छत्तीसगढ़

पांच राज्यों के चुनाव में पहली बार केंद्रीय भूमिका में है किसान तथा पार्टियों के घोषणा पत्र

पांच राज्यों के चुनाव में पहली बार केंद्रीय भूमिका में है किसान तथा पार्टियों के घोषणा पत्र
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2024 के चुनाव में  कौन सा मुख लेकर देश के किसानों, बेरोजगारों और आम जनता के पास जाएंगे, मोदी जी तथा भाजपा के सामने सीना ताने खड़ा यह वो यक्ष प्रश्न हैं, जिसका कोई संतोषजनक जवाब फिलहाल इनके पास नही है।

नवंबर की सर्दी में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलगाना प्रदेश तथा मिजोरम सहित पांच राज्यों के चुनाव होने हैं। इधर जैसे-जैसे ठंड बढ़ रही है वैसे-वैसे इन राज्यों की हवाओं में राजनीति की गर्मी बढ़ते जा रही है।

यूं तो लोकतांत्रिक देश भारत में आए दिन सहकारी समितियां से लेकर सिंचाई समितियां तक नाना प्रकार की समितियों के चुनाव, ग्राम पंचायत,जनपद,जिला जनपद ,नगर पालिका,निगम चुनाव, विधानसभा, राज्य सभा लोकसभा के चुनाव, उपचुनाव होते ही रहते हैं। पर कई मायनों में इस बार हो रहे इन पांच राज्यों के चुनाव कुछ अलग हटकर हैं।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि इन पांचो राज्यों के चुनावों में पहली बार "किसान" केंद्रीय प्रमुख भूमिका में है। इन सभी चुनावों में प्रदेश के किसानों के जरूरी मुद्दों के अलावा प्रमुख राष्ट्रीय व क्षेत्रीय पार्टियों घोषणा पत्रों का महत्व भी बढ़ा है। जबकि इससे पहले जिस जनता के लिए यह घोषणा पत्र तैयार किए जाते थे वह जनता स्वयं ही इन घोषणा-पत्रों को गंभीरता से नहीं लेती थी,और स्थानीय मुद्दों, उम्मीदवार की छवि,जाति, धर्म अथवा अन्यान्य मापदंडों के आधार पर वोट देने हेतु अपने प्रत्याशी का चयन करती थी। और चूंकि यदि जनता ही पार्टियों के घोषणा पत्रों तथा जीतने के बाद घोषणा पत्र में किए गए वादों के बिंदुवार क्रियान्वयन के आधार पर अगले चुनावों में वोट नहीं डालती तो फिर भला राजनीतिक पार्टियां अपने घोषणा पत्रों को गंभीरता से लकर उन पर बिंदुवार अमल क्यों करेंगी। इसीलिए चुनाव जीतने के बाद प्रायः घोषणा पत्र को डस्टबिन के हवाले कर देती थीं, और उनसे कोई सवाल भी नहीं पूछता था। कुल मिलाकर 'घोषणा-पत्र' का मतलब ही हो गया वो थोथी घोषणाएं जो केवल जन-रुचि हेतु घोषित की जाएं, पर जिनका अमल करना जरूरी नहीं।

जनता में शिक्षा तथा जागरूकता की कमी, धर्म ,जातियों उपजातियों में सामाजिक विभाजन तथा तदनुसार वोटों ध्रुवीकरण व विभाजन आदि इसके प्रमुख कारक रहे हैं। कारक चाहे जो भी रहे हों पर इससे भारत का लोकतंत्र शनै-शनै कमजोर ही हुआ है।

किंतु वर्तमान चुनाव में 'घोषणा-पत्र' महत्वपूर्ण व निर्णायक मुद्दा बनकर उभरा है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि केंद्र की सत्ता में काबिज तथा विश्व की सबसे बड़ी पार्टी कहलाने वाली भाजपा ने आज पर्यंत,जबकि चुनाव होने में केवल एक हफ्ता ही शेष है किन्तु अभी तक अपने घोषणा-पत्र जारी नहीं किये हैं, और यह जानबूझकर रणनीतिक कारणों से है। कांग्रेस की ब्रह्मास्त्र रूपी 'चुनावी-गारंटीयों' को पर्याप्त टक्कर देने के लिए भाजपा में भारी माथापच्ची तथा विचार विमर्श जारी है, यही कारण है कि इनका घोषणा पत्र अथवा संकल्प पत्र अभी तक जारी नहीं हुआ है।

घोषणा-पत्रों पर अमल करने के मामले में सबसे पहले ठोस उदाहरण ,15 सालों के राजनीतिक वनवास के बाद किसानों के वोटो की दम पर सत्ता में दमदार तरीके से वापस लौटी छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार ने प्रस्तुत किया। छत्तीसगढ़ में लगभग 80% वोटर किसान परिवारों से है और इनमें भी ज्यादातर किसान धान की खेती करते हैं। 15 साल तक सत्ता में रही भाजपा ने बढ़ती लागत से परेशान इन धान के किसानों को प्रति कुंटल धान पर 270 रुपए के बोनस देने की घोषणा की, लेकिन सत्ता में आने के बाद एकदम से मुकर गई। किसानों ने सरकार को उनके वादे की लगातार याद दिलाई और घोषित बोनस देने की मांग की, पर सरकार ने इन बेचारे रिरियाते किसानों की ओर दोबारा मुड़कर भी नहीं देखा। इसी क्रम में छग राज्य सरकार ने औषधीय पौधों के किसानों को केंद्र के अनुदान के अलावा 25 प्रतिशत अनुदान की घोषणा की पर 15 सालों के शासन में एक भी किसान को ,जी हां एक भी किसान को यह अनुदान नहीं दिया गया। अलग-अलग राजनीतिक तिकड़मों के जरिए भाजपा की सरकार बनती रही, किसान मन मसोस कर बैठे रहे और खून के आंसू रोते रहे। पिछले चुनाव में जब कर्ज माफी तथा₹2500 पर धान खरीदने के वादे को घोषणा पत्र में शामिल कर छत्तीसगढ़ कांग्रेस पार्टी किसानों के पास गई तो पहले पहल किसानों ने इनकी घोषणाओं पर भरोसा नहीं किया। अंततः कांग्रेस को गांव-गांव जाकर कर्ज-माफी एवं ₹2500 सौ प्रति कुंतल धान खरीदी करने की गंगाजल लेकर शपथ लेनी पड़ी। अंततः किसानों ने कांग्रेस की शपथ पर भरोसा किया और 90 सीट में 68 सीट देकर बंपर जीत दिलाई।

अब बारी कांग्रेस की थी। कांग्रेस ने भी सत्ता में वापसी व ताजपोशी के 2 घंटे के भीतर ही किसानों कर्ज माफी के वादे को पूरा करने का प्रयास किया। घोषणाओं के क्रियान्वयन की छुटपुट खामियों तथा शराबबंदी को तकनीकी रूप से ना कर पाने के अलावा कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र के सभी घोषणाओं को पूरा करने में पूरा जोर लगाया।

कुछ महीनों पहले हुए हिमाचल प्रदेश के चुनाव में भाजपा की नई पेंशन योजना से असंतुष्ट 2 लाख से ज्यादा कर्मचारी परिवारों के लिए ओल्ड पेंशन एक बड़ा व संवेदनशील मुद्दा था। कांग्रेस ने इस इस मुद्दे के महत्व को समझते हुए इसे अपने घोषणा पत्र में शामिल किया और जीतने पर पुरानी पेंशन योजना लागू करने का वादा किया।चुनाव में जीतने के बाद इस पर तत्काल अमल भी किया। इससे सरकारी कर्मचारियों में और जनता में भी कांग्रेस की विश्वसनीय कुछ और बढ़ी।

छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रदेश के चुनावी में घोषणा पत्रो पर अमल के बाद कांग्रेस ने कर्नाटक चुनावों में अपने घोषणा-पत्र में जरूरी जमीनी मुद्दों को शामिल घोषणा-पत्र के दम पर न केवल बाजी मारी बल्कि कर्नाटक की सत्ता पर बैठते ही, उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अपने घोषणा-पत्र का बिंदुवार क्रियान्वयन करने का प्रयास किया। सोशल-मीडिया के बूते इसे पड़ोसी प्रदेशों तथा देश के वोटरों ने भी देखा भी और समझा भी।

राजनैतिक पार्टियों के ढपोरशंखी घोषणाओं व थोथे घोषणा-पत्रों के प्रति जनता के बढ़ते अविश्वास, उदासीनता व बेजारी को देखते हुए ही अब इसे घोषणा-पत्र के बजाय 'संकल्प-पत्र' और 'गारंटी-पत्र' आदि ज्यादा विश्वसनीय नाम दिए जा रहे हैं।

कांग्रेस को भी यह सद्बुद्धि रातों-रात नहीं आई। केंद्र तथा राज्यों में जब कांग्रेस की लुटिया पूरी तरह डूबने लगी तो तब उन्हें किसानों के वोटों और घोषणा-पत्रों का महत्व समझ में आया‌। उन्होंने किसानों की समस्याओं तथा अन्य वर्गों की जरूरत का ध्यान रखते हुए व्यावहारिक घोषणा-पत्र बनाए और उस पर इमानदारी से अमल करने की कवायद शुरू की ; फलत: कांग्रेस का बढ़ता हुआ ग्राफ सामने है। कांग्रेस के कायाकल्प में राहुल गांधी की भूमिका का अगर जिक्र ना हो तो नाइंसाफी होगी। भारत जोड़ो की 3500 किलोमीटर की यात्रा में पग पग पर जनता के हर वर्ग के साथ जुड़ने की प्रक्रिया में उनके व्यक्तित्व के कई सकारात्मक पहलू देश की जनता ने देखे, राहुल गांधी को लेकर गाड़े गए कई नकारात्मक मिथक टूटे और कई नए बने। राहुल गांधी के लिए यह कायाकल्प की अंतर्यात्रा साबित हुई वहीं कांग्रेस के लिए भी यह यात्रा एक नई संजीवनी बूटी साबित हुई।

अब अगर भाजपा की बात करें तो कांग्रेस पर लगातार लग रहे घोटालों तथा भ्रष्टाचार के आरोपों और बदइंतजामी के चलते जनता ने 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदीजी तथा भाजपा पर यकीन कर उन्हें एक मौका दिया और केंद्र की सत्ता पर बिठाया।

2019 के चुनाव में नरेंद्र मोदीजी व भाजपा ने किसानों की आमदनी दुगनी करने,100 स्मार्ट सिटी बनाने, प्रतिवर्ष दो करोड़ युवाओं को रोजगार देने जैसे बड़े-बड़े वादे किए, बुलेट ट्रेन चलाने, गंगा की समग्र सफाई तथा उसे पर नौ-परिवहन स्थापित करने जैसे कितने ही सुनहरे सपने दिखाए। वो वादे और इरादे एवं घनगर्जन के साथ की गई ढपोरशंखी घोषणाएं आज केवल जनता को ही नहीं बल्कि स्वयं भाजपा को भी मुंह चिढ़ा रही हैं। वैसे देश के किसानों द्वारा लंबे समय से मांगी जा रही, उनके सभी फसलों के लिए एक सक्षम “न्यूनतम समर्थन मूल्य- गारंटी कानून” ( एमएसपी गारंटी-कानून) जल्द से जल्द लाकर देश के किसानों की नाराजगी कुछ हद तक कम की जा सकती है। देश के किसानों, किसान संगठनों, युवाओं से सीधी जमीनी चर्चा करके इनकी समस्याओं के दीर्घकालिक हल भी ढूंढे जा सकते हैं। किंतु आगामी 2024 के चुनाव में कौन सा मुख लेकर देश के किसानों, बेरोजगारों और आम जनता के पास जाएंगे, मोदी जी तथा भाजपा के सामने सीना ताने खड़ा यह वो यक्ष प्रश्न हैं, जिसका कोई संतोषजनक जवाब फिलहाल इनके पास नही है।

डॉ राजाराम त्रिपाठी

राष्ट्रीय संयोजक अखिल भारतीय किसान महासंघ, तथा

राष्ट्रीय प्रवक्ता: "न्यूनतम समर्थन मूल्य गारंटी-कानून" मोर्चा ।

डॉ राजाराम त्रिपाठी

डॉ राजाराम त्रिपाठी

National Convenor:AIFA Alliance of Indian Farmers Associations & Founder MDHP

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