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"काली मिर्च" की खेती बन रही है बस्तर के आदिवासी किसानों के ठोस आय का साधन
छत्तीसगढ़। बस्तर प्रायः नक्सल तथा सुरक्षा बलों की मुठभेड़ गोलाबारी एवं दुखद मौतों की खबरें ही आती हैं। गोला बारूद की बारूदी खबरों के बीच इन दिनों ठंडी हवा के झोंके की तरह एक सकारात्मक खबर आ रही है बस्तर के कोंडागांव से। धीरे धीरे यह इलाका देश की जड़ी बूटियों के हर्बल मार्केट तथा मसाला मार्केट में एक इज्जत ज्यादा इज्जतदार जगह बनाते जा रहा है। यहां उगाई काली मिर्च की क्वालिटी ने तो काली मिर्च के बाजार में तहलका मचा दिया है।
अब सवाल उठ सकता है कि काली मिर्च की खेती तो भारत में केवल केरल तथा उसके आसपास के इलाके में ही सदियों से हो रही है, इसके अलावा अन्य क्षेत्रों में इसी खेती अब तक सफल नहीं हो पाई थी । फिर काली मिर्च की सफल खेती बस्तर जैसे पिछड़े अंचल में? वह भी आदिवासी किसानों के द्वारा? पहली बार सुनने में या बात भले हजम नहीं होती, लेकिन यह एक चमकदार हकीकत है।
और इसे सफल कर दिखाया है बस्तर में पिछले पच्चीस वर्षों से जैविक तथा औषधीय कृषि कार्य में लगी संस्था मां दंतेश्वरी हर्बल समूह ने। सोने पर सुहागा यह कि ,प्रयोगशाला परीक्षणों से अब यह सिद्ध हो गया है , कि बस्तर की इस काली मिर्च के औषधीय तत्व पिपराइजिन लगभग 16% ज्यादा पाया जा रहा है। और इस कार्य का जिस व्यक्ति ने बीड़ा उठाया और इसे इस मुकाम तक पहुंचाया उनका नाम है डॉ राजाराम त्रिपाठी।
बस्तर के बेहद पिछड़े आदिवासी वन गांव में पैदा हुए, पले बढ़े तथा बैंक अधिकारी की उच्च पद से त्यागपत्र देकर, पिछले बीस वर्षों से काली मिर्च की इस नई प्रजाति की खोज में लगे डॉ त्रिपाठी ने अंततः नई प्रजाति एमडीबी16 के विकास के जरिए यह सिद्ध कर दिखाया, कि केरल ही नहीं बल्कि भारत के शेष भागों में भी उचित देखभाल से इस विशेष प्रजाति की काली मिर्च की सफल और उच्च लाभदायक खेती की जा सकती है।
गांव जड़कोंगा ,कांटागांव विकासखंड माकड़ी जिला कोंडागांव बस्तर की राजकुमारी मरकाम जड़कोंगा, रमेश साहू पलना,साधूराम माकड़ी, संतुराम जड़कोंगा, मरकाम,तथा उनका पूरा समूह तथा सहित कई आदिवासी किसान सदस्य, मां दंतेश्वरी हर्बल समूह से लगभग दस वर्षों पूर्व जुड़े थे, उन्हें जोड़ने में तत्कालीन जनपद अध्यक्ष व समाजसेवी जानो बाई मरकाम तथा अंचल की वरिष्ठ समाजसेवी रमेश साहूजी की भी प्रमुख भूमिका रही है।
जैविक खेती तथा हर्बल खेती की ओर अग्रसर इन किसानों ने काली मिर्च के पौधे भी अपने घर की बाड़ी में लगे साल अर्थात सरई के पेड़ों पर लगाए थे। राजकुमारी मरकाम बताती हैं कि उन्होंने 25 पौधे काली मिर्च के लगाए थे, किंतु सिंचाई की सुविधा ना होने के कारण कुछ पौधे पौधे मर गए, फिर भी वर्तमान में 16 पौधे बचे हैं। जिनमें पिछले चार वर्षों से काली मिर्च के फल आ रहे हैं ।इन 16 काली मिर्च के पौधों से उन्हें कुल 20 किलो काली मिर्च प्राप्त हुई है। पिछले साल उन्हें 16 किलो का काली मिर्च प्राप्त हुई थी आज उन्होंने कोंडागांव आकर ₹500 प्रति किलो की दर से विक्रय किया है। पूरा भुगतान उन्हें तत्काल नगद प्राप्त हो गया है।
मां दंतेश्वरी हर्बल समूह के निदेशक अनुराग कुमार ने बताया कि स्पाइस बोर्ड ऑफ इंडिया के द्वारा तय की गई आज की तारीख पर काली मिर्च का थोक मूल्य ₹ 300-350 किलो दर्शाया गया है जबकि मा दंतेश्वरी हर्बल समूह की ओर से नवाचारी किसानों को प्रोत्साहन हेतु ₹500 प्रति किलो की दर से तत्काल भुगतान करवाया गया। इतना ही नहीं, आगे यदि इस काली मिर्च का निर्यात संभव हुआ और उसमें यदि और अधिक मूल्य प्राप्त होता है ,तो वह लाभ भी इन साथी किसानों को वितरित किया जावेगा।
अट्ठाइस अगस्त को मां दंतेश्वरी हर्बल इस्टेट परिसर में आयोजित एक सादे गरिमामय समारोह में सफल नवाचारी किसानों का स्वागत सम्मान किया गया । इस अवसर पर समाजसेवी जानो मरकाम, पत्रकार संघ के प्रांतीय सचिव जमील खान ,मां दंतेश्वरी हर्बल समूह के निदेशक अनुराग त्रिपाठी, श्री शंकर नाग , कृष्णा नेताम, संपदा समाजसेवी समूह के अध्यक्ष जयमति नेताम आदि सम्मिलित रहे
बड़ी बात यह है कि इस काली मिर्च (एमडीबी सोलह) की बेलें किसान की घर की बाड़ी में पहले से ही उगे साल के पेड़ों पर चढ़ाई गई हैं, और बस्तर में साल की पेड़ों की बहुतायत है। यहां तक की बस्तर को साल वनों का द्वीप भी कहा जाता है। इस संदर्भ में आगे की संभावनाओं के बारे में पूछे जाने पर डॉक्टर त्रिपाठी ने कहा कि यह योजना बस्तर ही नहीं, बल्कि पूरे छत्तीसगढ़ के किसानों की तस्वीर और तकदीर बदल सकती है ,किंतु इसके लिए समुचित कार्य योजना तथा उसके क्रियान्वयन में भ्रष्टाचार पर रोक लगाना बहुत जरूरी है। उन्होंने बताया कि इससे पहले भी कुछ सरकारी विभागों ने काली मिर्च रोपण के कुछ अपरिपक्व प्रयास किए थे किंतु, उसमें योजना की शुरुआत में ही इतना ज्यादा भ्रष्टाचार हुआ कि इस महत्वपूर्ण योजना की भ्रूण हत्या हो गई।
उल्लेखनीय है कि हाल में ही परंपरागत बायोफोर्टीफाइड राइस यानी पोषक तत्वों से भरपूर काले चावल की खेती में भी यह मां दंतेश्वरी हर्बल समूह के किसान बढ़-चढ़कर भाग ले रहे हैं। इस कार्यक्रम में आदिवासी किसानों को "मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म तथा रिसर्च सेंटर" की ओर से अश्वगंधा के जैविक बीज भी कृषि हेतु वितरित किए गए, ।