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'आप' देश की आत्मा बचाने में नाकाम, मोदी को सत्ता से हटा तो सकती है!
योगेंद्र यादव का लिखा द प्रिंट में ये लेख
कहा गया कि आम आदमी पार्टी(आप) ने दिल्ली के दंगों के दौरान 'विश्वासघात' किया और यह भी कि कन्हैया कुमार के मामले में पार्टी ने हैरतअंगेज़ पलटी मारी है. इस हो-हल्ले में दूरगामी महत्व की एक बात लोगों की नजर में आने से रह गई : 'आप' गैर-बीजेपी खेमे की पहली ऐसी पार्टी है जिसने नरेन्द्र मोदी वाले न्यू इंडिया के हिसाब से अपना कायाकल्प करने का काम कामयाबी के साथ कर लिया है. पार्टी ने अब हिन्दुत्वादी रंगत वाले राष्ट्रवाद की सियासी सच्चाई से तालमेल बैठा लिया है और 'आप' के सुप्रीमो को सियासत के बाज़ार में एक नया मौका हाथ लगा है. राजनीतिक हिन्दुत्व की बढ़ती मांग के कारण इस जिन्स के दूसरे आढ़तियों के लिए भी सियासत के बाजार में जगह पैदा हुई है जो माल की बेहतर पैकेजिंग और डिलीवरी के मामले में बीजेपी को टक्कर देंगे. 'आप' ऐसे ही आढ़तिये की भूमिका निभाने जा रही है.
राजद्रोह पर आप
दिल्ली के चुनावों में शानदार जीत के बाद से आम आदमी पार्टी ने जो सियासी ढर्रा अपनाया है वो इसी बात की मुनादी करता है. कन्हैया कुमार, उमर खालिद, अनिरबान दास तथा अन्यों पर राजद्रोह का मुकदमा चलाने के लिए हरी झंडी देना एक सोचा-समझा सियासी फैसला था. आप के प्रवक्ता ने फैसले को रोज़मर्रा का प्रशासनिक मामला बताकर पल्ला झाड़ लिया है लेकिन ऐसा कहने के पीछे विश्वास का जो भोलापन दिखता है उसे लेकर कई सवाल खड़े होते हैं. एक तो यही कि ये अपराध के किसी चलताऊ से मामले में मुकदमा चलाने की अनुमति देने की बात नहीं थी बल्कि मामला राजद्रोह यानि एक राजनीतिक अभियोग का था.
दूसरे, सुप्रीम कोर्ट ये निर्देश दे चुका है कि किन बातों में राजद्रोह का अभियोग नहीं लगाया जा सकता और आम आदमी पार्टी का फैसला इस निर्देश से आंख मूंद लेने जैसा है. तीसरी बात, दिल्ली सरकार के विधिक सलाहकार को मामला लचर जान पड़ा था और उन्होंने मशविरा दिया था कि मामले को आगे बढ़ाने की अनुमति ना दी जाय. और इस सिलसिले की आखिरी बात ये कि अगर बात रोजमर्रा के प्रशासनिक फैसले लेने जैसी ही थी तो फिर दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार इस पूरे प्रकरण पर एक साल से भी ज़्यादा समय तक पालथी मारकर क्यों बैठी रही?
बात बिल्कुल साफ है : अरविन्द केजरीवाल को लग रहा है कि कन्हैया कुमार तथा उमर खालिद का हमदर्द जान पड़ना आम आदमी पार्टी की राष्ट्रवादी छवि के आड़े आ सकता है और पार्टी के विस्तार में बाधा खड़ी हो सकती है. अगर सोच की इस लकीर पर देखें तो धारा 370 की समाप्ति तथा जम्मू-कश्मीर के सूबाई दर्जे को खत्म करने के फैसले पर आम आदमी पार्टी ने जो विचित्र सा स्वागत-भाव दिखाया उसकी कहीं बेहतर समझ बनती है.
विविधता और संघवाद
बेशक ये पार्टी समय-समय पर विविधता और संघवाद की हिमायत में कुछ बोल बोलती रहती है लेकिन अब पार्टी देश को चौतरफा एकसार करने वाले राष्ट्रवाद की चौहद्दी के भीतर ही रहकर अपना कामधाम करने जा रही है और इस चौहद्दी की चारों दीवारों पर लिखा है कि 'विविधताओं को पाटकर ही एकता कायम की जा सकती है'. यकीन जानिए, आम आदमी पार्टी का राष्ट्रवाद बीजेपी के राष्ट्रवाद से ज़्यादा कठोर और मनमौजी साबित होने जा रहा है.
सत्ताधारी आप ने दिल्ली की हाल की हिंसा में जो रुख दिखाया उसमें पार्टी की एक और ही सियासी रंगत दिखी है. पार्टी ने चुनाव-अभियान में धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर सोची-समझी चुप्पी साध रखी थी और शाहीन बाग से अपनी एक खास दूरी बनायी थी. इसे पार्टी के चुस्त-दुरुस्त चुनावी दांव के रुप में देखा जा सकता है. लेकिन दिल्ली में अभी जो हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए उन्हें बंटवारे के बाद के समय में दिल्ली में हुए सबसे बुरे दंगों में शुमार किया जा सकता है और ऐसे दंगे के दौरान पार्टी हाथ पर हाथ धरे बैठी रही तो इसे पार्टी का एक सोची-समझी सियासी लकीर पर लिया गया फैसला माना जायेगा. हर्षमंदर को सांप्रदायिक हिंसा से निपटने और उसपर निगरानी रखने का लंबा अनुभव हासिल है. उन्होंने ऐसी कई चीज़ों की एक सूची तैयार की है जो दिल्ली के दंगों के दौरान की जा सकती थीं लेकिन पार्टी ने जानते-बूझते ऐसी चीज़ों से अपने को दूर रखा.
चुनावों में ऐतिहासिक जीत दर्ज करने वाली आम आदमी पार्टी दंगा-पीड़ितों के बीच विश्वास को बहाल करने और लोगों के बीच अमन कायम करने के ज़मीनी काम करने के मामले में कहीं नहीं दिखी. दंगों में हो रहे नुकसान को कम किया जा सकता था लेकिन आप की सरकार ने अपनी प्रशासनिक मशीनरी को इस काम में नहीं लगाया. पार्टी बचाव और राहत के काम में भी फिसड्डी रही. आगे बढ़कर पीड़ितों के लिए यथाशक्ति कुछ करने की जगह आम आदमी पार्टी की सरकार इस सोच से राहत की सांस लेती नज़र आयी कि अच्छा हुआ जो दंगों के दौरान बीच-बचाव के काम में पड़ने से बचे रहे. ये कोई प्रशासनिक अकर्मण्यता का मामला नहीं बल्कि सीधे-सीधे राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी का मामला है. या फिर ये कहा जा सकता है कि आम आदमी पार्टी ने दंगों के दौरान इस डर से कि कहीं हिन्दू मतदाताओं की बहुसंख्या पार्टी से चिढ़ ना जाय, एक सोची-समझी रणनीति के तहत चुप्पी साध रखी थी.
बेशक आम आदमी पार्टी मुस्लिम-विरोधी पार्टी नहीं है, आज की तारीख तक तो उसे मुस्लिम-विरोधी पार्टी नहीं ही करार दिया जा सकता. लेकिन ये ज़रुर कह सकते हैं कि अल्पसंख्यकों के बचाव में उठ खड़े होने की उसकी इच्छाशक्ति अब इस बात पर निर्भर हो चली है कि बहुसंख्यक जमात के मनोभाव उसे इस दिशा में किस हद तक कदम उठाने की इजाज़त देते हैं. कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की तरह आम आदमी पार्टी भी समझ गई है कि दिल्ली के मुसलमानों के पास 'आप' को वोट डालने के सिवा कोई और विकल्प नहीं. सो, पार्टी को अब चिन्ता सता रही है कि कहीं मुसलमानों की तरफदारी में दिखने में हिन्दू वोट उसके खीसे से खिसक ना जायें. ये बात बिल्कुल इस तथ्य की संगति में दिखती है कि पार्टी ने अयोध्या मामले में आये फैसले को ना सिर्फ स्वीकार किया बल्कि आगे बढ़कर उसका स्वागत करने से भी ना चूकी.
बीजेपी की टीम बी
लेकिन इन तमाम बातों के आधार पर आप को 'बीजेपी की टीम बी' करार देना गलत होगा. आप को बीजेपी की टीम बी कहने से तो ये अर्थ निकाला जा सकता है कि आम आदमी पार्टी बीजेपी के लिए चुनाव के एतबार से फायदेमंद है. लेकिन इसके उलट सच्चाई ये है कि आम आदमी पार्टी देश के कुछ हलकों में बीजेपी के लिए तगड़ा प्रतिद्वन्द्वी साबित हो सकती है. विचाराधारा के स्तर पर एक-सरीखा होने का मतलब ये नहीं निकलता कि दो दलों के बीच चुनावी मुकाबला किसी दोस्ताना मैच की तरह साबित होगा. इसके उलट बहुधा यही देखने को मिलता है कि एक-सी विचारधारा वाली पार्टियों के बीच चुनावी मुकाबला काफी तगड़ा, एक-दूसरे के प्रति कटुता से भरा हुआ और बड़े हद तक निजी लड़ाई में तब्दील हो जाता है.
आसार यही दिख रहे हैं कि पार्टी अब अपने राजनीतिक दृष्टकोण और परिप्रेक्ष्य को समग्रता में सामने रखने से परहेज़ करेगी, बीजेपी के सामने धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र जैसे मसलों पर अपने सोच का इज़हार करने से बचेगी और केवल गवर्नेंस के मुद्दे पर बीजेपी से दो-दो हाथ करता नज़र आयेगी. पार्टी ने जो सियासी रंगत अख्तियार की है उसके लिए हमें अब कोई नया नाम गढ़ना होगा: नरम हिन्दुत्व जैसा शब्द यों तो पार्टी की सियासी रंगत के एतबार से ठीक जान पड़ता है लेकिन इसे पर्याप्त नहीं माना जा सकता. पार्टी का कठोर राष्ट्रवाद उसकी सियासी रंगत को नाम देने के लिहाज़ से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है. जिन लोगों को लगता है कि आम आदमी पार्टी अर्थशास्त्र के नव-उदारवादी मॉडल के सामने चुनौती पेश कर सकती है वे इस पार्टी की आर्थिक नीतियों की मीमांसा करने पर निराश होंगे. 'आप' नाम के ब्रांड की सही व्याख्या करने वाले शब्द हैं: नरम हिन्दुत्व, कठोर राष्ट्रवाद, दिग्भ्रमित आर्थिकी और पूरमपूर लोक-लुभावनवाद!
ऊपर की बातों को नज़र में रखें तो फिर जान पड़ेगा कि आम आदमी पार्टी ने जो कुछ किया है उसमें विचित्र कुछ भी नहीं. चुनावशास्त्र की बुनियादी किताबों में एक सिद्धांत मिडियन वोटर थियरी के नाम से मिलता है. पार्टी इसी सिद्धांत पर अमल करता प्रतीत हो रही है. इस सिद्धांत के मुताबिक जो राजनीतिक दलों वोटों के बाज़ार में ये देखकर चलता है कि आम मतदाता की राय और रुझान किन बातों की तरफ है उसकी जीत की संभावना सर्वाधिक होती है. अगर आम मतदाता अपने रुख और रुझान में दक्षिणपंथी हो रहा है तो पार्टी को भी उतना ही दक्षिणपंथी होना-दिखना पड़ता है और आम मतदाता अपने रुख-रुझान में वामपंथी हो रहा है तो फिर पार्टी भी उसी हिसाब से अपने कदम तय करती है. आम आदमी पार्टी वोट बटोरने के अपने अटूट, एकजुट और एकतरफा प्रयास में यही कर रही है. संघ-परिवार ने लोगों के रुझान को बड़े निर्णायक ढंग से दक्षिणावर्ती बना डाला है और आम आदमी पार्टी बहुसंख्यक राष्ट्रवाद की तरफ मुड़ चले जनमत से अपना तालमेल बैठाने के लिए बड़ी तेज़ी से कदम बढ़ा रही है. हैरत की बात ये है कि राजनीति की व्याख्या-मीमांसा करने वाले अब भी आम आदमी पार्टी की करतबबाज़ी को देखकर आश्चर्य की आहें भरते हैं. उन्हें पार्टी की पलटीमार शैली पर अचरज होता है. लेकिन हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार मनोहरश्याम जोशी की व्यंग्य की शैली में कही बात को तनिक बदलकर कहें तो बात ये है भाई कि सुंदरता की तरह विश्वासघात भी देखने वाले की आंख में बसा करता है कहीं और नहीं !
हमें अरविन्द केजरीवाल का शुक्रिया अदा करना चाहिए जो उन्होंने अपने सेक्युलरी काट वाले प्रशंसकों को माकूल जवाब दिया और आम आदमी पार्टी की जीत का मतलब तलाशने के क्रम में विभिन्न व्याख्याओं के बीच उत्साह और विवाद का जो माहौल बना था उसे विराम दे दिया. उन्होंने राजनीतिक विकल्प और विकल्प की राजनीति के बीच के फर्क को भी स्पष्ट करने का काम किया है. केजरीवाल ने अपनी पार्टी को जिस राह पर लगाया है वो क्या दिल्ली के बाहर भी पार्टी के हक में काम कर पायेगा—इस सवाल का कोई ठोस जवाब देना अभी हड़बड़ी की श्रेणी में गिना जायेगा. लेकिन एक बात बड़ी साफ है : आम आदमी पार्टी मोदी को सत्ता से हटाने में सहयोगी तो बन सकती है लेकिन इस देश की आत्मा को बचाने में नहीं.
(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)