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मेट्रो स्टेशनों पर एलिवेटर का इस्तेमाल सीढ़ी जैसा नहीं करें, नहीं तो आप फूहड़ कहलायेंगे
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शिवनाथ झा
शायद आपने भी देखा होगा दिल्ली मेट्रो में। मैं तो देखा ही और जब देखा तो एक रिपोर्टर के नाते महसूस करना बहुत आवश्यक है। जब महसूस करेंगे तो लिखना भी उतना ही जरूरी है। वजह यह है की समाज में आज पत्रकारों को समाज के लोग चाहे जितनी भी आलोचना करें, अपशब्दों से अलंकृत करें, हकीकत यह है कि आज ही नहीं, आने वाले समय में भी 'वास्तविक और संवेदनशील पत्रकार बंधु-बांधव के मन में समय और परिस्थितियों के प्रति उनकी क्रिया-प्रतिक्रिया होती रहेगी, वे लिखते रहेंगे, बोलते रहेंगे।
यह अलग बात है कि परंपरागत मीडिया घराने के मालिक अथवा सम्पादकगण उस संवाददाता की कहानी के प्रति, सोच के प्रति कितना 'सकारात्मक' स्वरूप दिखाएंगे - चाहे देश के प्रधानमंत्री सम्मानित नरेंद्र मोदी जी कितना भी कह लें कि सोच बदलो देश बदलेगा - यह तो मालिकों की नजरों पर निर्भर करता था। अगर मालिक की नजर में उस खबर से 'विज्ञापन' के रूप में मिलने वाला धन उनके 'कोषागार' को 'नकारात्मक' रूप से प्रभावित करेगा; तो 'संवाद' ही नहीं 'संवाददाता' को भी परिसर से उठाकर बाहर फेंक देंगे। हां, अगर विज्ञापन आने का मार्ग प्रशस्त करता है तो गेंदा-गुलाब की मालाओं से स्वागत करेंगे।
आप चकित नहीं हों - भारतीय पत्रकारिता के वर्तमान युग में संवाददाताओं की एक तो नियुक्ति ही नहीं होती है अब, क्योंकि जिला के जिलाधिकारी से लेकर राज्यों के मुख्यमंत्री महोदय और केंद्रीय मंत्रीगण सभी संवाददाता हो गए हैं, छायाकार हो गए हैं। विषय वस्तु खुद लिखते हैं और ट्वीटर पर डाल देते हैं। फिर देश के पत्र-पत्रिकाओं के लोग अपने-अपने 'स्वाद के अनुसार' उन ख़बरों को, तस्वीरों को अपने पत्र में, पत्रिकारों में, वेबसाइटों पर स्थान दें, अथवा नहीं, उन्हें फर्क नहीं पड़ता। हां, अगर स्याही का रंग बदलने की कोशिश हुई तो आप उनके सीसीटीवी के कैमरे में रहेंगे, यह पक्का है।
अगर कोई पत्रकार कपाल से हिमालय पहाड़ जैसा रहा, उसे नौकरी मिल गई तो मालिक, उस संस्थान के मानव संसाधन विभाग के बड़े-बड़े अधिकारी नियुक्ति पत्र के साथ 'राशि भी निर्धारित कर देते हैं जो उस पत्रकार को विज्ञापन के माध्यम से एकत्रित करने होते हैं । मालिक अथवा मानव-संसाधन के आला अधिकारी यह कहने में भी हिचकी नहीं लेते कि आप फलाने साहब के अनुशंसा पर आये हैं, आपका स्वागत है।
परन्तु आपको तनख़ाह देने में संस्थान के कोषागार पर जो भार पड़ेगा, उसका न्यूनतम 10 फीसदी अधिक विज्ञापन द्वारा एकत्रित करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य ही नहीं, बाध्यकारी भी है। इस श्रेणी में वे पत्रकार नहीं आते जो पत्रकारिता को सीढ़ी बनाकर ऊपर चढ़ते है जल्दवाजी में - ठीक उसी तरह जिस तरह दिल्ली के लगभग सभी मेट्रो स्टेशनों पर यात्रीगण सीढ़ियों का इस्तेमाल नहीं कर 'एलिवेटर' का इस्तेमाल तो करते हैं, परन्तु सीढ़ियों की तरह... ताकि एक एलिवेटर की गति और दूसरी उनकी - यानी जल्दी ऊपर अथवा नीचे पहुँचने का नया तरीका।
बहरहाल, आज की पीढ़ी बहुत भाग्यशाली है जिन्हे दिल्ली में सफर करने के लिए लोगों के विभिन्न रंग, स्वाद, सुगंध वाले पसीने का आनंद नहीं लेना पड़ता है। यहाँ तक कि बसों में सुबह-सवेरे वाला 'वायुत्यागों' का सामना नहीं करना पड़ता है। आप घर से इत्र और परफ्यूम से नहाकर, लगाकर निकलते है और गंतव्य तक पहुँचने के क्रम में सम्पूर्ण वातावरण सुगन्धित करते जाते हैं। उसपर दिल्ली मेट्रो का वातानुकूलित डब्बा और भी चार-चाँद लगा देता है। गंतब्य तक पहुँचने में चेहरों पर कोई थकावट भी नहीं आता - 'लेमन' जैसा फ्रेश प्रतीत करते हैं।
लेकिन अगर सफर को बेहतर बनाने में मेट्रो एलिवेटर का बंदोबस्त किया है, तो बगल में सीढियाँ भी है। एलिवेटर पर चढ़कर सीढ़ियों जैसा इस्तेमाल करना हमारी, आपकी 'विकृत मानसिकता' को दर्शाता है। इतना ही नहीं, चिकित्सा विभाग के आंकड़े यह भी कहते हैं कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में DOTS केंद्रों में जांच होने वाले मरीजों में 20 वर्ष से नीचे और ऊपर के उम्र के लोग भी हैं। वृद्धों की बात यहाँ नहीं करेंगे।
खैर। हमारी कोशिश है कि अगर आप स्वस्थ हैं तो अपने स्वास्थ्य को और सबल बनायें - सीढ़ी का इस्तेमाल करें जहाँ तक संभव हो। अगर एलिवेटर पर चढ़कर उसे सीढ़ी जैसा इस्तेमाल करेंगे तो यक़ीनन आप जल्द स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर पहुँच जायेंगे अथवा नीचे ऑटो-टेम्पो-घर की दिशा में उन्मुख भी हो जायेंगे - लेकिन इस बात को नहीं भूलेंगे की आप लोगों की नजर में है। मेट्रो का सीसीटीवी भले नजरअंदाज कर दे, लेकिन देखने वाले आपको "फूहड़" कहेंगे।