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इस कठिन कोरोना-काल में कहां खड़ा है देश!

Shiv Kumar Mishra
1 May 2021 3:47 PM IST
इस कठिन कोरोना-काल में कहां खड़ा है देश!
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राजाराम त्रिपाठी

कोरोना बीमारी में सामूहिक संक्रमण की चेन तोड़ने के लिए तथा आबादी के बड़े हिस्से का तीव्रता से टीकाकरण कर 'हर्ड एम्ययूनिटी' या महामारी से 'सामूहिक उन्मुक्ति' की क्षमता विकसित करने के लिए, सीमित समय का लाकडाउन एक कारगर तरीका माना जाता है। कोविड-19 से 'हर्ड इम्‍यूनिटी' को लेकर स्पेन में किए गए एक बड़े सीरोलॉजिकल सर्वे के मुताबिक सिर्फ 5% लोगों में ऐंटीबॉडीज विकसित हो पाईं,यानी 95 फीसदी आबादी को टीकाकरण के बाद भी हो सकती है यह बीमारी, यह खतरनाक स्थिति बताती है हमें इस बीमारी से लड़ने के लिए कुछ ज्यादा कारगर तरीके खोजने अभी बाकी हैं।जबकि हमारे देश में लगता है कि, कोरोना से बचाव के लिए सरकारें अब लाकडाउन को ही अमोघ अस्त्र मान कर चल रही है। एक बार फिर लॉक डाउन का दौर चालू हो गया है,और यह सिलसिला कहां जाकर थमेगा यह शायद सरकारों को भी नहीं पता। ऐसी स्थिति में इस पर पुनर्विचार जरूरी हो जाता है, कि क्या सचमुच लाकडाउन इस महामारी पर नियंत्रण का ारगर तथा स्थाई समाधान है,या फिर हम इसे केवल कुछ दिन आगे तक के लिए टालने, ढकेलने की असफल शुतुरमुर्गी कोशिश कर रहे हैं, और इस प्रयास में अपने देश को इस महामारी से भी बड़ी समस्याओं की ओर शनै शनै: शनै: धकेल रहे हैं। एक बेहद महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि, क्या यह टीके इस महामारी से सही मायने में हमें वास्तविक 'सामूहिक विमुक्ति' प्रदान करेंगे या फिर हमें प्लेसिबो इफेक्ट के भरोसे ही जीना होगा।

दरअसल हमारी सरकारों ने इस महामारी से लड़ने के लिए अन्य कारगर उपाय ढूंढने की कोई ईमानदार कोशिश करने के बजाय इस बीमारी पर पूरे विश्व में सबसे प्रभावी विजय (?) प्राप्त करने का डंका पीटने, उदघोष करने और अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने में जुटे रहे, कई राज्यों में चुनाव प्रचार में लाखों की भीड़ इकट्ठा कर रैलियां करवा कर तथा महाकुंभ जैसे देश भर के जन-समुदायों का महा-समागम आयोजित करके, हमने स्थिति को और अधिक विकराल बनाने में इस महामारी की पूरी मदद की। अब इस महामारी की दूसरी लहर जब सुनामी बन गई है तो लाकडाउन सी तात्कालिक और अंतिम विकल्प बचता है।

आज इस महामारी से डॉक्टर्स, मेडिकल स्टाफ, एंबुलेंस चालक, पुलिस, सुरक्षा बल सहित एक बहुत बड़ा वर्ग दिन रात पूरी बहादुरी से लड़ रहा है। जनता टेस्टिंग, दूध , फल, सब्जी, आक्सीजन, सिलेंडर, रिफिल, एम्बुलैंस, बेड, दवाई, डॉक्टर और अंत में आक्सीजन के लिए यह तड़प तड़प कर जान दे रही है। यह मौतें कोरोना के कारण नहीं बल्कि अव्यवस्था कुप्रबंधन ,लचर आपूर्ति व्यवस्था, तथा ध्वस्त हो चुकी स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण हो रही हैं। कुल मिलाकर कमजोर आर्थिक स्थिति के परिवारों पर यह लाकडाउन तो कोरोना से भी बड़ी विपदा बनकर टूट पड़ती है। आम आदमी के जिंदगी के पैबंद भी यह लाकडाउन निर्ममता से उधेड़ देता है।

पर समाज का एक वर्ग है जो "आपदा में अवसर" के जुमले को भुनाने में जुटा हुआ है। जरा सोचिए इस महामारी के 900 की दवाई कालाबाजारी कर पच्चीस हजार रुपए में और 70 रुपए के टीके सरकार की गोद में बैठ कर, अब 12 सौ रुपए में बेचने जा रहे हैं। "आपदा में असीमित लाभ कमाने का ऐसा सुअवसर" तलाशने का, इससे बड़ा उदाहरण कहां मिल सकता है। क्या हमने मुर्दा खोर गिद्धों को भी मात नहीं दे दी है? क्या देश की सरकारों से यह नहीं पूछा जा सकता कि, अगर भीतर खाने कोई सेटिंग नहीं है, तो क्यों नहीं राष्ट्रहित में इन वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों का अधिग्रहण किया जाता, तथा चौबीसों घंटे,चार पालियों में कार्य करके अधिकतम संभव उत्पादन क्यों नहीं किया जा सकता और पूरे राष्ट्र को रिकॉर्ड समय में, टीका लगाकर देश को भयमुक्त क्यों नहीं किया जा सकता। एक देश, एक निशान, एक विधान ,एक प्रधान की बात करने वाले प्रधानमंत्री जी से यह सवाल क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि,

एक ही बीमारी, के टीके जिनका असर भी समान ही बताया जाता है, के रेट में दस गुना, पंद्रह गुना का अंतर क्यों है?

यह कंपनी एक ही टीके को केंद्र शासन को ₹150 में देती है जबकि राज्य सरकार को ₹400 में , और निजी अस्पतालों को के लिए ₹600 रेट रखती है। एक देश में इस तरह की तीन-तीन विभेदकारी थी दरें कैसे रखी जा सकती हैं ? सरकार से सवाल पूछे जाने लाजमी हैं कि, राष्ट्रीय आपदा की इस कठिन समय में देशवासियों की जानें बचाने में सहयोग करने के बजाय देश को अधिकतम लूटने की कोशिश करने वाली ऐसी कंपनीयों का अधिग्रहण कर इनके मालिकान को जेल में डालने के बजाय, यह सरकार उन्हें अपनी गोद में बिठाकर वाई श्रेणी की सुरक्षा क्यों दे रही है । मीडिया हो या विपक्ष या कोई भी इस सरकार का गिरेबान पकड़कर आखिर यह क्यों नहीं पूछता कि वैक्सीन के लिए चाहे राज्य सरकार पैसा दे, अथवा केंद्र सरकार पैसा दे अंततः पैसा तो जनता का ही है। भारत सरकार कोविड का टीका बनाने वाली दो कंपनियों, एसआईआई को जो 3,000 करोड़ रुपये और भारत बायोटेक को 1,500 करोड़ रुपये अग्रिम फंडिंग कर रही है यह पैसा भी तो देश की जनता का ही है।

एक सवाल यह भी है कि केंद्र सरकार आखिर यह टीके आखिर किसके लिए खरीदी कर रही है, और क्यों नहीं केंद्र सरकार ही सारे टीके खरीदकर ,बनवाकर अथवा चाहे जैसे भी संभव हो मुहैया करवा कर,अपनी देखरेख में सभी राज्यों में युद्ध स्तर पर लगवाती।

वैक्सीन बनाने वाली इन कंपनियों के साथ ही निजी अस्पतालों का, आक्सीजन की फैक्ट्रियों का तथा अन्य जीवनरक्षक दवाइयों, वस्तुओं के कारखानों का भी देश हित में उपयोग हेतु आपदा काल तक के लिए अधिग्रहण करने में आखिर क्या बाधा है।

कोरोना की इलाज के नाम पर 7-8 लाख से लेकर 25 लाख तक के बिल थमा देना जैसी अविश्वसनीय चिकित्सीय डकैती के कितने ही सच्चे किस्से हवा में तैर रहे हैं। जाहिर है यह सब बड़े खेल, बिना सरकारों की मिलीभगत अथवा सप्रयास अनदेखी के संभव नहीं है। सरकार का इकबाल बुलंद रहे, वो चाहे तो कुछ घंटों में ही इन सब पर नकेल कर सकती है, तथा पूरी व्यवस्था को पटरी पर ला सकती है। पर अब कारण चाहे जो भी हों, पर लगता नहीं है यह सरकारें ऐसा कुछ ठोस कदम उठा पाएंगी। पर सरकार तथा नेताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि, इतिहास में यह दर्ज होगा कि ऐसे समय में जब हमारे देश के नेताओं को देश को एकजुट कर, इस महामारी का सामना करना चाहिए था, हमारे नेता अपनी राजनीतिक कुर्सियों बढ़ाने, बचाने के सत्ता के खेल में, चुनावी रैलियां करने में तथा राजनीतिक दुराग्रहों के चलते आरोप-प्रत्यारोप की नूराकुश्ती में व्यस्त थे, जबकि लोग महामारी से भी ज्यादा, तत्कालीन बहुस्तरीय अव्यवस्था, एवं जरूरी साधनों के अभावों के चलते कीड़े मकोड़ों की तरह पटापट मर रहे हैं ऐसे कठिन समय में केंद्र और राज्यों के बीच जो राजनीतिक सामन्जस्य और समरसता एकजुटता होनी चाहिए थी, उसके बजाय यह आपस में कुत्ते बिल्लियों की तरह लड़ रहे थे। एक प्रदेश, दूसरे प्रदेश पर अपनी ऑक्सीजन लूट लेने का आरोप लगा रहे थे। इससे बड़ी अराजकता और क्या हो सकती है। यह भी देश तथा न्यायपालिका दोनों का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि, हमारी न्यायपालिका को हस्तक्षेप करते हुए कभी "ऑक्सीजन आपातकाल" तो कभी "कोविड आपातकाल" की घोषणा करने की बात कहते हुए सरकारों को "टांग देने" की जैसी कठोरतम ऐतिहासिक चेतावनी देनी पड़ रही थी, फिर भी मोटी चमड़ी हो पर कोई असर नहीं हो रहा था। हर सफल नेता अपने आप को इतिहास के पन्नों पर स्वर्ण अक्षर में दर्ज कराने की इच्छा रखता है। मरणोपरांत अमरत्व प्राप्ति का यही भी एक रास्ता है। पर राजनेताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि इतिहास भी आइने की तरह निर्मम होता होता है, और इतिहास में पीछे जाकर गलतियों को सुधारने की कोई गुंजाइश नहीं होती। हमारे देश के कर्णधार भाग्यवान ही कहे जाएंगे कि उनके पास वह अंतिम अवसर अभी भी बचा हुआ है, जिसका लाभ उठा सकते हैं और इस महामारी से इस देश को न्यूनतम नुकसान के साथ सफलतापूर्वक बचाकर अगर निकाल ले जाएं‌ तो ,इस देश के प्रति उनके कर्ज तथा फर्ज की अदायगी तो होगी ही, साथ ही वह इतिहास में भी सदा सदा के लिए अमर हो सकते हैं।

डॉ राजाराम त्रिपाठी राष्ट्रीय संयोजक अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा) एक जाने माने लेखक है जो समय समय पर सरकार को अपने लेख के माध्यम से जानकारी देते रहते है.

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