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VIDEO : बस्तर के बेचारे लोहार, हुए संवैधानिक हथौड़े के शिकार, पुरस्कार प्राप्त लौह शिल्पी तीजू राम बघेल ने सुनाई व्यथा
लोहार बस्तर की सबसे महत्वपूर्ण जनजाति रही है। सदियों से लोहार बस्तर के आदिवासी गांव में आदिवासियों के साथ मिलजुल कर जीवनयापन करते रहे हैं। ट्राईबल रिसर्च एंड वेलफेयर फाउंडेशन की ओर से हमने लौह कला शिल्पी तीजूराम बघेल से इस संदर्भ में विस्तार से चर्चा की। बस्तर के लुहार समुदाय से ही तीजूराम बघेल आते हैं। टीकू राम बघेल लोसल के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं। बस्तर की लौ शिल्प कला को लेकर या विश्व के कई देश हूं की यात्रा कर चुके हैं और बस्तर की लौह कला के जरिए विदेशों में भी देश का नाम ऊंचा किया है। इनका कहना है कि बस्तर के लोहारों के साथ आजादी के बाद बहुत बड़ा अन्याय हुआ है। वे कहते हैं कि हम सदियों से आदिवासी समुदाय की रहे हैं और पहले इन्हें भी आदिवासी ही माना जाता था। लेकिन आजादी के बाद वोट की राजनीति के चलते इस अल्पसंख्यक समुदाय के साथ घोर नाइंसाफी हुई।
बस्तर के लोहार समुदाय की आदिवासी होने के पक्ष में तर्क देते हुए वह कहते हैं कि, बस्तर के लोहार जाति के कुल गोत्र बस्तर की प्राचीन जनजातीय समुदायों की भांति ही हैं। इनके जन्म से लेकर विवाह तीज त्यौहार नृत्य उत्सव तथा मृत्यु की सारी रस्में स्थानी आदिवासी समुदायों की तरह ही हैं। आजादी के पूर्व बस्तर के गांव में रहने वाले लोहारों को अन्य आदिवासी समुदाय की भांति ही जनजाति समुदाय ही माना जाता रहा है। आजादी के बाद बिना समुचित सर्वे के देश के अन्य भागों के लोहारों की भांति ही इनको भी पिछड़े वर्ग में शामिल कर लिया गया जिसके कारण अति पिछड़े क्षेत्र बस्तर के गांव में सदियों सदियों से बसे ये सारे के सारे लोहार परिवार हाशिए पर आ गए। पिछड़े दुर्गम जंगली गांव में रहने वाली यह बस्तर की मूल निवासी जनजाति आदिवासियों को मिलने वाले सारी सुख सुविधाओं तथा आरक्षण के अति आवश्यक सहारे से महरूम हो गई। 2016 में बिहार में गलती को सुधारते हुए लोहारों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया था। किंतु दुर्भाग्य ने अभी भी उनका पीछा नहीं छोड़ा है, विगत 21 फरवरी 2022 को लोहारों को अनुसूचित जनजाति वर्ग से निकाल बाहर करते हुए पूरा पिछड़े वर्ग में शामिल कर दिया गया।
बस्तर के लोहारों का यदि निष्पक्ष स्वतंत्र आर्थिक सामाजिक सर्वेक्षण किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा की आजादी के बाद की 70 सालों से इनके साथ लगातार जारी संवैधानिक पक्षपात के कारण यह जनजातीय समुदाय आज अंचल का सबसे ज्यादा वंचित, गरीब और सर्वहारा हो गया है। क्योंकि यह समुदाय हमेशा ही गांव के किसानों और अन्य सभी वर्गों की हर प्रकार से सेवा में पूरे साल भर लगा रहता था, और गांव के किसानों के द्वारा अनाजों के रूप में सालाना मजदूरी के भरोसे जिंदा रहता था। इसलिए यह समुदाय खेती के कार्य से हमेशा दूर रहा है। इस समुदाय के पास खेती योग्य भूमि भी नहीं है। वर्तमान नई तकनीक से कारखानों में तैयार सस्ते लोहे के औजारों ने उनका पुश्तैनी धंधा पूरी तरह से ठप्प कर दिया है। एक समय अपनी लौहकला शिल्प कला, इंजीनियरिंग तथा बहु उपयोगी परंपरागत सस्ती तकनीकों के जरिए पूरे विश्व में अपना लोहा मनवाने वाला लोहार संप्रदाय समुदाय आज केवल मजदूरी करने को मजबूर है ज्यादातर परिवार भुखमरी के शिकार हैं।
आगे पढ़ने से पहले आप पूरा इंटरव्यू देखिये-
बस्तर की आदिवासी गांवों में लोहार समुदाय जनजातियों के जन्म से लेकर मृत्यु तक हर कार्य,हर उत्सव में हर सामाजिक आर्थिक कार्यो में शामिल होता है। नवजात शिशु के जन्मते ही सर्वप्रथम शिशु की गर्भनाल को काटने के लिए तीर अथवा पैनी छुरी का प्रयोग किया जाता है जो विशेष रूप से लोहारों की परिवार की बुजुर्ग महिला के द्वारा संपन्न होता है। पूरे जीवन भर आदिवासी ग्राम्य देवी,देवताओं की पूजा आराधना हेतु नगाड़े ,मृदंग छोटा नगाड़ा जिसे तुड़बुड़ी कहा जाता है , शहनाई नुमा मोहरी बाजा आदि सभी का निर्माण लोहार वर्ग ही करता आया है। जनजातीय समुदाय के देवी देवताओं के आभूषण , देवताओं की विशिष्ट पहचान वाले झंडे , छत्र ,उनके हाथों को में धारण करने वाले तरह तरह के अस्त्र-शस्त्र आदि का निर्माण इनके द्वारा ही किया जाता रहा है। इसके अतिरिक्त हर गांव में स्थित ग्राम देवी के मंदिर, जिसे देवगुड़ी कहा जाता है वहां पर देवताओं के बैठने के लिए कांटेदार कुर्सी झूलने के लिए कांटेदार झूला देवताओं के द्वारा स्वयं को सच्चा तथा शक्तिशाली साबित करने हेतु, लोहे की कांटेदार चाबुक से खुद पर ही वार करने हेतु कांटेदार सांकल का निर्माण भी इनके द्वारा ही किया जाता रहा है।
बस्तर के आदिवासी गांवों में कोई भी जनजातीय सामाजिक रीति रिवाजों के कार्य, सभी उत्सव , समस्त कृषि कार्य तथा सभी तरह के त्यौहार बिना लोहार समुदाय के संपन्न नहीं हो सकता । हालांकि हाल के दिनों में आधुनिकता के दौर में धीरे-धीरे यह रस्में कमजोर पड़ रही हैं, पर बस्तर के अंदरूनी गांवों में आज भी इन रीति रिवाजों का कड़ाई से पालन किया जाता है। बस्तर के ये लोहार जबरदस्त आक्रामक उपद्रवी देवों को अपनी "झाबा खूटी" यानी कि एकमुश्त चार खूंटियों से कीलित कर पूरे गांव की रक्षा तो कर लेते हैं, पर ये बेचारे अपने समुदाय को वोट की राजनीति के चलते अपने साथ हुए संवैधानिक पक्षपात से नहीं बचा पाए, और हासिए में चले गए हैं और रसातल को जा रहे हैं। यही हाल रहा तो धीरे-धीरे यह समुदाय ही विलुप्त हो जाएगा, और इसके साथ ही विलुप्त हो जाएंगी वह हजारों तरह-तरह की अनमोल परंपरागत तकनीकें और पूरे विश्व को चमत्कृत करने वाली वो अनूठी लौहशिल्प कला, जो कभी बस्तर ही नहीं पूरे देश के समृद्ध संस्कृति और प्रचीन कला की पहचान मानी जाती थी। अब वक्त आ गया है कि सरकार जल्द से जल्द अपनी गलती सुधारते हुए, इस समुदाय के साथ हुए अन्याय को समाप्त करते हुए उन्हें अनुसूचित जनजाति का पहले का दर्जा बहाल करें और इस समुदाय को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने की पुरजोर कोशिश की जाए।