और विघटन की आशंकाओं से क्यों न जूझना पड़े! मणिपुर में यही आजमाया जा रहा है, वहां जाट नहीं हैं – वहां यह विभाजन मैतेई बनाम बाकी जनजातियों के नाम पर किया जा रहा है। सदियों से जनजातियों के साथ रह रहे मैतेई समुदाय को आदिवासियों की जमीन हथियाने का लालच दिखाकर इस छोटे किन्तु अत्यंत संवेदनशील इतिहास वाले प्रदेश को धधकती भट्टी में बदल दिया गया है। छत्तीसगढ़ से झारखंड तक आदिवासियों के ही बीच धर्म के नाम पर, जो आज तक कभी नहीं हुआ, वह कराया जा रहा है। कर्नाटक विधानसभा के हाल में हुए चुनावों में ऐसी कोई दरार नहीं, जिसे बड़ा या गहरा करने की साजिश, खुद इनके सबसे बड़े नेताओं ने नहीं की हो। शैव बाहुल्य दक्षिण में राम की सीमित स्वीकार्यता दिखी, तो हनुमान की पूँछ पकड़ वैतरणी पार करने की असफल कोशिश इसी का एक उदाहरण है। बंदे विभाजनी, विग्रही मानसिकता के इतने लती हो गए हैं कि भारत से बाहर भी इस तरह के कारनामे अंजाम देने और देश की नाक कटाने से बाज नहीं आते। ब्रिटेन के लेस्टर शहर में पिछली साल हुए दंगों की लंदन के अखबारों में छपी रिपोर्ट के अनुसार “इन नस्लीय झड़पों को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हिन्दू राष्ट्रवादी पार्टी (भाजपा) द्वारा भड़काया गया था।“ इस रिपोर्ट के अनुसार इंग्लैंड के सुरक्षा बल के स्रोतों अनुसार “ऐसे सबूत मिले हैं कि भाजपा से जुड़े कार्यकर्ताओं ने क्लोज्ड व्हाट्सएप्प ग्रुपों द्वारा हिंदुओं को सड़क पर उतरने के लिए उकसाया गया था।“ ध्यान रहे कि विदेशी धरती पर यह धतकरम उस ब्रिटेन में किया गया, जहां का प्रधानमंत्री खुद को हिन्दू कहता है ।

इसमें कोई शक नहीं कि जंतर मंतर पर बैठे खिलाड़ियों के समर्थन में पूरा देश एकजुट हो रहा है। जनता के तकरीबन सभी संगठन, किसानों का संयुक्त मोर्चा, ट्रेड यूनियनों का साझा मंच, महिला, युवा, छात्र, प्राध्यापक, बाकी खिलाड़ी, संस्कृति कर्मी, फिल्म शख्सियतें मोर्चे पर पहुँच रही हैं। अन्तर्रष्ट्रीय ओलम्पिक एशोसियेशन भी कदम उठा चुकी है ; आधी से ज्यादा लड़ाई जीती जा चुकी है, बाकी भी जीती ही जायेगी।

कर्नाटक विधानसभा चुनावों का जनादेश भी आ चुका है और वहां की जनता ने निर्णायक रूप से फूटपरस्त, नफरती, उन्मादी प्रचार को ठुकरा दिया है। मगर इतने पर संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता, क्योंकि मामला इतना सहज नहीं है। विभाजन और विग्रह की लगातार चौड़ी की जा रही खाईयां कुछ जीतों या कुछ सीटों से नहीं पाटी जायेगी। इस संक्रामक बीमारी को महामारी बनने से रोकना है, तो सिर्फ एक या दो दरारों को जनता की फौरी और भावनात्मक एकता से पाटने से काम नहीं चलेगा – हर तरह के “हम और वे” से लड़ना होगा। इसमें अंतर्निहित खतरों को सबको समझाना और खुद भी समझना होगा ; नफरती विघटन के लिए खुर पटक रहे सांड को पूँछ से नहीं, सींग से पकड़ना होगा। फिलहाल ऐसा करना – कुछ लोगों को – कठिन लग सकता है, किन्तु असंभव नहीं है ।

लेखक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। ये लेखक के निजी विचार है, इसके लिए स्पेशल कवरेज न्यूज जिम्मेदार नहीं है।

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