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गड़करी भाजपा से और आज़ाद कांग्रेस से क्यों हैं दुखी ?
केंद्रीय मंत्री एवं भाजपा के अति वरिष्ठ नेता नीतिन गड़करी के सरकार विरोधी बयानों से विपक्ष उत्साहित ही था कि अचानक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता गुलाम नबी आज़ाद ने कांग्रेस और उसके नेतृत्व पर सवालों की बौछार करते हुए पार्टी छोड़ने का ऐलान कर दिया और इसके बाद कांग्रेस को डूबती नैया आदि लकब से नवाजा जाने का सिलसिला फिर शुरू हो गया। देश की सबसे बड़ी दोनों पार्टियों के पुराने नेताओं द्वारा असंतुष्टि का इज़हार करना कुछ तो अलग संकेत देता है। कांग्रेस अपनी सबसे कमजोर स्थिति से गुजर रही है क्योंकि सामने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की मजबूत जोड़ी के नेतृत्व में खड़ी भाजपा है जिससे निपटकर सत्ता में आने की कड़ी चुनौती कांग्रेस को स्वीकार करनी है। इस कमजोरी की स्थिति में पार्टी के बहुत मजबूत लीडर भी किनारा कर रहे हैं तो इस पर मिली जुली प्रतिक्रिया हो सकती है। कुछ लोग कह सकते हैं कि नेता अपने लिए मजबूत विकल्पों की तलाश में हैं और कांग्रेस के इन बड़े नेताओं को सत्ता में रहने का चस्का ज्यादा रहा हैं क्योंकि यह लोग विपक्ष की भूमिका में कभी आते ही नहीं और विपक्ष में रहते हुए भी सत्ता पक्ष वाले नखरे उठाए घूमते हैं।
कांग्रेस से किसी बड़े नेता द्वारा किनारा किए जाने पर कांग्रेस और देश की धर्मनिरपेक्ष आत्मा के विरोधी तत्व इसे गांधी परिवार की खासतौर से राहुल गांधी की नाकामी करार देने लगते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि सिर्फ गांधी परिवार के रहते कांग्रेस सिकुलर रह सकती नहीं तो बाकी कोई भी हो उसे तो डरा धमका कर या लालच देकर या उसके अंदर का हिंदुत्व जगाकर अपने साथ लगाया जा सकता है। जबकि ईमानदारी से विश्लेषण किया जाए तो पाते हैं कि कांग्रेस नेतृत्व को कोसने वाले ये कांग्रेसी ज्यादातर वह हैं जो अपने इलाकों से लगातार चुनाव भी नहीं जीत सकते और जिन्हें राज्यसभा में भेजकर पार्टी ढोती रही है। इन लोगों के लंबे अनुभव से पार्टी को कुछ खास फायदा नहीं पहुंच रहा है और पार्टी में नौजवान नेताओं को जगह इन की ही वजह से नहीं मिल पा रही है। इसलिए बहुत सारे लोगों ने इनका पार्टी छोड़ने का स्वागत किया है।
यदि नीतिन गड़करी की बात करें तो यहां परिस्थितियां बिल्कुल विपरीत हैं। पिछले आठ सालों से केंद्रीय सत्ता में लगातार बनी रहने वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार पर कौन सवाल उठाने की जुर्रत कर सकता है जबकि नीतिन गड़करी लगातार सवाल उठा रहे हैं। कभी गांधीवादी राजनीति का समर्थन करते हैं कभी वर्तमान राजनीति को कोसते हैं कभी सरकार पर टिप्पणी करते हैं जिसका वो खुद हिस्सा हैं। सत्ताधारी पार्टी का नेता और महत्वपूर्ण मंत्रालय के मंत्री होने के कारण नीतिन गड़करी पर यह तो इल्ज़ाम नहीं लगाया जा सकता कि उन्हें दूसरा कोई लालच है। लेकिन सवाल तो बनता है कि आखिर राजनीतिज्ञ अपने नेतृत्व से संतुष्ट क्यों नहीं हैं।
दरअसल आज राजनीति एक सेवा ना होकर व्यवसाय बन चुका है, बकौल दिल्ली मुख्यमंत्री केजरीवाल की लगभग ढाई सौ विधायकों की खरीदफरोख्त किया गया है। जब ऐसे काम राजनीतिक दलों द्वारा किए जाएंगे कि खरीदने वाले भी और बिकने वाले दोनों लोग ही देश के असली बेईमान कहलाए जाने लायक हैं। राजनीति की इस दशा और दिशा में राजनेताओं की बेचैनी तो बढ़नी स्वाभाविक है। पुरानी परंपराओं के नेता गांधीवादी और सेवाभाव की राजनीति के आदि रहे हैं और फिलहाल चल रही कारपोरेट जगत के दबाव की राजनीति में उन नेताओं की उलझन तो बढ़ेगी। राजनीति में बढ़ रहा कारपोरेट लोगों का दखल सियासी दलों के लक्ष्य और उनकी दिशाओं को बदलने पर मजबूर कर रहे हैं। धार्मिक राजनीति की चाशनी में नहाकर पैसे पर सवार होकर भाग रही राजनीति में कब कौन नेता और कौन राजनीतिक दल लूट में शामिल हो जाए कभी अनुमान नहीं लगाया जा सकता। हर सरकार भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए चुनाव लड़ती है और सरकार बनाती है लेकिन फिर खुद ही भ्रष्टाचार के दलदल में धंसने लगती है। और इस भ्रष्ट राजनीतिक खेल से सबसे ज्यादा ठगी जाती है जनता। जनता तो लोकलुभावन योजनाओं के लालच में किसी भी दल का दामन थाम लेती है और नहीं जानती कि इन लोकलुभावन योजनाओं के पीछे उसका खून ही चूसा जाएगा। हर योजना के पीछे लंबा भ्रष्टाचार किया जाता है।
लोकतंत्र के नाम पर कारपोरेट तंत्र के कदमों में सरकार को झुका दिया जा रहा है। सरकार के फैसले बड़े उद्योगपतियों के घरानों से पूछकर लिया जाता है जिससे नेताओं और मंत्रियों को बड़ा फायदा इन उद्योगपतियों द्वारा पहुंचा दिया जाता है। देश की दोनों बड़ी पार्टियां भी इससे अछूती नहीं हैं। कांग्रेस ने अपने दौरे हुकूमत में जो उद्योगपतियों को बढ़ाना शुरू किया था भाजपा सरकार उन्हें उनकी मंजिल पर पहुंचा रही है। वर्तमान राजनीति में गांधीवाद या सेवाभाव की बात करना एक मज़ाक से ज्यादा नहीं है।
कांग्रेस के नेता उसकी कमजोरी और सत्ता से दूर रहने से परेशान हैं और भाजपा के नेता सरकार का उद्योगपतियों के सामने नतमस्तक होने से परेशान हैं। देश में सबसे लंबा चला किसान आंदोलन उद्योगपतियों के सामने झुककर सरकार चलाने तथा उनके पसंदीदा कानून बनाने का परिणाम था जिसमें सैकड़ों किसानों ने जान गंवाई थी। जब तक राजनीति में सेवाभाव और निस्वार्थ भावना पैदा नहीं होगी और धन संपत्ति का बोलबाला खत्म नहीं होगा तब तक ना नेताओं को शांति मिलेगी और ना जनता को चैन मिलेगी। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के अनुसार लोकतंत्र जनता द्वारा जनता के लिए और जनता का है। लेकिन फिलहाल भारतीय लोकतंत्र कारपोरेट के लिए है और उसी के द्वारा संचालित है। अगर देश में लोकतंत्र को मजबूत रखना है तो राजनीतिक दलों को सुधरना होगा और अगर नेताओं ने अपनी रविश ना बदली तो हालात और बदतर होते जाएंगे।