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बीते दो महीने राजधानियों में सरकारी मेलों की भी भरमार रही। हमें सरकारी विभागों की मजबूरी भी समझना होगा। वित्तीय वर्ष के अंतिम महीने सरकारी विभागों को खर्च करने से बच गए फंड को लेप्स होने से बचाने की जुगत में राजधानियों में सेमिनार, वर्कशॉप, प्रदर्शनी और व्यापार मेले के जरिए फंड को फूंक-ताप कर आनन फानन ठिकाने लगाना होता है। किसी का कुछ भला हो या ना हो पर रौनक तो होती ही है, आखिर आतिशबाज़ी से भी क्या हासिल होता है?
साहित्यिक जगत के लिए अच्छी खबर यह है कि इन दिनों पुस्तक मेलों की भी बाढ़ आई हुई है। राज्यों की राजधानियों में पुस्तक मेले कहीं उजड़ रहे हैं, तो कहीं लग रहे हैं। प्रकाशक एक पुस्तक मेला खत्म हुआ नहीं कि अपना बोरिया बिस्तर बांध वहीं से अगले पुस्तक मेले को कूच कर रहे हैं। इधर एक प्रदेश की राजधानी रायपुर का पुस्तक मेला खत्म हुआ तो देश की राजधानी दिल्ली का "विश्व पुस्तक मेला" शुरू। दिल्ली का 'विश्व पुस्तक मेला' खत्म हुआ तो मुंबई का 'किताब उत्सव' शुरू। मीडिया के भोंपू कहते हैं कि दिल्ली का विश्व पुस्तक मेला 'भूतो ना भविष्यति' तरीके से शानदार रहा,जिसमें 40 से ज्यादा देशों ने भाग लिया। पर इन विघ्नसंतोषी चिर-आलोचक प्रवृत्ति के लोगों का क्या कीजिएगा जो प्रगति मैदान के मीडिया सेंटर में घुसकर पूरी लिस्ट ही निकाल लाए और पूरी खोजबीन करके दावा ही ठोक दिया, कि विश्व के 196 देशों में से दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में तो केवल 16 देशों ने ही शिरकत की । फिर यह कैसे और काहे का विश्व पुस्तक मेला ? लाहौल विला कूबत !! जिस पुस्तक मेले में प्रति मिनट तीन-तीन किताबों के विमोचन-लोकार्पण की दर से दस हजार नई किताबों के विमोचन-लोकार्पण का दावा किया जा रहा हो, उसे तो आंख मूंदकर विश्व पुस्तक मेला मान ही लेना चाहिए। इसमें सब की भलाई है। दूसरे देश आएं ना आएं उनकी बला से, हमारे देश के साहित्य का तो महाकुंभ है दिल्ली विश्व पुस्तक मेला। इधर लेखन,पाठन, प्रकाशन जगत के लिए एक तसल्लीबक्श खबर यह आई कि दिल्ली पुस्तक मेले में इस बार तकरीबन 5 करोड़ रुपए की पुस्तकें बिकी, पर इसी खबर की दूसरी नामुराद लाइन यह थी कि मेले में ग्राहक दर्शक 55 करोड़ के छोले भटूरे खा गए। तो कुल मिलाकर मतलब यह हुआ दिल्ली के छोले-भटूरे किताबों पर दस गुना भारी पड़े। लेकिन इसका तात्पर्य यह कदापि ना निकाला जाए कि पुस्तक लेखन प्रकाशन करने के बजाए अब छोले-भटूरे का ठेला लगाना ज्यादा लाभदाई व समाज-हित में होगा।
इस पुस्तक मेले की एक खासियत यह रही की प्रकाशन जगत के पुराने धुरंधर खिलाड़ियों के साथ ही नवोदित तथा छोटे प्रकाशकों ने भी इस बार अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज की, उनकी पुस्तक बिकीं भी और सराही भी गई। पुस्तकों का खरीदा जाना एक शुभ लक्षण है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि पुस्तकें केवल खरीदी ही नहीं जानी चाहिए बल्कि पढ़ी भी जानी चाहिए। विगत दिनों वरिष्ठ साहित्यकार के रूप में स्थापित लेखक कम उच्च शासकीय अधिकारी से उनके निवास पर मिलना हुआ।उनके भव्य बैठक कक्ष में सागौन की लकड़ी की चमचमाती अलमारियों में सलीके से सजी बेहतरीन पुस्तकें हिन्दी, अंग्रेजी के विश्व के समृद्ध साहित्य की मानो झांकी पेश कर रही थीं। चुनिंदा किताबों का बहुत ही अच्छा संग्रह था। अपने आदत से मजबूर, मैं उनसे इजाजत लेकर कुछ पसंदीदा लेखकों की किताबें देखने लगा।कई किताबों को देखने के बाद, लगने लगा कि खरीदने के बाद से शायद इन्हें एक बार भी खोला नहीं गया था। किताबों में कई जुड़े हुए पन्ने अभी तक फाड़ कर अलग नहीं किए गए थे। नई नकोर किताबें किसी सुधी पाठक की नज़रें इनायत को तरसती अलमारियों में कैद थी। केवल वैभव एवं पांडित्य प्रदर्शन के लिए खरीदकर सजाई गई इन किताबों से भला किसी का क्या भला होगा?
अर्थात किताबें पढ़ी जानी चाहिए। और ऐसे पुस्तक मेले केवल राजधानियों में ही नहीं, बल्कि सभी छोटे शहरों कस्बों में भी आयोजित होनी चाहिए। हमारे बच्चों को,आने वाली पीढ़ी को पुस्तक पढ़ने का संस्कार देना होगा। टेलीविजन, मोबाइल, फेसबुक, व्हाट्सएप, यूट्यूब,ओटीटी प्लेटफॉर्म जैसे नए-नए साधन शनै शनै किताबों को हाशिए की ओर धकेल रहे हैं। पेपरलेस ऑफिस के बाद अब पेपरलेस डिजिटल लाइब्रेरी की अवधारणा पर जोरों पर है । मोबाइल लैपटॉप धारी नई पीढ़ी को तो मानो अब किताबों से बैर हो चला है।
ऐसे कठिन दौर में ये पुस्तक मेले एक रोशनी की एक नई खिड़की खोलते हैं और आशा जगाते हैं। तमाम परेशानियों,नफा नुकसान के बावजूद ऐसे सफल सार्थक पुस्तक-मेलों के जीवट आयोजकों के भागीरथ प्रयत्नों का भी समुचित सम्मान होना चाहिए।
मानव सभ्यता की विकास यात्रा के साथ ही मिट्टी की स्लेटों,धात्विक पट्टिकाओं, चर्म पट्टिकाओं, वस्त्रों से लेकर ताड़ पत्र और कागज तक किताबों ने भी कई रूप बदले पर मानव के अर्जित ज्ञान की संपदा के वाहक और वाचक के रूप में इनका अस्तित्व एवं महत्व सदैव सर्वोपरि बना रहा है। अब भले ही किताबों का डिजिटलाइजेशन हो जाए अथवा इनका स्वरूप कितना भी परिवर्तित हो जाए, पर मानव सभ्यता के विकास गाथा की वाचक एवं संचित ज्ञान की वाहक इन पुस्तकों का महत्व एवं वर्चस्व कभी समाप्त नहीं होने वाला।
हमारे जनजातीय समुदायों के कितनी ही सदियों के संचित अनुभव जन्य ज्ञान, उनके लोकगीत, लोक कथाओं, बोली,भाषा, कहावतों, उनके परंपरागत चिकित्सीय ज्ञान एवं अन्यान्य विधाओं के अनमोल ज्ञान की अकूत संपदा का दस्तावेजीकरण कर आने वाले पीढ़ियों को पुस्तकों के रूप में ही इस विरासत को सौंपा जा सकता है। दुर्भाग्य से इस दिशा में बहुत कम कार्य हुआ है और जो कार्य हुआ भी है वह सतही और भ्रामक है। इसके लिए कठिन परिश्रम और जमीनी धरातल पर धैर्य के साथ तथ्य संकलन एवं दीर्घकालिक शोध जरूरी है। इन दिनों आयोजित पुस्तक मेलों में किताबों के ढेर में अन्य सभी विषयों पर पुस्तकें भले मिल जाएं, परन्तु अपवादों को छोड़कर प्रामाणिक जनजातीय साहित्य लगभग नदारद है। इसी तरह कृषि प्रधान कहलाने वाले देश की 70% जनसंख्या और लगभग 7 सात लाख गांवों , किसानों उनके खेत खलिहानों के जन-सरोकारों का लेखन भी लगभग नगण्य है। यही कारण है कि "पुस्तक मेलों" का 'मेला' अर्थात 'उत्सव' तत्व प्रधान हो गया है। इसलिए 'मेला' के रूप में तो 'पुस्तक-मेला' सफल दिखाई देते हैं, किंतु पुस्तकें अपने लक्ष्य और पाठकों से शनैं शनैं दूर होती जा रही है। इसे इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि आज भी पुस्तक मेलों में सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों में मुंशी प्रेमचंद जी किताबें अव्वल नंबर पर हैं, जबकि विश्व पुस्तक मेले में लोकार्पित दस हजार नई किताबों की दस-दस प्रतियां भी शायद ही बिक पाई।
डॉ राजाराम त्रिपाठी "जनजातीय शोध एवं कल्याण संस्थान (TRWF)"