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पी. चिदंबरम
[साप्ताहिक कॉलम]
(हत्या के आरोप में केंद्रीय मंत्री के पुत्र कैसे गिरफ्तार हुए और उसकी खबर कैसे छपी है यह आपने आज देखा होगा, मेरी पोस्ट भी पढ़ सकते हैं। लेकिन प्रियंका गांधी की गिरफ्तारी कैसे हुई और उसकी जो खबरें छपी थीं, याद हों तो कांग्रेस नेता पी चिदंबरम का यह कॉलम पढ़ने लायक है। यही नहीं, जबरिया रिटायर आईपीएस अमिताभ ठाकुर का मामला भी है।)
इन शब्दों की आवाज बहुत ऊंची और स्पष्ट है, बुलंद और लगभग नाटकीय भी: हम भारत के लोग… इस संविधान को अंगीकार करते हैं। और हमने संविधान को इसलिए अपनाया, ताकि अन्य चीजों जैसे स्वतंत्रता और भाईचारे के साथ सबकी सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।'
हर अधिकारी, मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के लिए भारत के संविधान की प्रस्तावना को पढ़ना अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। हरेक ने संविधान के अंतर्गत शपथ ली है। उसका पहला कर्तव्य स्वतंत्रता की रक्षा करना और भाईचारे को बढ़ावा देना है। वे ऐसा कर सकें, इसके लिए हमने संसद (भारत की) बनाई और हर राज्य के लिए एक विधायिका भी।
विधायिका को हमने 'सार्वजनिक व्यवस्था' और 'पुलिस' से संबंधित मामलों पर कानून बनाने का काम सौंपा। और संसद तथा विधायिका दोनों को आपराधिक कानून, आपराधिक दंड संहिता और हिरासत पर कानून बनाने का जिम्मा सौंपा।
जनता का आदेश
कानूनों को लागू करने के लिए हमने कार्यपालिका बनाई। कार्यकारी शक्तियों पर निगरानी के लिए नागरिकों के 'मौलिक अधिकारों' को इसमें शामिल किया और चेताया कि 'विधि द्वारा स्थापित कानून को छोड़ कर किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या निजी स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।'
हमने कार्यपालिका को यह देखने का आदेश दिया कि 'गिरफ्तार किए गए किसी भी व्यक्ति को ऐसी गिरफ्तारी का बिना आधार बताए हिरासत में नहीं रखा जा सकेगा, न ही उसे सलाह और बचाव के लिए अपनी पसंद के कानूनी सलाहकार से संपर्क के अधिकार से इंकार नहीं किया जा सकेगा।'
हमने कार्यपालिका को यह देखने का भी अधिकार दिया कि 'उस हर व्यक्ति जिसे गिरफ्तार किया गया है और हिरासत में बंद रखा गया है, उसे गिरफ्तारी से चौबीस घंटे के भीतर सबसे करीब के दंडाधिकारी के समक्ष पेश करना होगा और बिना दंडाधिकारी के अधिकार के इस अवधि के बाद हिरासत में नहीं रखा जा सकेगा।' यहां हमारी गलती यह है कि हमने उत्तर प्रदेश राज्य का ध्यान नहीं रखा।
पहले हादसा, फिर मजाक
लखीमपुर खीरी की दर्दनाक घटना में आठ लोगों की मौत हो गई, जिनमें चार किसानों को एक एसयूवी ने रौंद डाला और बाकी चार लोग इन किसानों की मौत के बाद भड़की हिंसा में मारे गए। यह स्वाभाविक ही है कि राजनीतिक दलों के नेता गांव जाने और वहां पीड़ित परिवारों से मिलने की कोशिश करेंगे। ऐसा करना उनका अधिकार भी है, क्योंकि यह वही है, जिसे हम स्वतंत्रता से समझते हैं। पीड़ित परिवारों के साथ सहानुभूति भाईचारा है।
कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा को जब सीतापुर के पास रोका गया, उस वक्त वे लखीमपुर खीरी जा रही थीं। रोके जाने से संबंधित कुछ तथ्य विवादित नहीं हैं। चार अक्तूबर सोमवार सुबह साढ़े चार बजे का वक्त था। उन्हें बताया गया कि उन्हें आपराधिक दंड संहिता (सीआरपीसी) की धारा 151 के तहत गिरफ्तार किया जा रहा है।
पुरुष पुलिस कर्मियों ने उन्हें पुलिस वाहन में धकेल दिया। छह अक्तूबर बुधवार शाम छह बजे तक उन्हें पीएसी के अतिथि गृह में रखा गया। इन साठ घंटों में-
- वाड्रा को गिरफ्तारी का आधार नहीं बताया गया,
- उन्हें गिरफ्तारी का नोटिस भी नहीं दिया गया और उस पर उनके हस्ताक्षर भी नहीं कराए गए,
- उन्हें न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश भी नहीं किया गया,
- उन्हें एफआइआर, यदि कोई है, की प्रति भी नहीं दी गई,
- उन्हें अपने कानूनी सलाहकार से मिलने की इजाजत भी नहीं दी गई, जो घंटों से वहां दरवाजे पर मौजूद थे, और
- मंगलवार पांच अक्तूबर को उन्हें बताया गया कि उन्हें सीआरपीसी की धारा 151 और भारतीय दंड विधान की धारा 107 और 116 के अंतर्गत आरोपित किया गया है। कानून के जिन प्रावधानों का उल्लंघन हुआ है, उनकी गिनती गड़बड़ा गई है।
यदि आपको बौद्धिक उत्सुकता हो तो संविधान, सीआरपीसी, आइपीसी की प्रतियां देखें और अनुच्छेद 19, 21 और 22, धारा 41बी, 41डी, 46, 50, 50ए, 56, 57, 60ए, 151 खासकर उपधारा (2) और सीआरपीसी की धारा 167 तथा आइपीसी की धारा 107 और 116 पर गौर करें।
अज्ञानता या मनमानी?
मुझे ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश, जिसके मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं, के लिए कानून और व्यवस्था के मायने कहीं अलग हैं। कानून तो है, पर वह आदित्यनाथ का कानून है, भारत का नहीं। व्यवस्था है, वास्तव में कई व्यवस्थाएं, वे भी आदित्यनाथ की हैं, कानून सम्मत नहीं। पुलिस जिस कानून-व्यवस्था की देखभाल करती है वह भी आदित्यनाथ के कानून और उनकी व्यवस्था है।
जरा आरोपों के मामले में पुलिस की बुद्धिमत्ता पर गौर करें। सीआरपीसी की धारा 151 में कोई 'अपराध' नहीं है, ऐसे में इसके तहत किसी को भी 'आरोपित' नहीं किया जा सकता।
आइपीसी की धारा 107 और 116 उकसावे से संबंधित है। इसमें अलग से आरोप नहीं लगाए जा सकते। उकसाने के आरोप का मतलब सिर्फ तभी बनता है जब पुलिस उस व्यक्ति का नाम बताए, जिसे उकसाया गया या वह अपराध बताए जो उकसाने से हुआ। लगता नहीं है कि पुलिस में किसी ने भी इस गंभीर खामी पर गौर किया होगा। जो आरोप लगाया गया है, वह बेहद हास्यास्पद है।
इसका स्पष्टीकरण सिर्फ यही हो सकता है कि या तो उत्तर प्रदेश की पुलिस को संविधान या कानून (अर्थ, अज्ञानता) का मतलब नहीं पता या फिर पुलिस संविधान और कानून (मतलब, मनमानी) की परवाह नहीं करती। या फिर यह स्पष्टीकरण उत्तर प्रदेश पुलिस, जिसमें पुलिस महानिदेशक स्तर तक के अधिकारी हैं, पर काला धब्बा लगाता है।
उच्च स्तर के पुलिस अधिकारियों से लेकर विनम्र सिपाही तक बेहतर सम्मान के हकदार हैं। किसी भी चीज से ज्यादा उत्तर प्रदेश की साढ़े तेईस करोड़ की आबादी एक बेहतर पुलिस बल की हकदार है। आजादी को सुनामी भी नहीं ले जा सकती। यह तो उन लहरों से खत्म होती है, जो इसके किनारों पर अनवरत पड़ती रहती हैं। उम्भा (सोनभद्र), उन्नाव-1, शाहजहांपुर, उन्नाव-2, एनआरसी/ सीएए, हाथरस और अब लखीमपुर खीरी, क्या आप इन लहरों को देख सकते हैं?