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- क्या अब जिंदा रहना ही...
जब देश आजादी के 75 साल पूरे होने पर अमृत महोत्सव मना रहा है तो 18 जुलाई 2022 का दिन बहुत अफसोसनाक दिन के तौर पर याद रखा जाएगा जब एक गरीब आदमी के मुंह के निवाले को भी महंगा कर दिया गया है। जी हां मोदी सरकार ने एक आम आदमी के खाने की बेहद जरूरी चीजों आटा, चावल, दूध व दही आदि जैसी वस्तुओं पर जीएसटी लगा दिया है। खाने की इन वस्तुओं की ब्रांड पैकिंग पर तो टैक्स पहले भी लगता था लेकिन नॉन ब्रांडेड खाने की चीजों पर कोई टैक्स नहीं लगता था।
देश की आजादी के बाद ऐसा पहली बार हो रहा है। मोदी सरकार ने शायद ये गलत परंपरा शुरू कर दी है जब उन चीजों पर टैक्स लगाया है जो देश के बेहद गरीब आदमी की भी पेट भरने का जरिया हैं। जीएसटी लगने से प्रति किलो दो चार रुपये का इजाफा इन सब वस्तुओं की कीमतों में हो जाएगा और जिसे सब कुछ बरदाश्त करने वाली जनता मामूली समझ कर बरदाश्त कर लेगी लेकिन इसकी क्या गारंटी है कि यदि कहीं इस का विरोध न किया गया तो आने वाले समय में यह टैक्स बढ़ता जाएगा और एक गरीब आदमी को पेट भरना मुश्किल हो जाएगा।
मोदी सरकार गरीबों के खाने पर टैक्स लगाकर शायद खजाना भरना चाह रही है जिसे फिर किसी भी तरीके से पूंजीपतियों को दिया जा सके। सरकार द्वारा जिस प्रकार निजीकरण किया जा रहा है उससे तो यही लगता है कि आने वाले समय में जनता को इतनी जंजीरों में जकड़ दिया जाएगा कि हर आदमी जिंदा रहने को ही एक बड़ी उपलब्धि तसव्वुर कर सरकार का धन्यवाद करते हुए उसके हर जुल्म को खुशी खुशी वरदान समझकर स्वीकार करे।
वैसे तो अब सरकार के हर फैसले पर जनता की प्र्रतिक्रिया ठंडी ही रहती है और देश की विपक्षी पार्टियां भी हाथ पर हाथ धर कर सीबीआई और इडी के खौफ से अपने आप को बचाने में लगी हुई हैं और किसी भी जनविरोधी फैसले के खिलाफ सड़क पर आकर लड़ना उनके बस की बात नहीं रह गई है। जनता को मीडिया द्वारा भ्रमित करने के लिए धार्मिक मुद्दों में उलझाने का चलन अब इतना आम हो गया है कि एक आम आदमी यह समझ ही नहीं पा रहा है कि सरकार उसके खिलाफ क्या क्या कदम उठा रही है। सरकार का मीडिया प्रचार भी इतना तेज है कि वह आम आदमी के असली मुद्दों को बेकार की बहसों के पीछे दबा देती है। सरकार समर्थक बड़ी खूबसूरती से इस जीएसटी मामले को भी अच्छा साबित कर देंगे लेकिन इसका दुष्परिणाम तो आम आदमी को बहुत दिनों तक भुगतने होंगे।
गरीब देश लोगों पर टैक्स इसलिए ज्यादा से ज्यादा लगाते हैं जिससे की दुनिया को दिखा सकें कि वह कर्जे उतारने में सक्षम हैं जो पैसे वाले देशों या विश्व बैंक से लिया जाता है। ये गरीब देश दुनिया को बताते हैं कि हमारी जनता हर कदम पर उनके साथ खड़ी है इसलिए हमें जो भी कर्जा दिया जाएगा उसे हम वापस कर देंगे। जबकि हकीकत यह है कि गरीब देश की खुशहाली इसमें है कि वहां टैक्स कम से कम हों और दुनिया का कर्जा भी ना के बराबर हो।
जब देश की अर्थव्यवस्था पूंजीवादी व्यवस्था के अधीन हो चुका हो और सरकारी फैसले पूंजीवादियों और उद्योगपतियों के हितों को ध्यान में रखकर किए जा रहे हों तो फिर ऐसी टैक्स प्रक्रिया पर ताज्जुब करना बेकार है। दुनिया के पूंजीवादी माफियाओं के चंगुल में फंस चुकी सरकारें लोगों को जकड़ जकड़ कर अपना खजाना भरती हैं और फिर अन्य माध्यमों से इस पैसे को पूंजीवादी माफियाओं के हवाले कर देती हैं। भारत में भी वही दौर चल रहा है जब जनता को जकड़ कर उनसे टैक्स वसूल कर पूंजीपतियों की जेबें भरी जा रही हैं।
अगर जनता ने सरकार के इन फैसलों पर सही कदम न उठाए तो एक दिन आएगा कि सांस लेने पर भी टैक्स लगा दिया जाएगा। वैसे तो रुपये की गिरती कीमतों पर ही जनता को होशियार हो जाना चाहिए था लेकिन पूंजीवादी माफियाओं के भोंपू बन चुके मीडिया प्रतिष्ठान लोगों को धार्मिक बहसों की अफीम चटाकर नशे में रख रहे और जब तक आम आदमी को होश आएगा तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।