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साम्प्रदायिकता और कॉरपोरेट, दोनों ही ख़तरों से लेखक लेंगे लोहा
देश बुरे समय के दौर से गुजर रहा है। न्यायपालिका तंत्र के कारण कई लोग बिना अपराध के जेलों में बंद हैं। देश में व्याप्त खतरे से मानवीय मूल्यों की जमीन बंजर हो रही है, इसे बचाने की जिद ही जमीन पका रही है। साहित्य ही लेखकों का औजार है। मीडिया कारपोरेट के हाथों में है। उनका प्रचार किस और हो रहा है यह अब साफ हो चुका है। बाजारवादी नीतियों के बाद सांप्रदायिकता का विस्तार हुआ है। देश सांप्रदायिकता और तानाशाही के मुहाने पर खड़ा है। लेखक के लिए जरूरी है कि वह अपने समय को पहचाने। अवसर वाद भी बड़ा खतरा है। कई लेखक आपदा में अवसर तलाश रहे हैं। देश में सांप्रदायिकता पर बहुत बोला गया है लेकिन गेट समझौते के कारण आई नई गुलामी गुलामी पर चर्चा नहीं होती। साहित्य को सांप्रदायिकता के साथ कारपोरेट हमलों से भी बचाने की जरूरत है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा पोषित साहित्य उत्सव में आज की समय की चिंताएं नहीं है। साहित्य में प्रतिबद्धता का स्थान मनोरंजन ने ले लिया है। इन खतरों से सजग रहने की जरूरत है।
ये विचार मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के दो दिवसीय अनूपपुर राज्य सम्मेलन में व्यक्त किए गए। *प्रगतिशील लेखन आंदोलन- चुनौतियां और दायित्व* तथा *बदलती राजनीतिक परिस्थितियों में लेखकों की भूमिका* विषयों पर सम्मेलन में अनेक विद्वान वक्ताओं ने अपने विचार रखे। संपन्न आयोजन में साहित्य संस्कृति के अनेक रंग देखे गए। विभिन्न सत्रों में विद्वान वक्ताओं के विचारों के अलावा इप्टा कलाकारों के लोक नृत्य, गीत, पोस्टर प्रदर्शनी, काव्य गोष्ठी, रैली यह संदेश देने में सफल रही है कि लेखक आज के समय की चुनौतियों को समझते हुए अपना दायित्व निभाने को तैयार हैं।
सम्मेलन के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए प्रलेसं के कार्यकारी अध्यक्ष विभूति नारायण राय ने कहा कि 1947 में खूंरेंजी और उत्तेजना भरे समय में भी देश में एक ऐसा संविधान बना जो दुनिया की सबसे अच्छी पुस्तक साबित हुआ। संविधान में धर्मनिरपेक्षता के आधार पर देशवासियों को समानता का अधिकार दिया गया है। वर्तमान में संविधान के मूल्यों को कुचला जा रहा है। अर्बन नक्सल के नाम पर निरपराध लोग जेलों में ठूंसा जा रहे है। बाबरी मस्जिद विध्वंस पर न्यायपालिका का फैसला सुनियोजित था। इसके लिए दो साल से तैयारी की गई, अपने अनुकूल जजों को न्यायालय में लाया गया। फैसले के बाद न्यायाधीश को राज्यसभा में भेजकर पुरस्कृत किया गया। देश में शिक्षा को बर्बाद किया जा रहा है विश्वविद्यालयों में चांसलरों की नियुक्ति संदिग्ध है। हमारे समय के खतरे की शिनाख्त हो चुकी है। ऐसे ही खतरे प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के समय 1936 में भी थे। सबसे बड़ा खतरा अवसर वाद का है। कई लेखक आपदा में अवसर तलाश रहे हैं। वे बिकने और समझौते के लिए तैयार बैठे हैं। अंधे- गूंगे बहरे होने को भी तैयार हैं। लेखकों के आंतरिक संकटों पर ध्यान देने की जरूरत है। प्रेमचंद ने कहा था कि मनुष्य विरोधी विचार से घृणा करना चाहिए। फासिस्ट सरकारों के समारोह में शामिल होने वाले लेखकों पर सवाल उठना ही चाहिए। प्रलेसं के सदस्यों को अंधविश्वास और धर्मांधता का विरोधी होना चाहिए। प्रलेसं के सदस्यों का मूल्यों से जुड़ना ही मानवीय गुण है।
वैज्ञानिक शायर संस्कृति कर्मी गौहर रजा ने कहा कि दुनिया में फासिज्म जहां कहीं भी आया है, उसने पहला हमला लेखकों और कलाकारों पर ही किया है। वर्ष 2014 के बाद भारत में भी लेखकों पर हमले जारी हैं। इसको कलाकारों साहित्यकारों ने पहचाना 500 से अधिक प्रबुद्ध जनों ने अपने अवार्ड वापस किए। यह कोई छोटी बात नहीं थी। जर्मनी में जब फासीवाद आया तो वहां के लेखकों ने प्रतिरोध करने में देर कर दी थी। हमारे देश में लेखक सजग हैं। उन्होंने कहा कि जिस समाज में बराबरी के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता था, शिक्षा सबके लिए उपलब्ध नहीं थी। औरत और मर्द के अधिकारों में कहीं कोई समानता नहीं थी, उसे ढोर समझा गया था। औरत पूरी तरह मर्द पर आश्रित थी। समाज में कुछ ही लोगों के पास संपत्ति का अधिकार था। ऐसे समाज और देश में एक ऐसी पुस्तक बनी जो सबके लिए बराबरी की बात कहती है। यह बड़ा बदलाव था। 1857 के बाद अंग्रेजों ने देशवासियों को बांटने का प्रयास किया लेकिन यहां के लोगों ने इसे समझा। धर्म, जात, खानपान की पहचान से बड़ी पहचान खड़ी की गई। वह पहचान थी हिंदुस्तानी होने की इस पहचान ने अन्य छोटी पहचानो को समाप्त कर दिया। हिन्दुस्तानी पहचान को बनाने में 90 साल लगे थे। भारतीय पहचान को गढ़ने में नेहरू- गांधी के साथ सोवियत संघ और देश के वाम आंदोलन का बड़ा हाथ था। जिन अधिकारों के लिए अन्य देशों की जनता को संघर्ष करना पड़ा था वह हमें संविधान के माध्यम से आसानी से मिल गए। संविधान पर जिन लोगों ने हस्ताक्षर किए वे भी अपने घरों में समानता के अधिकार का पालन नहीं करते थे। पिछले 70 सालों में वे लोग भी सक्रिय रहे जो संविधान को कुचलना चाहते थे। देश के नेताओं ने हिंदुस्तानी होने के लिए वैज्ञानिक चेतना को आधार बनाया, वह भी तब जब देश की बहुसंख्यक जनता अशिक्षित थी। आज के समय ऐसा संविधान नहीं बनाया जा सकता और न ही उसे संसद में पारित करवाया जा सकता है। हमें संविधान को बचाने की जिम्मेदारी उठानी होगी। आज की दुनिया में श्रमिक वर्ग को दबाना आसान है लेकिन किसानों और नौजवानों को दबाना आसान नहीं है। नागरिकता अधिकार एन आर सी की लड़ाई नौजवानों ने बड़ी खूबसूरती से लड़ी, इसलिए देश को नौजवानों और किसानों से उम्मीद है। गौहर रजा ने अपने संबोधन के समापन पर श्रोताओं की मांग पर दो विख्यात नज्में *धर्म में लिपटी वतन परस्ती क्या-क्या स्वांग रचाएगी* तथा *जब सब ये कहें खामोश रहो, तब सच कहना लाजिम है* भी सुनाई।
प्रलेसं के राष्ट्रीय महासचिव सुखदेव सिंह सिरसा ने कहा कि पंजाब के घरों में गुरु ग्रंथ की स्थापना होती है, जिसे संगीत के साथ ही गाया और पढ़ा जाता है। वहीं घरों में तलवार भी होती है। 478 साल पहले गुरु ग्रंथ के संपादक ने 36 संत कवियों की रचनाओं को उसमें स्थान दिया था। इनमें केवल 6 कवि पंजाब के थे। पंजाब ने हर तरह के आक्रमण को झेला है। यहां 15 साल तक फासीवाद का दौर देखा गया है। लाशों की फसल उगती देखी है। अब पंजाब और देश को पुनः आग में झोंकने के प्रयास हो रहे हैं। देशवासियों के नागरिक होने पर सवाल उठाए जा रहे हैं। साझा संस्कृति का दावा करने वाले देश को बांटने का प्रयास हो रहा है। मुसलमान, जिन्होंने अपने श्रम और कला से संस्कृति को सींचा है उनकी देशभक्ति पर सवाल उठाए जा रहे हैं। लेखकों को तार्किक परंपरा और साझा संस्कृति की पहरेदारी करना होगी।
सिरसा ने कहा कि वर्तमान समय बाजारवाद का है। उसकी हिंसा भी कम नहीं होती है। बाजार हमें नियंत्रित कर रहा है। बाजार का तिलिस्म खतरनाक होता है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर देश में पर एक भाषा एक भूषा थोपी जा रही है। एक के मुकाबले अनेक को बचाना होगा। सरकारी जांच जांच एजेंसियां और बुलडोजर दमन के नए औजार हैं, जो अल्पसंख्यकों को यह एहसास दिलाते हैं कि तुम्हें बहुसंख्यक समाज के नीचे ही रहना होगा। विभाजन के समय में भी पंजाब के मलेरकोटला के मुसलमानों को पलायन करने से रोका गया था। उन्हें सुरक्षा दी गई थी। आज का मुसलमान डरा हुआ है। हमें तय करना होगा कि खुद की मौत मरना है या सच के लिए मरना है।
दूसरे सत्र में सिरसा ने कहा कि प्रलेसं की विचारधारा स्पष्ट है। प्रलेसं में उन्हें ही आना चाहिए जो उसकी विचारधारा से सहमत हों। हम दूसरे संगठनों जैसे नहीं है। केवल लेखन हमारा काम नहीं है। क्या लिखें ? किसके लिए लिखें ? यह हमें तय करना होगा। हम प्रवचनकार नहीं है। केवल प्रवचनों और लिखने से दुनिया नहीं बदलती। किसान आंदोलन ने देशवासियों को कई बातें समझा दी है। किसान संगठनों ने एकता का जो सबक दिया है वह अमूल्य है। लेखक संगठनों को भी उनसे सीखना चाहिए। हमें भी उदार लेखक संगठनों के साथ मिलकर संयुक्त मोर्चा बनाना होगा। किसानों के 400 संगठन जिनमें कई तरह के अंतर विरोध थे, बावजूद इसके वे एक बने रहे। प्रगतिशील लेखक संघ ने किसान आंदोलन को 10 लाख रुपए की सहायता दी थी। किसान संगठनों ने किसी भी सियासी दल को मंच साझा करने की अनुमति नहीं थी। लेकिन उसने 1 जनवरी 2020 को 3 घंटे की अवधि के लिए हमें मंच दिया। हमें अपनी अलग पहचान बनाना होगी। हम क्या हैं, ये लोगों को पता होना चाहिए। लेखन के अलावा भी समाज में सक्रिय बने रहने की जरूरत है। हमारी प्रतिबद्धता संगठन और उसके विचारधारा के प्रति रहना चाहिए। हमने तय किया है कि हमें संघ और शासकों के कार्यक्रम में नहीं जाना चाहिए। हमें कौन आमंत्रित कर रहा है यह भी देखना जरूरी है। सत्ता ललचाती है, डराती है, प्रलोभन देती है। इन से बचते हुए सांप्रदायिकता और कारपोरेट के खिलाफ सक्रिय रहने की जरूरत है।
पंजाब प्रगतिशील लेखक संघ के सुरजीत सिंह जज ने कहा कि पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसानों ने अपने जुझारूपन की मिसाल दुनिया को दिखा दी है। उन्होंने कहा कि *सुबह करते हैं शाम करते हैं, लो हम चिरागों का काम करते हैं*। किसान आंदोलन के नारों ने राष्ट्रीय एकता को मजबूत किया है। *कहीं पर राम बोलेगा, कहीं रहमान बोलेगा। अब पंजाब की भाषा में हिंदुस्तान बोलेगा*
झारखंड प्रगतिशील लेखक संघ के शेखर मलिक ने कहा कि जिस समाज का सपना देखा गया था वह पूरा नहीं हुआ है। इसलिए लड़ाई जारी है। इप्टा की प्रतिनिधि सीमा राजोरिया ने महिलाओं और युवाओं को साथ लेकर चलने का आह्वान किया। छत्तीसगढ़ के अशोक शिरोड़े ने भी संबोधित किया। जनवादी लेखक संघ के वीरेंद्र जैन तथा गुजरात प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव रामसागर सिंह के शुभकामना संदेशों का वाचन किया गया।
राष्ट्रीय प्रगतिशील लेखक संघ सचिव मंडल सदस्य विनीत तिवारी ने विभिन्न सत्रों में अपने संबोधनों में कहा कि हमारे पास कोई प्रलोभन नहीं है, कोई मंच की चाहत नहीं है। हमारे पास इंसानियत के हक़ में लड़ने की ताकत है और इंसानियत और प्यार से भरी दुनिया का ख़्वाब है। हमारी एकजुटता ही हममें साहस भरती है। हमें अपनी सीमाओं को विस्तारित और परिमार्जित करने की जरूरत है। हमें नए शब्द संबोधन तलाशने होंगे और बुनियादी सवालों पर खुलकर चर्चा करना होगी। हमने अपने आप को झुठलाना सीख लिया है। हम जो बोलते हैं वह हमारे आचरण में नहीं है। देश में सांप्रदायिकता पर बहुत बात होती है परंतु कारपोरेट के प्रभाव पर इतनी चर्चा नहीं होती। साहित्य को इन दोनों से बचाने की जरूरत है। कारपोरेट मीडिया द्वारा साहित्य के नाम पर मनाए जाने वाले उत्सव साहित्य से प्रतिबद्धता और जनता के मुद्दों से विचलन के सिवा और कुछ नहीं है। इन दोनों से साहित्य को बचाना होगा। गेट और विश्व व्यापार संगठन के समझौते के माध्यम से नई आर्थिक गुलामी उस दौर में ही स्वीकारी गई थी जब बाबरी मस्जिद को गिरा कर सांप्रदायिकता को विस्तारित किया गया था। लेकिन सांस्कृतिक स्तर पर केवल साम्प्रदायिकता का ख़तरा ही पहचाना गया, पूँजीवाद की बारीक मार की तरफ निगाह कम डाली गई। हमें शब्दों को सही अर्थों में समझना होगा। आज सिर्फ़ आरएसएस को दक्षिणपंथी कहा जाता है। दक्षिणपंथ सिर्फ़ साम्प्रदायिक होना नहीं है, वो दरअसल पूंजीवाद है। और इस नाते अनेक जातिवादी और गैर भाजपाई राजनीतिक दल भी दक्षिणपंथी हैं। हम केवल दक्षिणपंथ को आरएसएस मानने की भूल करने लगे हैं, फिर हम जनता को क्या समझाएंगे? सांप्रदायिकता के साथ हमें साम्राज्यवाद की साज़िशों को भी समझना होगा। उपनिवेशवाद का नया चेहरा आर्थिक उपनिवेश के रूप में हमारे सामने हैं। देश में शोषण के तरीके बदल रहे हैं इन्हें पहचानने की जरूरत है। इनकी साज़िश उजागर करने के लिए लेखन के माध्यम से भी हम सक्रिय कार्यकर्ता की भूमिका निभा सकते हैं। प्रतिरोध का एकमात्र तरीका सड़कों पर उतरना ही नहीं है। एजाज़ अहमद, ब्रेख्त आदि ने इसे अपने लेखन से भी प्रमाणित किया है। वे अपने लेखन के कारण ही हिटलर के आंख की किरकिरी बन गए थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा जेएनयू पर हमला किया गया उसकी धमक सारी दुनिया में सुनाई दी। ऐसा ही हमला हैदराबाद यूनिवर्सिटी पर भी हुआ जिसके चलते रोहित वेमुला को अपनी जान गंवानी पड़ी। फासीवाद शब्द को दोहराना 'भेड़िया आ गया' जैसा दोहराव करके उसकी गंभीरता को कम करना होता है। देश में फासीवाद आ चुका होता तो हम खुले में यह सम्मेलन नहीं कर पा रहे होते। तमाम कमजोरियों के बाद भी आजादी के 75 सालों का ख्वाब बना रहना हमारे लोकतंत्र की बड़ी उपलब्धि है और उसमें भगतसिंह, गांधी, नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, अम्बेडकर और अनेक कम्युनिस्ट नेताओं सहित सभी का साझा योगदान है, सिवाय आरएसएस और उसके अनुषंगी संगठनों के। विसंगति यह है कि वे जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई में कोई भागीदारी नहीं की, वे ही देशप्रेम की परिभाषा तय कर रहे हैं। यह सही है कि देश में कट्टरता बढ़ रही है, लेकिन उसे अभी भी फ़ासीवाद नहीं कहा जा सकता। यहाँ तक कि हम जैसे लोग भी अब ये कहने में डरते हैं कि डॉक्टर अंबेडकर अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के चरित्र और खतरे को समझ पाने में विफल रहे थे। ये कहते ही अम्बेडकरवादी संगठन बुरा मान जाएँगे। यही हाल नेहरू और गाँधी के अनुयायियों के हैं। नेहरू काल में अमेरिका के इशारे पर दुनिया की पहली निर्वाचित केरल की कम्युनिस्ट सरकार को षडयंत्र पूर्वक गिराया गया था। तेलंगाना में चार हजार कम्युनिस्ट कार्यकर्ता मारे गए। यह बातें कहें तो लोग कहेंगे कि अभी ये मत कहिए, अभी इससे भाजपा और आरएसएस को मदद होगी, लेकिन मैं कहता हूँ कि सच पर पर्दा नहीं डाला जाना चाहिए। उसे सही संदर्भों के साथ बताना चाहिए। लेखक क्या लिख रहा है उससे ही उसका पक्ष तय होता है। अपने विचारों को साफ रखने की जरूरत है।
म.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष राजेंद्र शर्मा ने प्रलेसं के बीते सम्मेलन से आज तक के समय का मूल्यांकन करते हुए कहा कि देश बेहद बुरे दौर से गुजर रहा है। भ्रष्टाचार को और कुप्रबंधन के कारण हमने मृत्यु से भी भयानक कष्ट से लोगों को मरते देखा है। उन्होंने प्रलेसं के वरिष्ठ साथी जबलपुर निवासी मलय जी को उनके 93वें जन्मदिन पर याद करते हुए उन्हें सम्मेलन की ओर से बधाई प्रेषित की। संगठन के लिए उन्होंने प्रतिबद्धता और समर्पण के साथ कार्य किया है। देश में फासिज्म सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर आ रहा है। इसने हमारे सांस्कृतिक मूल्यों को समाप्त कर दिया है। देश के संविधान को नष्ट कर नई संस्कृति स्थापित की जा रही है। हम मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए एकत्र हुए हैं। सच की जीत होगी, यही सच है। प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति की मशाल है। हमें हुस्न का मेयार बदलना होगा। अच्छी चीजों की तरफ जाना होगा। लेखक से समाज को शिक्षा ग्रहण करना चाहिए यह कहना उचित नहीं है। समाज से कटकर नहीं लिखा जा सकता, हमें लोगों से मिलने - जुलने के तरीके खोजने होंगे। आर्थिक उदारवाद का ही प्रभाव है कि पहले जाति धर्म आधारित विवाह होते थे, अब पैकेज के आधार पर वैवाहिक संबंध जोड़े जाते हैं। लेखकीय अवसरवाद पर सोचने की जरूरत है। प्रलेसं में अपनी 50 साल की यात्रा को याद करते हुए उन्होंने कहा कि संगठन लेखक को कुछ नहीं देता, लेकिन प्रलेसं ने मुझे अखिल भारतीय परिवार दिया है।
वरिष्ठ कवि कुमार अंबुज के अनुसार साहित्य ही लेखकों के संगठन का माध्यम है। यही हमारे औजार हैं, इन्हीं के माध्यम से समय की चुनौतियों का मुकाबला करना होगा। यह समय पुनर्विचार का भी है। देश में फासिज्म आ चुका है और कैंसर की तरह फैल रहा है। उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। लेखक संगठनों में अनेक लोग फासीवादी चरित्र के भी होते हैं । संयुक्त मोर्चा निर्माण में इन बातों को ध्यान में रखना होगा। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समय कैसे बदल रहा है किस रूप में बदल रहा है यह भी समझने की जरूरत है। इसे लेखक कैसे देखें ? क्या समय के साथ हमारे मूल्य भी बदल रहे हैं? लेखक बुलडोजर संस्कृति, भीड़ के न्याय- अन्याय को किस तरह से देखता है? लेखक समाज का ही उत्पाद है, उसका उत्तरदायित्व है कि वह समाज के स्वप्न को बनाए रखे। वह सामाजिक बदलाव पर आंखें बंद करके नहीं रह सकता। आदर्श बदलते रहेंगे। प्रगतिशील दृष्टि, अस्मिता विमर्श में दलित, आदिवासी, स्त्री विमर्श जरूरी है। परिवार स्त्री शोषण का केंद्र है। उसे परिमार्जित करने की ज़रूरत है। आप कहां पैदा होंगे यह तो आपके बस में नहीं है, परंतु प्रदत परिस्थितियों में आप क्या करते हैं यह सब आपके हाथ में हैं। लेखन का कोई भी अलग विषय नहीं होता। सामाजिक-राजनीतिक लेखन की चुनौतियां अलग नहीं है।
म. प्र. प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव शैलेंद्र शैली ने अपनी रिपोर्ट में सितंबर 2017 में 12वें सतना सम्मेलन से लेकर अनूपपुर सम्मेलन की अवधि के दौरान हम से बिछड़ चुके साथियों का स्मरण कर उनके अवदान को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि देश में सामाजिक न्याय, समता, मानव अधिकार, लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी, आंदोलन के अधिकार छीने जा रहे हैं। फासीवादी सत्ता ही देशभक्ति और देशद्रोह के मापदंड तय कर समाजवाद के पक्षधर, अल्पसंख्यकों, दलितों, वंचितों, आदिवासियों, विस्थापितों को प्रताड़ित और अपमानित कर रही है। प्रलेसं की स्थापना स्वतंत्रता- समानता और स्रृजन के विचारों को लेकर हुई थी। प्रगतिशील चेतना को विस्तारित करने की जिम्मेदारी ही हमारी चुनौती है।
सम्मेलन में आयोजन समिति के महासचिव विजेंद्र सोनी ने प्रतिनिधियों का स्वागत करते हुए कहा कि मानवता संकट में है। आप सब की उपस्थिति हमें लड़ने की ताकत देती है। देश में आजादी के बाद हुए परिवर्तनों पर विचार किया जाना चाहिए। मिली आजादी को दुरुस्त करने की जरूरत है। आत्म संतोष के लिए लेखन साहित्य नहीं है। जो लेखक बड़े लेखक बने हैं, उनसे अपेक्षा है कि वे वटवृक्ष न बनें जिसके नीचे घास भी नहीं पनपती बल्कि वे धान और गेहूं की बालियों की तरह फैलें और नये साथियों को तैयार करें।
वरिष्ठ कवयित्री और संपादक आरती ने कहा कि वर्ष 2000 के बाद सोशल मीडिया की तकनीक से सूचनाओं और विचारों का विस्फोट हुआ है। देश के बंटवारे में पाकिस्तान पर तो बहुत कुछ लिखा गया है पर बंगाल को याद नहीं किया गया, क्योंकि उससे राजनीतिक लाभ की संभावना नहीं थी। लेखन में नए मुद्दे लाए जाने की जरूरत है। जल- जंगल-जमीन पर कम लिखा गया है। विचार को विमर्श से अलग करने की कोशिशों का सजग विरोध भी आवश्यक है।
पवित्र सलालपुरिया ने कहा कि संगठन अलग तरह की चुनौतियों से जूझ रहा है। हमारी प्रतिबद्धता ही हमें अन्य संगठनों से अलग करती है। लेखन तो अकेले भी किया जा सकता है। संगठन से हम इसलिए जुड़ते हैं कि हम एक सामाजिक समरसता के स्वप्न को सामूहिकता में साकार देखना चाहते हैं।
रमाकांत श्रीवास्तव ने कहा कि लेखक के लिए जरूरी है कि वह अपने समय को पहचाने। आज के बुरे वक्त के पीछे कौन सी ताकतें काम कर रही है इसे समझे बिना लेखक अपने दायित्व को नहीं निभा सकता। बुरे समय में विपक्ष के औजार क्या होंगे, इसे भी समझना होगा। उन्होंने सभी प्रतिनिधियों से आग्रह किया कि वे मनुस्मृति को अवश्य पढ़ें और पढ़कर उसे विश्लेषित करें कि वह क्यों त्याज्य है। भारतीय साहित्य ने कभी भी अंधविश्वास और धर्मांधता को स्वीकार नहीं किया है। यही हमारी विरासत है जिस पर हमें गर्व है। साहित्य के मूल्य समाज के साथ कैसे जुड़े हैं उसे जानने की जरूरत है। देश के युवा भ्रमित हैं कि वे किधर जाएं ? वे समझते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का चरित्र बदल रहा है, पर यह सच नहीं है। संघ डर पैदा कर रहा है। डर के मुकाबले साहस कैसे पैदा हो इस पर विचार करना जरूरी है।
सेवाराम त्रिपाठी ने कहा कि अनेक प्रकार की चुनौतियां की बात होती है। भूख- गरीबी- अशिक्षा- बेरोजगारी के मुद्दों का अपहरण हो चुका है। शोषण, उत्पीड़न, भ्रष्टाचार, भय परोसा जा रहा है। दोहरापन हमारे अंदर व्याप्त हो गया है। देश सांप्रदायिक तानाशाही के मुहाने पर खड़ा है। तरुण गुहा नियोगी ने कहा कि 80 के दशक में संपूर्ण क्रांति आंदोलन सांप्रदायिक ताकतों का को मदद करने वाला प्रमाणित हो चुका है। आज के शासक संविधान के नाम पर दमन कर रहे हैं। धूर्तता चरम पर है। हमें अपने साथी लेखकों की वैचारिक स्पष्टता के लिए कार्यशालाएं आयोजित करनी चाहिए। बाबूलाल दाहिया ने कहा कि अतीत में गांव में जातियां तो थी परंतु हिंदू-मुसलमान की बात नहीं होती थी। आजकल सोशल मीडिया का प्रचलन है और अपने विचारों के फैलाव हेतु इसका भी हमें सधा हुआ इस्तेमाल करना चाहिए।में प्रतिरोध के स्वर आना चाहिए।
सम्मेलन में विभिन्न जिलों की इकाइयों के प्रतिनिधियों भोपाल के संदीप, सागर के प्रैटिस लुमुंबा, मंदसौर के दिनेश बसेर, इंदौर के केशरी सिंह चिडार, अशोकनगर के अरबाज, गुना के गिरीश जाटव, रीवा के लाल जी गौतम, अनूपपुर के राम नारायण पांडे, गिरीश पांडे, कोतमा के मोहम्मद यासीन, उज्जैन के मुकेश बिजौले, छिंदवाड़ा के दिनेश भट्ट, सीधी के सोमेश्वर सिंह, विदिशा के रविंद्र स्वप्निल प्रजापति, शहडोल के मिथिलेश राय, देवास के राजेंद्र राठौर, जबलपुर के तरुण गुहा नियोगी, राजीव कुमार शुक्ला, सतना के विजय शंकर चतुर्वेदी, सागर के पी आर मलैया, दतिया के नीरज जैन, सुरेश कुमार धड़कन, परमानंद तिवारी, चिन्मय आदि ने भी संबोधित किया
सम्मेलन के उद्घाटन सत्र के पूर्व लेखकों, कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों द्वारा सामाजिक सद्भाव, आपसी भाईचारे के उद्घोष के साथ अनूपपुर शहर में विशाल रैली निकाली गई। रंगकर्मी निसार अली के निर्देशन में नाचा कलाकारों ने आयोजन में लोकगीतों के माध्यम से वर्तमान समय की विसंगतियों पर व्यंग्य किए। आयोजन स्थल पर पंकज दीक्षित, मुकेश बिजौले, अशोक दुबे, अनिल करमेले के पोस्टरों की प्रदर्शनी लगाई गई थी। प्रगतिशील साहित्य के अनेक स्टाल भी आयोजन स्थल पर थे। सम्मेलन के प्रारंभ में विगत वर्षों में हमसे बिछड़ चुके अनेक लेखकों साहित्यकारों के योगदान को स्मरण करते हुए उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की गई।
सम्मेलन में पारित प्रस्ताव में आगामी वर्षों में प्रसिद्ध लेखक हरिशंकर परसाई, रंगकर्म के पुरोधा हबीब तनवीर जन्म शताब्दी समारोह बड़े पैमाने पर मनाए जाने का प्रस्ताव पारित किया गया। एक अन्य प्रस्ताव में वैश्विक स्तर पर साम्राज्यवाद द्वारा युद्ध थोपे जाने, दुनिया में बढ़ रही तानाशाही प्रवृत्तियों पर चिंता व्यक्त करते हुए उनके विरुद्ध आवाज बुलंद करने पर जोर दिया गया। देश के हालात पर भी निरंतर बढ़ती तानाशाही, मानव अधिकार कार्यकर्ताओं के दमन और लेखकों की हत्या पर प्रतिरोध करने का संकल्प व्यक्त किया गया।
सम्मेलन में संपन्न चुनाव में अध्यक्ष सेवाराम त्रिपाठी महासचिव तरुण गुहा नियोगी, कोषाध्यक्ष सुधीर साहू के अलावा संरक्षक मंडल में 7 अध्यक्ष मंडल में 12, सचिव मंडल में 10 तथा कार्यकारिणी में 19 सदस्यों को निर्वाचित घोषित किया गया।
सम्मेलन में स्वागत उद्बोधन रमेश कुमार सिंह ने, स्वागत गीत श्रीमती मीना सिंह तथा बघेली में नरेन्द्र सिंह ने, जन गीत निसार अली एवं हूरबानो सैफी और उनके साथियों द्वारा गाया गया।
सम्मेलन में अनेक पुस्तकों का विमोचन हुआ। मुख्य एवं विशिष्ट अतिथियों द्वारा स्मारिका का विमोचन संपादक आरती द्वारा करवाया गया, संगठन के संविधान और घोषणा पत्र पुस्तिका का विमोचन मंदसौर इकाई के प्रतिनिधियों द्वारा, कैसे प्रेमगीत मैं गाऊँ पुस्तक का विमोचन पी. आर. मलैया द्वारा, हम जीवित रहेंगे हवाओं में काव्य संकलन का विमोचन वीरेंद्र प्रधान द्वारा, मेरी आवाज काव्य संग्रह का विमोचन प्रतिभा सिंह द्वारा करवाया गया।
कवि गोष्ठी में शिव कुमार मिश्र सरस, यासीन खान, मोहम्मद कासिम इलाहाबादी, दिनेश कुशवाहा, राम निहोर तिवारी, संतोष कुमार द्विवेदी, आरती, रामनरेश तिवारी, किरण सिंह, दीपक अग्रवाल, डॉक्टर परमानंद तिवारी, जगदीश प्यासी सहित अनेक कवियों ने रचना पाठ किया। प्रतिनिधियों एवं अतिथियों का आभार अनूपपुर प्रलेसं इकाई अध्यक्ष गिरीश पटेल ने माना। सम्मेलन में 19 जिला इकाइयों से करीब 150 प्रतिनिधि शामिल हुए।