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देश के किसान की आमदनी चपरासी से भी कम, कैसे बनेंगे विश्व गुरु ?
सन 2022 भी अब चला-चली की बेला में है। इस देश की 70 सत्तर फीसदी आबादी परोक्ष अपरोक्ष रूप से खेती पर निर्भर है। ऐसे में दम तोड़ते इस साल की अंतिम घड़ियों में देश के किसानों ने इस साल क्या बोया क्या काटा, क्या खोया क्या पाया। इसका लेखा-जोखा जरूरी प्रतीत होता है।
किसानों की वर्तमान आय चपरासी से भी कम :-
विश्व गुरु बनने को आतुर हमारे देश में इन दिनों हर बात में अमेरिका से तुलना की जाती है। भारत की किसान की वर्तमान स्थिति समझने हेतु, जरा हम अमेरिकी किसान और भारतीय किसान की आमदनी पर एक नजर डालें। अमेरिका में एक किसान परिवार औसतन सालाना 83 तिरासी हजार डालर यानी 65 लाख रुपये हर साल कमाता है । जबकि भारत के एक किसान परिवार की औसतन सालाना आय मात्र 1.25 लाख रू है, यह आमदनी भी दिनों दिन मजबूत हो रहे अपराजेय पहलवान डॉलर के सामने हमारे किसानों की खींचतान कर घोषित की गई, यह यह आमदनी भी दिन प्रतिदिन सिकुड़ते जा रही है। हमें दुख के साथ यह कहना पड़ेगा कि आजादी के 75 साल बाद आज 2022 के अंत में खेती-किसानी और किसानों की इतनी ही तरक्की हुई है कि हमारे किसानों की अधिकतम औसत आमदनी, चपरासी से भी कम है.
"सिचुएशन असेसमेंट" के आंकड़े कहते हैं कि भारत के प्रति किसान की मासिक आय 2018-19 में 10,218 रुपये प्रति महीना अर्थात 1.25 रू लाख/सवा लाख रुपए सालाना है। सवाल यह है कि क्या सचमुच यह आंकड़े आज की तिथि पर खरे उतरते हैं । यह सब तो हम जानते ही हैं कि पिछले 2 सालों के कठिन कोरोनाकाल ने देश के किसानों की कैसे कमर तोड़ दी। लाकडाऊन में किसानों ने खेतों में काम करने जाने की नाम पर पुलिस के डंडे खाए। खेतों और बाजारों दोनों जगह उन्हें मार पड़ी। खेती में भी घाटा उठाया और उत्पादन को लागत से भी कम कीमत पर बेचना पड़ा। इतना सब होने के बावजूद किसानों ने कोरोना के कठिन काल में देश के प्रत्येक नागरिक का पेट भरा। अनाज, दूध सब्जियों की कमी नहीं होने दी। यथासंभव किसी को भूखा नहीं रखा। इस बीच डीजल, उर्वरकों, खाद, बीज, बिजली की दरों में हुई अनियंत्रित बेतहाशा वृद्धि ने खेती को पूरी तरह से घाटे का सौदा बना दिया। कृषि की दिनों दिन बढ़ती लागत, किसान पर लदेभारी कर्ज,उस पर बढ़ता ब्याज और 90 नब्बे फ़ीसदी किसानों को उनके उत्पादन का उचित मूल्य (एमएसपी) नहीं मिल पाने के कारण हो रहे कृषि घाटे को देखते हुए किसान की औसत सालाना आय 1.25 लाख रुपए की गणना कहीं से भी विश्वसनीय प्रतीत नहीं होती। किसान की वास्तविक आमदनी इससे भी काफी कम है। जाहिर है चपरासी की नौकरी मैं इससे ज्यादा आमदनी तथा कम जोखिम है। इसलिए आज किसान तथा उसकी नई पीढ़ी दोनों ही खेती से विमुख हो रहे हैं।
छत्तीसगढ़:- छत्तीसगढ़ को 'धान का कटोरा' कहा जाता है, परन्तु एक और अंतरराष्ट्रीय कहावत भी मशहूर है कि "धान की खेती और गरीबी का चोली दामन का साथ होता है"। हालांकि छत्तीसगढ़ में अन्य प्रदेशों की तुलना में किसानों को धान के अच्छे भाव मिल रहे हैं । धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य तथा बोनस आदि के साथ बढ़ी दर पर सरकारी खरीदी की मदद के बावजूद प्रदेश का सीमांत किसान अपने सारे जरूरी खर्चे घटाकर साल में औसतन कुल मिलाकर ₹ 50 हजार भी कमा लें तो बहुत बड़ी बात है। इससे भी बुरा हाल उड़ीसा,बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, झारखंड के किसानों का है। आप बेझिझक कह सकते हैं कि कमोबेश पूरे देश के किसानों का यही हाल है, हाल बेहाल है।
खेती की वर्तमान दशा-दिशा :-
भारत की लगभग 135 करोड़ की आबादी में लगभग 16 करोड़ किसान परिवार किसान परिवार हैं , जो कि ज्यादातर गांवों में निवास करते हैं। गांवों में किसानों के परिवार बड़े होते हैं। प्रति कृषक परिवार के सदस्य संख्या न्यूनतम 5 सदस्य प्रति परिवार भी अगर हम गिनते हैं तो देश में किसान परिवारों की कुल सदस्य संख्या 80 करोड़ बैठती है। इसके अलावा विभिन्न कृषिसंबद्ध क्षेत्रों से भी जुड़े करोड़ों परिवारू की आजीविका भी कृषि पर ही आश्रित है। अतएव यह कहना गलत न होगा कि देश की लगभग 100 करोड़ की आबादी अपनी आजीविका हेतु किसी ना किसी रूप में कृषि पर निर्भर है और उससे जुड़ी हुई है । जबकि अमेरिका में किसानों की कुल आबादी सिर्फ 26 लाख है।
भारत की जीडीपी में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी लगभग 20 फीसदी है,जबकि अमेरिका की जीडीपी में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी लगभग 5 फीसदी मात्र है। अमेरिका में सैकड़ों, हजारों हेक्टेयर के फार्म होते हैं, जबकि भारत में औसत जोत का आकार लगभग 1- एक हेक्टेयर मात्र है। कृषि अर्थशास्त्र का सीधा सा नियम की जोत सीमा जितनी कम होती जाती है कृषि लागत उतनी ही बढ़ती जाती है।
न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी की हकीकत :-
देश में कुछ एक चुनिंदा फसलो का कुल उत्पादन का मात्र 10% उत्पादन ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बिक पाता है। बाकी का 90% उत्पादन बिचौलियों आढ़तियों,दलालों, व्यापारियों, कंपनियों के संगठित गिरोहों के द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी कम कीमत पर या यूं कहें कि कौड़ियों के मोल खरीदा जाता है, और किसान टुकुर-टुकुर देखते रह जाता है, मन ही मन आंसू बहाने के अलावा कुछ नहीं कर पाता। हर साल देश के किसानों को न्यूनतम लागत से भी कम दरों पर मजबूरी में अपने उत्पादों को बेचने के कारण लगभग 7 लाख करोड़ का घाटा होता है। सरकार द्वारा कि समय-समय पर की गई कर्ज माफी और खाद,बीज, उपकरणों पर दी जा रही तथाकथित सब्सिडी/अनुदान सहायता राशि, सक्षम एमएसपी गारंटी कानून के अभाव में किसानों को हर साल हो रहे इस भारी घाटे के की तुलना में चिड़िया का चुग्गा मात्र है। इस लगातार घाटे ने कृषि क्षेत्र में विकट निराशा का वातावरण तैयार कर दिया है।देश का किसान अब और घाटा उठाने की स्थिति में नहीं है।
किसान अब देख रहा है कि उसकी खेती से ज्यादा तो मजदूर कमा रहे हैं, वो भी बिना किसी जोखिम के। आंकड़े बोलते हैं कि 2018-19 में लगभग हर दूसरा किसान परिवार कर्ज में था। अब कर्ज का बोझ भी दिनों दिन बढ़ता जा रहा है।
*किसानों की आय दोगुनी करने का वादा :- *
2016 में प्रधानमंत्री मोदी जी तथा उनकी सरकार ने देश के किसानों से 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का किया गया वादा किया था,अब जबकि सन 2022 विदा मांग रहा है, तो जाहिर है कि किसानों की आय दुगनी करने का वादा केवल खोखला जुमला ही साबित हुआ। किसानों की आय में वृद्धि की बात तो दूर किसानों का कर्ज और घाटा दुगना होने को है। वैसे किसानों को और सरकार को दोनों को यह पता था कि 2022 तक किसानों की आय कतई दोगुनी होने वाली नहीं है। क्योंकि यह दोनों जानते हैं कि घनघोर विज्ञापन से, और नारों और जुमलेबाजी से किसानों के खेतों में ना तो उत्पादन में वृद्धि हो सकती है, और ना ही सरकार के एमएसपी घोषणा कर देने से, ज्यादा से ज्यादा फायदा कमाने को कटिबद्ध निष्ठुर बाजार किसानों के उत्पादों का कभी न्यायोचित उचित एमएसपी मूल्य देता है। पर हर बार इन खोखले राजनीतिक जुमलो, झूठे वादों और थोथे नारों की असलियत जानते हुए भी पर जनता इन पर बेवफा दिलफरेब पर फ़िदा दीवाने प्रेमी की तरह यकीन कर ही लेती है।
"किसान सम्मान निधि" : कितने हुए बेदखल और कितनों को मिली निधि तथा सम्मान?:-
लोकसभा चुनाव से ठीक पहले छोटे किसानों को "प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि" के रूप में साल भर में 6 हजार की राशि 3 समान किस्तों में देने की घोषणा की गई। फरवरी 2019 में पहली किस्त देश के 11.84 करोड़ किसानों को दी गई । इसके बाद किस्त दर किस्त लाभार्थियों की संख्या में कृष्ण पक्ष के चांद की तरह लगातार कटौती होते गई। मीडिया की खबरें कह रही हैं कि, कृषि मंत्रालय से सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी के अनुसार, योजना के तहत पूर्व चिन्हित 11.84 करोड़ लाभार्थियों में से 11 वीं किस्त मात्र 3.87 करोड़ किसानों को ही मिली। 12 वीं किस्त हेतु केवल 3.01 करोड़ (29 जनवरी तक) किसान ही सरकार की नजरों में इस सम्मान व निधि के योग्य माने गए। यही कुछ बड़े समाचार पत्रों में 12वीं किस्त में 12 करोड़ तथा कुछ समाचार पत्रों में 10 करोड किसानों को सम्मान निधि की किस्त दिए जाने की जानकारी दी गई । किसानों को सम्मान निधि के रूप में 12वीं किस्त में वितरण की जाने वाली कुल राशि 16 हजार करोड बताई गई। यदि 16 हजार करोड की राशि सम्मान निधि हेतु 12वीं किस्त में वितरित की गई इसका तो मतलब यह होता है कि हाल की यह 12वीं किस्त 8 करोड़ किसानों को बांटी गई। पीएम किसान सम्मान निधि योजना के लाभार्थियों की संख्या तथा कुल वितरित की जाने वाली राशि के बारे में अब यह तो तय है कि या तो सरकार झूठ बोल रही है या फिर ये बड़े-बड़े पुराने समाचार पत्र झूठ बोल रहे हैं। और अगर ये झूठ बोल रहे हैं तो, उसका कारण तथा निहितार्थ क्या हैं?
सवाल यह भी है कि असल सच्चाई आखिर क्या है? कितने किसानों को 12वीं किस्त में, कुल कितना रुपया दिया गया,और 13 में किस्त जनवरी में कितने किसानों को यह सम्मान निधि मिल पाएगी?
इतने पर ही बस नहीं है। आप सुनकर भले यकीन करें या न करें पर सरकारी आंकड़े कहते हैं मध्य प्रदेश में कुल किसानों की संख्या 1 करोड़ 8 लाख है, अब इनमें गरीब किसान मात्र 12 हजार बचे है। आंकड़ों की भाषा में इसका मतलब हुआ कि मध्यप्रदेश में अब केवल 0.1 प्रतिशत ही गरीब किसान बचे हैं ,और यहां के बाकी के 99.9% किसान सरकार की नजरों में अमीर और मालामाल हो गये हैं।
छत्तीसगढ़ :- सम्मान-निधि से वंचित होने वाले किसानों की संख्या के मामले में छत्तीसगढ़ दूसरे नंबर पर है। यहां पहली किश्त 37 लाख 70 हजार किसानों को दी गई थी, वहीं 11वी किश्त सिर्फ 2 लाख किसानों के खातों में ही आई है। मतलब 3 साल में 94.7 प्रतिशत किसान सम्मान निधि के पात्र नहीं रहे गए।, और अब छत्तीसगढ़ में सिर्फ 5.3 प्रतिशत किसान ही गरीब बचे हैं, बाकी सब या तो मालदार हो गए या फिर किन्ही कारणों से सम्मान निधि के अयोग्य हो गए।
इसी कड़ी में कहा गया है कि, पश्चिम बंगाल में 2019 में 45.63 लाख किसानों को राशि मिली और छठवीं किस्त के बाद से किसी भी किसान को पैसा नहीं मिला। कहीं इसका मतलब यह तो नहीं कि,, किसान जी जब आपने हमारी पार्टी की सरकार अपने राज्य में नहीं बनाई, तो फिर आपका काहे का सम्मान और काहे की निधि?
अब ये सभी मालदार अथवा अपात्र हो चुके किसान सम्मान और निधि दोनों के काबिल नहीं रहे। गनीमत है कि सम्मान निधि की दो-तीन किस्ते इन्हें और नहीं दी गई गई, वरना 2 हजार की किस्त के लिए बैंकों के 5 बार चक्कर काटने वाले ये मालदार किसान अंबानी अडानी की बराबरी करने लग जाते। जिस तरह से सरकार गरीबों की रोजमर्रा की चीजों पर भी भारी टैक्स लगा रही है तथा खेती के लिए बेहद जरूरी कृषि उपकरणों,डीजल, खाद ,बीज दवाई आदि को भी टैक्स से नहीं बख्श रही है, तो कोई बड़ी बात नहीं कि जल्द ही इन नये सरकारी मापदंडों के आधार पर अमीरों की गिनती में आने वाले सम्मान निधि से वंचित इन अभागे किसानों के ऊपर भी टैक्स ना लगा दे।
कैसे हो 2022 की विदाई, 2023 का स्वागत ?
अंत में यह कहना गलत न होगा कि, कुल जमा मिलाकर पिछले सालों की तरह ही वर्ष 2022 भी अब तक तो देश के किसानों के लिए दुस्वप्न ही साबित हुआ है। सरकार यदि इन हालातों से देश की खेती तथा किसानों को सचमुच उबारना चाहती है, तो उसे देश की कृषि नीति, योजनाओं तथा कृषि हेतु बजट राशि आबंटन की मात्रा में साहसिक निर्णय देते हुएआमूलचूल परिवर्तन करने होंगे। इसकी शुरुआत सम्मान निधि में छोटे, मझोले,लघु, बड़े किसानों का भेदभाव न करते हुए सभी किसानों को जोड़ते हुए इसकी राशि को 6 छः हजार सालाना से बढ़ाकर कम से कम तेलंगाना सरकार के रैयत बंधु योजना के प्रति एकड़ 8 आठ हजार रु. के मानक दर से सहायता प्रदान करने की घोषणा से की जा सकती है। दूसरे महत्वपूर्ण कदम के रूप में सरकार को देश के निराश बहुसंख्य किसानों में नये वर्ष में नई आशा तथा उत्साह के संचार हेतु, देश के सभी किसानों के सभी उत्पादों के लिए समुचित न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रदान करने हेतु एक "सक्षम न्यूनतम समर्थन मूल्य गारंटी कानून" तत्काल पारित करना चाहिए। जिससे कि सभी किसानों को उनके समस्त उत्पादों का वाजिब मूल्य मिल पाए। प्रधानमंत्री जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य हर हाल में दिलाने हेतु तत्कालीन केंद्र सरकार से कड़ी वकालत की थी। आज जबकि वे स्वयं निर्णायक नियंता की गद्दी पर आसीन हैं तो उनके पास यह सुनहरा अवसर है कि देश किसानों को एक "सक्षम न्यूनतम गारंटी कानून" का जरूरी और वाजिब हक देकर देश की खेती तथा किसानों को इस गर्त से बाहर निकालने में मदद करें। इसमें सरकार का ₹1 भी अतिरिक्त खर्च नहीं होने वाला। इससे पिछले तीनों कृषि कानून, तथा किसान आंदोलन से निपटने के तौर-तरीकों को लेकर किसान तथा सरकार के बीच पैदा हुई खटास तथा किसानों की नाराजगी भी समाप्त होगी। हमारा विश्वास है इस मास्टर स्ट्रोक से से प्रधानमंत्री तथा उनकी सरकार की न केवल कई खामियां धुल जाएंगी, बल्कि देश के इतिहास में उनका नाम स्वर्णिम अक्षरों से लिखा जाएगा।