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Why the demand for a new constitution: नये संविधान की मांग आखिर क्यों?

Shiv Kumar Mishra
1 Sept 2023 2:53 PM IST
Why the demand for a new constitution: नये संविधान की मांग आखिर क्यों?
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संघ के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले का मानना है कि भारतीयों के दिलोदिमाग को औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त करना आवश्यक है. ‘‘हमारे देश में यूरोपीय विचारों, प्रणालियों, आचरण और विश्वदृष्टि का कई दशकों से बोलबाला रहा है. स्वतंत्र भारत इनसे मुक्ति नहीं पा सका है.”

-राम पुनियानी

Why the demand for a new constitution:डॉ बिबेक देबरॉय, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आर्थिक सलाहकार परिषद् के मुखिया है. जाहिर है कि वे सत्ता के केंद्र के बहुत नज़दीक हैं – शाब्दिक और लाक्षणिक दोनों अर्थों में. हाल में (15 अगस्त, 2023), उनका लेख देश के एक शीर्ष समाचारपत्र में प्रकाशित हुआ. इसमें उन्होंने देश के वर्तमान संविधान के बने रहने पर प्रश्न उठाया. उनके अनुसार, आज का संविधान वह संविधान नहीं है जिसे हमने स्वाधीनता के समय अपनाया था क्योंकि उसमें अनेक संशोधन हो चुके है. उनका यह कहना है कि चूँकि कार्यपालिका संविधान के मूलभूत ढांचे में कोई बदलाव कर सकती और चूँकि संविधान अब बहुत पुराना हो गया है, इसलिए हमें नया संविधान बनाना चाहिए. वे यह भी कहते हैं कि यह संविधान औपनिवेशिक विरासत है और वे इसके कई प्रावधानों पर प्रश्न उठाते हैं जिनमें समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, न्याय, समानता और स्वतंत्रता जैसे मूल्यों की स्थापना और संरक्षण से जुड़े प्रावधान शामिल हैं. प्रधानमत्री कार्यालय (पीएमओ) ने देबरॉय की राय से आधिकारिक रूप से अपने को अलग कर लिया है परन्तु भारतीय संविधान की उपयोगिता को शंका के घेरे में डालने और उसका विरोध करने का उद्देश्य पूरा हो गया है.

इसके पहले से भी दक्षिणपंथी चिन्तक और नेता यह कहते आये हैं कि भारत का संविधान गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935 पर आधारित है, औपनिवेशिक विरासत है और भारतीय मूल्यों को प्रतिबिंबित नहीं करता. सच तो यह है कि दक्षिणपंथी हिन्दू राष्ट्रवादियों को यह संविधान कभी नहीं भाया. यह संविधान गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935 की तर्ज पर नहीं बना है. यह संविधान की मसविदा समिति के अध्यक्ष डॉ बी.आर. अम्बेडकर ने नेतृत्व में करीब तीन वर्ष तक चली लम्बी बहसों और कठिन श्रम का नतीजा है. संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद और उसके अधिकांश सदस्य भारत के औपनिवेशिकता विरोधी संघर्ष में रचे-बसे थे. और इसी संघर्ष ने भारत के एक राष्ट्र बनने की प्रक्रिया के शुभारम्भ में महती भूमिका निभाई थी.

बहुलतावादी और समावेशी भारत के पैरोकारों के विपरीत, धार्मिक राष्ट्रवादियों ने इस संघर्ष से दूरी बनाए रखी और उन्होंने उन मूल्यों का भी विरोध किया जो इस संघर्ष से उपजे थे. सन 1949 के 30 नवम्बर को संविधान सभा ने संविधान को पारित किया. इसकी तीन दिन बाद, आरएसएस के मुखपत्र ‘द आर्गेनाइजर’ ने उसे ख़ारिज करते हुए ‘मनुस्मृति’ को संविधान की तौर पर अपनाए जाने की वकालत करते हुए एक सम्पादकीय लिखा. इसमें कहा गया था, “ किन्तु हमारे संविधान में प्राचीन भारत में हुए अनूठे संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं हैं. मनु द्वारा विरचित नियमों का रचनाकाल स्पार्टा और पर्शिया में रचे गए संविधानों से कहीं पहले का है. आज भी मनुस्मृति में प्रतिपादित नियम पूरे विश्व में प्रशंसा पा रहे हैं और इनका सहज अनुपालन किया जा रहा है. किंतु हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए यह सब अर्थहीन है”.

हिन्दू दक्षिणपंथ के उभार के साथ संविधान का विरोध बढ़ने लगा. अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार के 1998 में सत्ता में आने के बाद संविधान की ‘समीक्षा’ के लिए वैंकटचलैया आयोग का गठन किया गया. परंतु इस आयोग का इतना कड़ा विरोध हुआ कि सरकार को उसपर अमल करने का इरादा त्यागना पड़ा.

संविधान के प्रति विरोध अलग-अलग तरीकों और मंचों से किया जाता रहा है. के. सुदर्शन ने आरएसएस का मुखिया बनने के बाद घोषणा की कि भारतीय संविधान पश्चिमी मूल्यों पर आधारित है और इसके स्थान पर भारतीय पवित्र पुस्तकों, जिनमें मनुस्मृति भी शामिल है, पर आधारित संविधान बनाया जाना चाहिए. उन्होंने कहा ‘‘हमें नया संविधान बनाने में सकुचाना नहीं चाहिए क्योंकि हम इसे पहले ही सौ से अधिक बार संशोधित कर चुके हैं”. उन्होंने यह भी कहा कि फ्रांस अपने संविधान का अब तक चार बार पुनरीक्षिण कर चुका है. उन्होंने कहा कि संविधान कोई पवित्र ग्रंथ नहीं है बल्कि वह हमारे देश के समक्ष उपस्थित अधिकांश समस्याओं की जड़ है.

समय-समय पर भगवा ब्रिगेड के अलग-अलग सदस्य इसी तरह की बातें कहते रहे हैं. हाल में जब विपक्ष ने इंडिया नाम से एक गठबंधन बनाया तब इस समूह के कई नेताओं ने इस आधार पर इसका विरोध किया कि भारत को इंडिया का नाम अंग्रेजों ने दिया था. भाजपा के एक राज्यसभा सदस्य नरेश बंसल ने तो संविधान में इस शब्द के उपयोग पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए कहा कि यह शब्द भारत की गुलामी का प्रतीक है.

संघ के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले का मानना है कि भारतीयों के दिलोदिमाग को औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त करना आवश्यक है. ‘‘हमारे देश में यूरोपीय विचारों, प्रणालियों, आचरण और विश्वदृष्टि का कई दशकों से बोलबाला रहा है. स्वतंत्र भारत इनसे मुक्ति नहीं पा सका है.”

देबराय और संघ परिवार संविधान के विरोध के मुद्दे पर एकमत हैं. जहां संघ परिवार संविधान के ‘पश्चिमी चरित्र’ पर प्रश्न उठाता रहा है वहीं देबराय इससे भी आगे बढ़कर स्वतंत्रता, समानता, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद आदि जैसे मूल्यों पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं. इससे यह साफ है कि संघ परिवार को असली परेशानी किससे है. भारतीय संविधान के औपनिवेशिक चरित्र की दुहाई देना ठीक वैसा ही है जैसे पश्चिम एशियाई देशों में मुस्लिम ब्रदरहुड जैसी संस्थाएं स्वतंत्रता और समानता के मूल्यों का इस आधार पर विरोध कर रही हैं कि वे पश्चिमी हैं. देबराय और उनके जैसे अन्य लोग इस बात से दुःखी हैं कि हमारा संविधान विभिन्न जातियों, धर्मों और दोनों लिंगों के लोगों को समानता देता है.

संघ परिवार मनुस्मृति के युग को भारत का स्वर्णकाल बताता है क्योंकि उस काल में लैंगिक और जातिगत पदक्रम को धार्मिक और सामाजिक स्वीकृति प्राप्त थी. इसमें कोई संदेह नहीं कि औपनिवेशिक शासन में हमारे समाज के ढ़ांचे में व्यापक परिवर्तन हुए और लैंगिक व जातिगत पदक्रम की समाज पर पकड़ कमजोर हुई. यही वह वक्त था जब श्रमिकों ने अपने संगठन बनाए (नारायण मेघाजी लोखंडे, कामरेड सिंगारवेल्लू). इसी दौर में भगतसिंह जैसे नेताओं ने शासक वर्ग द्वारा आम लोगों के शोषण के खिलाफ आवाज उठाई और यह साफ कर दिया कि इस शोषण को हमें खत्म करना होगा. औपनिवेशिक शासनकाल को हम केवल स्याह-सफेद के चश्मे से नहीं देख सकते. इससे देश का कुछ भला भी हुआ और कुछ बुरा भी. औपनिवेशिक ताकतों ने निःसंदेह देश को जमकर लूटा परंतु उन्होंने ऐसी संस्थाएं भी खोलीं जो महिलाओं और पुरूषों को समान अधिकार देतीं थीं. संघ परिवार और प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार वर्तमान संविधान के स्थान पर नए संविधान के निर्माण के पक्ष में भले ही अनेक तर्क दे रहे हों परंतु उन्हें सबसे अधिक परेशानी समानता के मूल्य से है जिसके पैरोकारों में भगतसिंह और अंबेडकर जैसी विभूतियां थीं और जो हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के मार्गदर्शक सिद्धांतों में से एक था.

सन् 1990 तक भारत ने समानता की स्थापना के लिए संघर्ष किया. इस संघर्ष की धुरी था हमारा संविधान और इसमें मददगार थीं नेहरू की देश को आधुनिक बनाने की नीतियां. अब हम रिवर्स गेयर में चल रहे हैं. मंदिर और गाय राजनीति के केन्द्रक बन गए हैं और सभ्यतागत मूल्यों के नाम पर ब्राम्हणवादी मूल्यों को देश पर लादा जा रहा है. इससे हम वह सब खो बैठेंगे जो हमने दुनिया के सबसे बड़े जनांदोलन अर्थात भारत के स्वाधीनता आंदोलन से हासिल किया था.

संविधान का विरोध दरअसल देश को उस युग में वापिस ढकेलने की कवायद है जिसमें जाति, वर्ग और लिंग के आधार पर असमानता को धर्म की स्वीकृति हासिल थी. (अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया; लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

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