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ताबड़तोड़ कृषि सुधार अधिनियमों से देश का किसान भयभीत!
*बगैर किसान संगठनों की सलाह से आपाधापी में तैयार किया गया अध्यादेश*
*अध्यादेश के सहलाकार बने औद्योगिक व व्यावसायिक संगठन*
*अध्यादेश में उल्लेखित सुधार किसानों के बजाय कारपोरेट के पक्ष में*
*पूरे अध्यादेश में हर्बल फार्मिंग का नहीं है कोई जिक्र*
*कोविड19 की वजह से किसानों को चाहिए तात्कालिक राहत*
*अध्यादेश में किसानों के लिए नहीं है कोई तात्कालिक राहत*
*तीन अध्यादेशः-*
1. मूल्य आश्वासन व कृषि सेवाओं के करारों के लिए किसानों का सशक्तिकरण और संरक्षण अध्यादेश- 2020
2. कृषि उत्पाद व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश, 2020
3. आवश्यक वस्तु अधिनियम (संशोधन )अध्यादेश 2020 '
कोविड 19 महामारी की वजह से देश की पूरी अर्थव्यवस्था जिस प्रकार ठप हुई उससे उबरने के लिए सरकार ताबड़तोड़ फैसले कर रही है. कुछ फैसले निश्चित तौर पर स्वागत योग्य हैं तो कुछ फैसले बिल्कुल व्यवहारिक नहीं है. अभी हाल ही में तीन जून को केंद्र सरकार ने कृषि सुधार के नाम पर तीन अध्यादेश पारित किये और इसे तत्काल प्रभाव से लागू भी कर दिया. *अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा)* किसानों की बेहतरी के लिए उठाए गए हर कदम का सकारात्मकता रूप से स्वागत करती है किंतु ये तीनों अध्यादेश जो कि कृषि में सुधार के लिए किये जाने का दावा करते हुए पारित किया गया, यह एक प्रकार से किसानों के हितों के प्रतिकूल है और इससे कृषि तथा खाद्यान्न बाजार पर कारपोरेट का एकाधिकार हो जाएगा. यह बात अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा) के राष्ट्रीय संयोजक डॉ राजाराम त्रिपाठी ने इन अध्यादेशों पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कही.
डॉ त्रिपाठी ने कहा कि किसानों की भलाई के नाम पर कृषि में उपयोग में आने वाली 27 रासायनिक दवाइयों पर प्रतिबंधित लगाने तथा विद्युत सुधार अधिनियम 2020 भी लागू हो रहे हैं. महत्वपूर्ण बात है कि किसी अपरिहार्य परिस्थिति में ही अध्यादेश लाए जाने की परंपरा रही है. इन भविष्योन्मुखी दूरगामी सुधारों का दावा करने वाले सुधार अधिनियमों को् किसान संगठनों से बिना कोई राय मशवरा किए आपाधापी में पारित किया गया. यह गतिविधि एक प्रकार से किसानों के दिलों में सरकार की नीयत के प्रति शंका पैदा करता है. अगर आप तीनों अध्यादेशों के प्रावधानों पर नजर दौड़ाएं तो कई ऐसी चीजें है जो किसानों के हित में नहीं है, फिर यह कृषि में सुधार करने वाला अध्यादेश कैसे हो सकता है. इन्हीं में से एक मुद्दा है कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का. आईफा ने पहले भी सरकार को सुझाव दिया था कि हमें यह अनुभवसिद्ध मान्यता नहीं भूलना चाहिए कि अनुबंध कैसे भी हों पर अंततः वे सशक्त पक्ष के हितों की ही रक्षा करते हैं और इधर हमारे किसान हों या किसान समूह ,हर लिहाज से ये अभी भी बहुत कमजोर हैं. अनुबंध खेती में इनके हितों की तात्कालिक तथा दीर्घकालिक सुरक्षा को सुनिश्चित किया जाना पहली शर्त होनी चाहिए थी.
देश के व्यापार, उद्योग, आयात, निर्यात आदि से संबंधित सुधार अथवा नियम बनाने के पूर्व उनके संगठनों यथा फिक्की, सीआईआई आदि से विधिवत राय मशविरा किया जाता रहा है. हालांकि खेती को कभी भी उद्योग तथा व्यापार के समकक्ष ने तवज्जों दिया गया और ना ही सम्मान दिया. फिर भी, इससे पहले देश में खेती किसानी से संबंधित नियम बनाए जाने के पहले देश के किसान संगठनों से भले दिखावे के लिए ही सही पर राय मशविरा किया जाता था, किसानों से रायशुमारी की जाती थी, तथा उन्हें अपनी राय, सुझाव रखने का पर्याप्त अवसर दिया जाता रहा है. लेकिन इस बार उपरोक्त पांचों सुधारों के लागू करने के पूर्व सरकार ने देश के किसान संगठनों से ना तो कोई राय मशविरा किया ना ही कोई सलाह ली.
डॉ त्रिपाठी ने कहा कि आश्चर्यजनक रूप से खेती किसानी से संबंधित इन सुधारों को लागू करने के पूर्व सरकार ने किसान संगठनों के बजाय उन व्यापारिक संगठनों से इन अधिनियमों को लेकर राय मशविरा किया है, जिनका खेती या कृषि से कोई लेना-देना नहीं है. इसलिए आज ज्यादातर किसान संगठन इन सुधारों के बारे में यही समझ पा रहे हैं कि यह सुधार तथा अधिनियम दरअसल पूरी तरह से कारपोरेट के पक्ष में हीं गढ़े गए हैं, तथा सरकार देश की खाद्यान्नों के बाजार पर कारपोरेट का एकाधिकार देने जा रही है.
आज ज्यादातर समाचार माध्यमों तथा मीडिया में भी इन अधिनियमों के बचाव तथा उनके फायदे को गिनाने के लिए इन कारपोरेट्स के प्रतिनिधि ही अपने तर्क-कुतर्क गढ़ रहे हैं. जिस तरह से देश के कारपोरेट जगत की पैरोकार संगठनों के दिलों में देश की खेती और किसानों के प्रति प्रबल प्रेम हिलोरे मार रहा है, उसे देख कर तो यही लगता है कि, शायद अब यह ज्यादा बेहतर होगा कि, यह सीआईआई तथा फिक्की जैसे संगठन अपने नाम को विधिवत परिवर्तित करके "चेंबर ऑफ कॉमर्स" के बजाय "चेंबर साफ फॉर्मर्स" कर लें.
इन अध्यादेशों के नियमों पर गहरायी से गौर करें तो इनमें से कोई ऐसा नियम नहीं है तो तात्कालिक कृषि अवसाद को खत्म करने का माद्दा रखता हो. भविष्य चाहे जितना सुनहरा दिखाया गया हो लेकिन वर्तमान के लिए कुछ भी नहीं है. नारे बेशक लुभावनें होते हैं औऱ *अब किसान अपना उत्पाद पूरे देश में बेच सकेंगे* जैसा नारा प्रचारित किया जा रहा है ताकि किसानों को खुश किया जाए, लेकिन यह नारा धरातल नहीं उतरने वाला कारण कि समस्या अगल ढंग की है और यह नारा उसका समाधान नहीं है. देश के छोटे व मंझोले साधनहीन किसान यह भली-भांति जानते-समझते हैं कि अपने खेतों के उत्पादन को पास के तहसील अथवा जिला की मंडी अथवा बाजार तक ले जाने और वहां बेचने तथा उसका भुगतान प्राप्त करने में ही उन्हें कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, फिर देश के कोने कोने तक अपने कृषि उत्पादन को भेजना, बेचना और भुगतान वसूली उनके सामर्थ्य से परे है.
तो किसान हित का डंका बजा रहे अधिनियमों का असली फायदा तो साधन-संपन्न सशक्त कारपोरेट की उठा पाएंगे.
इसी भांति आवश्यक वस्तु भंडारण अधिनियम सुधार के बारे में विचार करें. देश के किसानों को भला इससे क्या लाभ मिलने वाला है. किसान का उत्पादन जैसे ही खलिहान में आकर तैयार होता है किसान उसे जल्द से जल्द मंडी में ले जाकर बेच कर अपने पैसे खड़े करना चाहता है ताकि वह अपनी पिछले सीजन की खाद, बीज ,दवाई की दुकानदारों की उधारी अथवा बैंकों का कर्ज़ चुका सके तथा बचे खुचे पैसे से घर परिवार के आवश्यक खर्चे, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई आदि को पूर्ण कर सके . हमारा किसान अपनी अनाज भंडारण करके अच्छा बाजार भाव आने का इंतजार में समर्थ नहीं है. तो निसंदेह यह अधिनियम देश के बड़े व्यापारी, बड़े आढ़तिए तथा कारपोरेट कंपनियों को ही मिल पाएगा.
जिस तरह सरकार ने बीस लाख करोड़ के महा पैकेज में से किसानों की भलाई के लिए दर्जनों घोषणाएं की गई लेकिन तात्कालिक राहत के नाम पर ठेंगा दिखा दिया,और अब जिस गति से किसानों की भलाई, बेहतरी और सुधार के नाम पर जिस गति से सरकार ताबड़तोड़ नए-नए नियम तथा अध्यादेश ला रही है, उसे देख कर सारे किसान संगठन तथा किसान समुदाय स्तब्ध है. वक्त आ गया है कि सारे किसान संगठन तथा सारे किसान एकजुट होकर हाथ जोड़कर सरकार से अपील करें कि अगर सरकार वास्तव में उनका भला नहीं कर सकती तो उन्हें उनके हाल पर ही छोड़ दे. सिर्फ कागजी योजनाएं ना बनाएं और ना ही इस तरह के आत्मघाती अधिनियम बनाकर किसानों हाथ पैर बांधकर कारपोरेट के सामने परोसने की कोशिश करें.
डॉ त्रिपाठी ने कहा कि यह कम हास्यास्पद नहीं है कि आर्थिक महापैकेज की घोषणा के समय सरकार ने देश में हर्बल फार्मिंग के प्रोत्साहन देने संबंधी बड़ी घोषणाएं की तो लगा कि अब देश हर्बल फार्मिंग के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनेगा तथा वैशअविक बाजार में चीन के अधिपत्य को खत्म कर भारतीय हर्बल किसान अपना परचम लहरायेंगे लेकिन इन सभी अध्यादेशों में हर्बल फार्मिंग को लेकर कहीं कोई चर्चा नहीं की गई है. जबकि हर्बल खेती के विदेशी व्यापार, निर्यात की प्रबल भावी संभावनाओं को देखते हुए इसकी खेती, इसकी जैविक प्रमाणीकरण की प्रक्रिया तथा उसकी फीस, प्रसंस्करण, व भंडारण तथा निर्यात आदि के लिए विशेष प्रावधान रखना जरूरी था.
डॉ. राजाराम त्रिपाठी राष्ट्रीय संयोजक अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा)