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आप लाख न मानें लेकिन लोग रोगियों से घृणा करते हैं, मेरा एक मरीज़ मुझसे कहता है!
आशू कुमार वत्स
"आप लाख न मानें सर , लेकिन लोग रोगियों से घृणा करते हैं।" मेरा एक मरीज़ मुझसे कहता है। "रोग से कि रोगी से ? कौन-से लोग ? और कौन-से रोगियों से ? सभी रोगियों से ?" मेरा प्रश्नगुच्छ फूटता है।
"संक्रामक रोगों से विशेषकर सर। जो संक्रमित है , उससे भी। रोग और रोगी को कहाँ लोग अलग-अलग समझते हैं ! रोग और रोगी को वे पाप और पापी मानते हैं और पाप और पापी को एक-समान। संक्रमणों को वे रोग सबसे कम समझते हैं। उन्हें लगता है कि संक्रमित व्यक्ति के भीतर कोई प्रेत है। उन्हें लगता है कि वह संक्रमण-प्रेत उन-तक आ जाएगा। यह एक क़िस्म की अस्पृश्य दुर्भावना है। समाज के उन लोगों के प्रति जो इन्फेक्टेड हैं।"
"इसके मूल में स्वस्थ जनता का भय हुआ न ! वे भयभीत हैं , इसलिए घृणा करते हैं। भय से निकली है यह घृणा उनकी।"
"भय तो अपना कुत्ता है सरजी। आवारा थोड़े ही छोड़ देना चाहिए। ये साइंस-वाइंस किसलिए है ? सरकारें किसलिए हैं ? समाजसेवी किसलिए हैं ? ये पालतू कुत्तों को पट्टा पहनाकर उसकी आवारगी सीमित नहीं रख सकते ? या भयभीत ने जानबूझकर कुत्ता आवारा छोड़ रखा है ! जिसे चाहे काट लो ! जाओ !"
मुझे इस इंसान से इतनी विशद अभिव्यक्ति की उम्मीद नहीं थी। मैं मास्क के पीछे मुस्कुरा पड़ता हूँ , तो वह उसकी डोरियों का खिंचाव देखकर मेरी भावनाओं को पढ़ लेता है।
"एक बात बताइए : कोविड-19 से संक्रमित व्यक्ति से कितने तक किसी अन्य को संक्रमण पहुँचने का ख़तरा है ?" वह मुझसे पूछ रहा है।
"लक्षणों के आरम्भ से दो-तीन दिन पहले से संक्रमण संक्रमित से असंक्रमित में जा सकता है।इस समय सर्वाधिक आशंका है संक्रमण फैलने की।"
"और लक्षणों के बाद कितने दिन तक ?"
"कोई शोध कहता है आठ दिन , कोई दस दिन , कोई ग्यारह।"
"चौदह दिन ... दो सप्ताह बाद भी कोई संक्रमित हो , इसकी आशंका तो बहुत-ही कम है न सर ?"
"हाँ।"
"पर लोग नहीं मान रहे। कोविड-19-रोगियों से हफ़्तों-महीनों तक उनका दुर्व्यवहार जारी है। उन्हीं से नहीं उनके परिवारवालों से भी। मैं दूरी की बात नहीं कर रहा सर , दुर्व्यवहार की कर रहा हूँ। अब यह कहाँ की समझदारी है ?"
"दूरी रखना दुर्व्यहार कब बन जाती है ? और क्यों बन जाती है ?"
"जब समाज कोविड-रोगी को व्यक्ति के रूप में नहीं देखता , संक्रमण फैलाने वाली वस्तु के रूप में देखने लगता है। यह तो होगा ही सर। भयभीत पहले घृणा करेगा , फिर हिंसा भी। भय जितना घृणा में बदलेगा और घृणा जितना हिंसा बनेगी , उतना हम-आप वस्तु बनते जाएँगे।"
"हम यानी डॉक्टर भी ?"
"और क्या सर। लोगों को आपकी सेवा-वेवा , काम-वाम से कोई मतलब नहीं। स्वार्थी और कृतघ्न है यह दुनिया। उसे पहले अपनी सुरक्षा करनी है , चाहे उस सुरक्षा के दौरान उसे सच्चाई से मुँह भी मोड़ना पड़े। भाड़ में जाए विज्ञान ! लोग कहाँ विज्ञान-सिज्ञान पढ़कर अपने भय को कंट्रोल करते हैं सर !"
" लोग विज्ञान पर भरोसा भी तो नहीं कर पा रहे न ! जब अज्ञानी की जड़ को भरोसे का बल नहीं मिलता , तब वह भय से काँपने लगता है। और एक-दिन काँपते-काँपते किसी निर्दोष पर ऐसे धम्म से गिर पड़ता है कि हिंसा से उसकी जान ही ले लेता है।
"आप इंसान को पेड़ कहकर उसे बचा रहे हैं सरजी। इंसान पेड़ जितना मजबूर नहीं है , दिखाता चाहे हो। अज्ञान मजबूरी नहीं आज , फ़ैशन-स्टेटमेंट है। हम मूर्ख हैं और मूर्खता को फ्लॉन्ट करते हैं।"
मैं उसकी बातों पर फिर हँस पड़ता हूँ। कभी-कभी ही ऐसे जानदार विमर्श किसी मरीज़ से ओपीडी में हो पाते हैं। निश्चय ही वह कम बीमार है , जब समाज के बारे में इतने सुगढ़ ढंग से सोच पा रहा है।
"यह पैंडेमिक बहुत-सार रिश्ते-नातों को कसौटी पर कस लेगी। बहुत से सम्बन्ध खट्टे होंगे , बहुत-सारे सम्बन्ध और मीठे हो जाएँगे।" मैं उससे कहता हूँ।
"बहुत से मीठे सम्बन्ध पैदा भी हो जाएँगे सर। धीरज धरम मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिए चारी। धीरज , धर्म , मित्र और नारी की पहचान आपत्तिकाल में सर्वाधिक होती है न , सर !"
"आपत्ति-काल में नर की पहचान भी नारी के प्रति हो जाती है।"
हाँ-सर-हाँ। जब यह चौपायी लिखी गयी थी , तब जिस समुदाय को यह सम्बोधित करती थी : उसमें नारियाँ नहीं थीं , केवल नर थे। आज नर और नारियाँ , दोनों के लिए यह प्रासंगिक है। सुनने और पढ़ने वाले लोग बदल गये , आपत्तियाँ तो नहीं बदलीं न सर !"
"सही कह रहे हैं आप। आपत्तियाँ आती रहेंगी , इंसानों को कसौटी पर कसती रहेंगी। दिखाती रहेंगी कि मानवों में मानवाधम कौन हैं। कोविड-19 के इम्तेहान में रोज़ ढेरों इंसान फ़ेल हो रहे हैं।"
"चलता हूँ सर। देखते हैं , अगली मुलाक़ात तक दुनिया में कितना कोविड-19 बढ़ता है और कितनी उसके रोगियों के प्रति घृणा। ध्यान रखिएगा।"
"उम्मीद पर दुनिया क़ायम है।"
"अगर उम्मीद क़ायम रहे , तब न सर। उम्मीद की नींव न दरकने पाये। दुनिया की भी नहीं दरकेगी।" वह मुस्कुराते हुए केबिन से बाहर निकलता है और उसी सियाह समाज में किसी सफ़ेद डले-सा घुल जाता ।