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छत्तीसगढ़ बजट विश्लेषण किसान के नजरिए से: खुद की आय के साधन भी बढ़े नहीं, नया कुछ कैसे, करे ये सरकार?
बजट में इस बार दूसरे नंबर पर रहा किसान,पर फायदे में फिर भी रहेगा धान का किसान
डंडी मार कर देती है सहायता राशियां केंद्र सरकार ; खुद की आय के साधन भी बढ़े नहीं ; नया कुछ कैसे, करे ये सरकार?
प्रदेश के 44 प्रतिशत भाग में है जंगल, किंतु नहीं पता किस चिड़िया का नाम है हर्बल । 'हर्बल स्टेट' घोषित प्रदेश में, 'हर्बल' का जिक्र तक नहीं है बजट में,
कृषि विशेषज्ञ और राष्ट्रीय संयोजक अखिल भारतीय किसान महासंघ आईफा डॉ राजाराम त्रिपाठी ने छत्तीसगढ़ के बजट का विश्लेषण किसान के नजरिए से किया है।
डॉ राजाराम त्रिपाठी ने कहा कि छत्तीसगढ़ के हालिया बजट की व्याख्या करने के पूर्व यह समझना जरूरी होगा कि यह अभिशप्त कठिन कोरोनाकाल के बाद का प्रथम बजट है। कोरोना काल की रोजगार तथा धंधों की विपरीत परिस्थितियों और केंद्र शासन के द्वारा समय-समय पर की गई विभिन्न कटौतियों के बावजूद एक समग्र विकासोन्मुखी साहसिक बजट पेश करने की कोशिश की गई है। भूपेश बघेल ने केंद्र सरकार द्वारा समय-समय पर हाथ खड़े कर दिए जाने के बावजूद जिस तरह से जुझारु तेवरों के साथ किसानों से किए वायदों के अनुसार घोषित मूल्य पर धान खरीदने व अंतर राशि का भुगतान का कार्य कर दिखाया, उससे प्रदेश सरकार से किसानों की आकांक्षाएं बढ़ी हुई हैं। जबकि पिछले बजट 1 लाख चार हजार करोड़ की तुलना में यह बजट लगभग 95 हजार करोड़ मात्र का रहा है। हालांकि इसबार समूचे बजट में शिक्षा को कृषि से ज्यादा महत्व दिया गया है, पर इससे किसी को आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए। शिक्षा एवं स्वास्थ्य के बाद, सिंचाई के लिए130 करोड़, फसल बीमा के लिए 606 करोड़, किसान ज्योति योजना के तहत 2500 करोड सहित कृषिसंबंद्ध सभी क्षेत्रों की पर्याप्त मदद करने की कोशिश की गई। साथ ही हमें यह भी समझना होगा कि यह सरकार जब सत्ता में आई तो इसके सिर पर पहले से ही लगभग 40 हजार करोड रुपए का कर्ज चढ़ा हुआ था। आज प्रदेश के लगभग 56 लाख परिवारों पर रिजर्व बैंक तथा अन्य संस्थाओं का लगभग, सत्तर हजार करोड़ का कर्जा चढ़ा हुआ है। अर्थात प्रदेश के हर परिवार पर लगभग एक लाख पंद्रह हजार का कर्जा चढ़ा हुआ है। इन हालातों को देखते हुए, सरकार को आय बढ़ाने के लिए केवल शराब बेचने जैसे परंपरागत और अलोकप्रिय उपायों पर आश्रित रहने के बजाय अन्य बेहतर तथा टिकाऊ आमदनी के स्रोत ढूंढने होंगे ।
डॉ राजाराम त्रिपाठी ने कहा कि किसान आकांक्षाओं के पंखों पर सवार होकर आई इस सरकार के कार्यकाल का आधा सफर पूरा हो चला है। कहते हैं किसी भी सफर की आधी दूरी तय हो जाने के बाद सफर की उल्टी गिनती चालू हो जाती है, लेकिन अभी तक इस प्रदेश के सर्वांगीण टिकाऊ विकास का ठोस नींव रखने में इस सरकार के सलाहकार, नीति निर्माता, तथा योजनाकार सफल नहीं हो पाए हैं। पिछली सरकारों के कोसने का मंत्र आज के दौर की जनता पर अब पहले की तरह कारगर नहीं हो रहा है। जनता जुमलों, नारों और लफ्फाजियों से अब ऊब चुकी है, उसे ठोस काम तथा परिणाम चाहिए। इसलिए लिए इन सबको अब मिलकर एक टीम के रूप में,एक व्यापक समग्र दृष्टिकोण के साथ और अधिक मेहनत करने की आवश्यकता है । उदाहरणार्थ प्रदेश के कुल क्षेत्रफल के 44% भाग में अकूत वन संपदा से भरे वन हैं, जो अब बहुत तेजी से समाप्त होते जा रहे हैं। जबकि इनसे केवल 112 करोड़ रूपया का ही वनोपज सरकार हासिल कर पाई है, और दुखद आश्चर्य की बात तो यह है की इस उपलब्धि को लेकर यह विभाग फुल पेज विज्ञापन देकर अपनी पीठ थपथपाता रहा है। पूछने की बात है कि 12 लाख से भी अधिक तेंदूपत्ता संग्राहक आदिवासी परिवारों को अगर यह पूरी राशि 112 करोड़ भी एक साथ ही दे दी जाए , तब भी इससे प्रति आदिवासी परिवार को साल भर में लगभग केवल ₹100 ही मिल पाएगा । जरा सोचिए साल भर में सौ रुपए मात्र ? क्या इससे इन आदिवासी परिवारों का वास्तविक रूप से कोई भला हो रहा है? अब यह खुला सत्य है कि यह विभाग वनों की लकड़ी काटने -बेचने, लघु वनोपज संग्रहण, विपणन से लेकर नए पुराने जंगलों के सुधार तथा नवीन वृक्षारोपण के नाम पर, हर मद में भारी भ्रष्टाचार के केंद्र बन चुका है, अन्य विभागों की हालत भी इससे कुछ खास बेहतर नहीं है। वित्तीय संसाधनों के लिए तरसती इस सरकार के लिए नियमित आय के वैकल्पिक स्रोत तलाशना भी मुख्य जरूरी कार्य होना चाहिए। वनों के समुचित संरक्षण, संवर्धन तथा टिकाऊ विदोहन के जरिए पर्यावरण सुधार के साथ ही राज्य सरकार अपने आय में भी कई गुना बढ़ोतरी कर सकती है, किंतु शासन की योजनाकारो की दृष्टि इस ओर अभी तक नहीं गई है। नरवा गरवा घुरवा बाड़ी, गोठान (175 करोड़ ) तथा गौधन (377 करोड़) इस सरकार की प्रमुख फ्लैगशिप योजना रही है। ग्रामीण बेरोजगारी को दूर करने में ये योजनाएं सही मायने में सहायक भी हो सकती हैं। किंतु इनके लिए बजट आवंटन, तय विशाल लक्ष्य के अनुरूप नहीं हो पाया है। प्रदेश में धान के अलावा इस प्रदेश की जलवायु के लिए सर्वथा उपयुक्त अन्य फसलों यथा औषधीय,सुगंधीय, मसाला फसलों, नगद फसलों तथा कृषि नवाचारों के विकास को समुचित प्रोत्साहन दिए जाने की महती आवश्यकता है, किंत इन सबकी न तो बजट में चर्चा है और न ही इनके लिए कोई बजट आवंटित न किया गया है।
डॉ राजाराम त्रिपाठी ने कहा कि नवाचार के बढ़ावे के नाम पर मात्र 13 सौ हेक्टेयर में फूलों की खेती की बात कही गई है, जो मात्र प्रतीकात्मक ही माना जा सकता है। यदि कम से कम एक हैक्टेयर में भी प्रति किसान यदि फूलों की खेती करते हैं, तो 13 सौ हेक्टेयर से प्रदेश के केवल एक डेढ़ हजार किसानों का ही ,इससे भला हो पाएगा। इसी प्रकार बजट में पहली बार ट्रांसजेंडर्स के पुनर्वास व्यवस्था के लिए मात्र 76 लाख रुपए की व्यवस्था की गई है, इस पहल का स्वागत होना ही चाहिए किंतु, मात्र 76 लाख रुपए का फंड प्रदेश के इस वर्ग की इस समस्या का किसी भांति कोई समाधान नहीं करता। यह मात्र सरकार की सकारात्मक संवेदनशीलता की ओर केवल इंगित करती पहल कही जा सकती है। प्रदेश के धरसा हेतु मात्र 10 करोड़ का प्रावधान नई पहल है, और यह पहल गांवों की नब्ज को छूती भी है। परंतु यह भी समाधान मूलक न होकर सांकेतिक है।
डॉ राजाराम त्रिपाठी ने कहा कि इस बजट में, आज देश के विभिन्न सार्वजनिक उपक्रमों को येन-केन प्रकरेण विक्रय किए जाने की केंद्र सरकार की वर्तमान नीति, से उलट एक निजी अस्पताल चंदूलाल चंद्राकर मेमोरियल अस्पताल को बेहतर संचालन हेतु अधिग्रहण कर, एक स्पष्ट राजनीतिक संकेत देने की कोशिश की गई है। फूड पार्क के लिए 50 करोड़ की व्यवस्था की गई है। अब हकीकत तो यही है कि पूरे प्रदेश में ऐसे एक या दो फूड पार्क बनाने से प्रदेश का कोई खास भला नहीं होने वाला, इससे तो मात्र उसके आसपास के कुछ गांव ही लाभान्वित हो पाएंगे। दरअसल प्रदेश के गांव-गांव में में विकासखंड स्तर पर कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण की छोटी छोटी इकाइयों तथा छोटे एवं मध्यम आकार के गोदामों की बहुत महती आवश्यकता है। केन्द्र सरकार की वित्तीय कटौतियों तथा वित्तीय संसाधनों की कमी के संकट से जूझती इस सरकार के द्वारा शहरों में सौंदर्यीकरण के नाम पर किए गए अनाप-शनाप खर्चे तथा योजनाओं के प्रचार प्रसार के नाम पर किए जा रहे आडंबर युक्त आयोजन न केवल वित्तीय प्रबंधन पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं ,बल्कि पिछली सरकार के आयोजनों की याद दिलाते हैं। डीएमएफ फंड का भी ज्यादातर उचित उपयोग नहीं हुआ है, कैंपा योजना में क्रियान्वयन की गंभीर खामियां अभी भी दूर नहीं हुई हैं। सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि इन्हीं कारणों से जनता ने पिछली सरकार को सिरे से नकारते हुए, इन्हें यह मौका दिया है, इसलिए इन्हें अपनी नीति तथा नियत साफ रखते हुए जनता से किए गए वादे पूरे करने की दिशा में ठोस कार्य करने होंगे। "गड़बो नवा छत्तीसगढ़" नारा सुनने में तो अच्छा लगता ही है, पर नारों तथा जुमलो से जनता धीरे-धीरे ऊबते जा रही है। प्रदेश की जनता भूपेश बघेल के ठेठ ज़मीन अंदाज और उनके जुझारू तेवरों को पसंद करती है, साथ ही सरकार से ठोस परिणाम भी चाहती है। इधर प्रदेश सरकार की दिक्कतों का भी अंत नहीं है, केंद्र सरकार राज्य की सहायता मदों में भी यथासंभव कटौती करके,डंडी मार के ही दे रहा है। इनके अपने वित्तीय साधन सीमित तथा स्थिर हैं, शराब विक्रय जैसे राज्य के परंपरागत आय के स्रोत भी संकुचित होने वाले हैं,और ऊपर से अब इस कार्यकाल का ज्यादा वक्त भी नहीं बचा है। अर्थशास्त्र की जटिल भाषा से हटकर, अगर आम बाल बोलचाल की भाषा में कहें, तो यही कह सकते हैं कि, " मध्यांतर हो चुका है, पर पिक्चर अभी बाकी है दोस्त" !!