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शकील अख्तर
कश्मीर में कहते हैं कि फारूक अब्दुल्ला के बारे में खुदा भी नहीं जानता कि वह कब क्या बोल देंगे! धारा 370 के मामले में चीन को लाकर उन्होंने ऐसा ही काम किया है। कश्मीर की उलझी और बेहद उलझी स्थिति के साथ चीन का सीमा विवाद भी बेहद नाजुक दौर में है। ऐसे में दोनों को मिलाकर फारूक ने जम्मू कश्मीर में एक नई मगर बेमतलब की बहस छेड़ दी है। ऐसा उन्होंने कोई पहली बार नहीं किया न ही शायद आखिरी बार होगा! वे अपनी राजनीति की शुरूआत से ही ऐसा करते रहे हैं। उनके बारे में कश्मीर में किंवदंतियों की बहार है। मगर सच यह है कि जितनी बातें कहीं जाती हैं कहानियां उससे भी ज्यादा हैं। जो लोगों तक नहीं पहुंच पाती हैं। वे इतने नाटकीय, बड़बोले और अस्थिर मनोवृति के हैं कि अगले पल वे क्या कह दें या कर दें खुद उन्हें भी नहीं मालूम होता।
किसी के पारिवारिक जीवन के बारे में लिखना अच्छा नहीं होता मगर कई बार प्रसंग ऐसे होते हैं कि थोड़ा जिक्र करना पड़ता हैं। फारूक 1982 में शेख अब्दुल्ला के बाद मुख्यमंत्री बने। घर आफिस बन गया। फारूक अपनी रंगीन मिजाजी के लिए शुरू से ही जाने जाते रहे हैं। जबकि उनकी अंग्रेज पत्नी मौली की सिद्धांत प्रियता उन दिनों श्रीनगर में चर्चा का विषय थी। वे आफिस के लोगों से काम कराने के बदले अपनी छोटी कार से खुद घर का राशन लेने बाजार जाया करती थीं। घर पर उन्होंने महिलाकर्मियों के आफिस टाइम के बाद काम करने पर पाबंदी लगवा दी थी। जाहिर है फारूक की निगरानियां थोड़ी बढ़ गईं थीं। लेकिन खुद फारूक के शब्दों में उन पर कंट्रोल करना मुश्किल है। क्योंकि वे खुद भी अपने उपर नियंत्रण नहीं रख पाते। वे मानते हैं कि गाना, नाचना, पीना, महिलाओं के बीच बैठना उन्हें बहुत पसंद है। तो खैर बताने के मतलब यह है कि फारूक के मनमौजी स्वभाव की वजह से पत्नी मौली वापस इंग्लेंड चली गईं। और ज्यादा वहीं रहने लगीं। जबकि जम्मू कश्मीर में वे एक बहुत भली और सब कि मदद करने वाली महिला के रूप में लोकप्रिय थीं। अभी दो साल पहले जब फारूक की तबीयत ज्यादा खराब हुई और इंग्लेंड में लंबे समय तक इलाज करवाना पड़ा तो पत्नी मौली ने ही उनकी पूरी सेवा सुश्रुभा की।
एक इंसान के तौर पर फारूक के भले आदमी होने में भी कोई शक नहीं है। एक वाकया बताते हैं, जो बहुत कम लोगों को मालूम है। दरबार जम्मू आया हुआ था। हम भी वहीं थे एमएलए होस्टल में। कई विधायक रहते थे। एक दिन रात 8- 9 बजे एक वरिष्ठ विधायक घबराए हुए हमारे कमरे में आए। उनकी पोती का उधमपुर में एक्सिडेंट हो गया था। सिर में गंभीर चोट थी। डाक्टरों ने तत्काल एम्स दिल्ली ले जाने के लिए बोला।
कैसे हो? केन्द्र में वाजपेयी सरकार थी। उसमें जम्मू के चमनलाल गुप्ता मंत्री थे। ये विधायक भी भाजपा के थे। विधानसभा में भाजपा विधायक दल के नेता। हमने कहा दिल्ली बात करके किसी विशेष विमान की व्यवस्था हो सकती है। बोले की थी बात, व्यवस्था नहीं हो पा रही। हमने कहा फारूक से करते हैं। कहने लगे देखिए! उनके यहां भी मैसेज छोड़ा है कोई जवाब नहीं आया।
लेंड लाइन का जमाना था। फारूक कहां होंगे किसीको पता नहीं होता था। हमने फोन किया। बताया। मगर वही कहा गया कि जैसे ही साहब से बात होगी आपका मैसेज उन्हें दे देंगे। हमने थोड़े गुस्से में कहा कि उनकी सिक्योरटी से कहिए, फौरन जहां भी हों वहां जाकर बताएं। और फोन करवाएं। बड़ी इमरजेंसी है। दो मिनट में ही फारूक साहब का फोन आ गया। हमने बताया। फौरन कहा हम बोलते हैं। स्टेट प्लेन उधमपुर पहुंच रहा है। और बच्ची को रात को ही दिल्ली पहुंचाया। वहां डाक्टरों से कहा। और बच्ची का सही इलाज हो गया।
ऐसी और भी घटनाएं हैं। और इनमें सबसे बड़ी बात यह है कि फारूक ने कभी प्रचार नहीं किया। क्रेडिट नहीं लिया। उनका मिज़ाज ही ऐसा है। सही बात यह है कि वे राजनीति के लिये नहीं बने। वे कब स्ट्रेट बेट खेलते हुए क्रास बेट खेलने लगें किसी को नहीं मालूम। वे खुद कहते हैं कि " तुझे मिर्ची लगे तो मैं क्या करूं? " यह एक सबसे मजेदार वाकया है। और इस गाने के आने से पहले का। हो सकता है गाने का आडडिया भी उन्हीं के लड़की घुमाने से लिया गया हो। या खुद वे ही दे आए हों। बालीवुड में उनके चाहने वाले बहुत हैं। आतंकवाद से पहले कश्मीर फिल्म वालों की सबसे पसंदीदा जगह हुआ करती थी।
तो कहानी यह है कि मुख्यमंत्री बनने के सिर्फ दो साल बाद उनके बहनोई गुल शाह ने उनकी सरकार पलट दी। मगर यह सबसे बड़ी बात नहीं है। इससे बड़ी बात यह है कि जब फारूक की सरकार गिर रही थी तो वे इससे अनजान जमी हुई डल लेक पर शबाना आजमी को बाइक पर बिठाकर घुमा रहे थे। और बाद में उन्हें इसका अफसोस नहीं रहा। एक बार बोले शबाना मेरे पीछे बाइक पर बैठी यह बड़ी बात है। दरअसल वे किसी बंधी बंधाई लीक पर चलने वाले आदमी ही नहीं हैं। सारी वर्जनाओं को तोड़कर जीने वाले इंसान हैं। अभी नवरात्रे आ रहे हैं। फारूक कई बार माता के भजन गाते थे। वैष्णों देवी से टीका लगवाए पैदल चले आते थे। ऐसे ही गोल्फ खेलने को लेकर कई बार विवाद हुए। राज्य में कोई महत्वपूर्ण घटना क्रम हुआ तो मालूम हुआ कि फारूक गोल्फ खेल रहे हैं।
लेकिन कई बड़े राष्ट्रीय मुद्दों पर फारूक बहुत ही कड़ा स्टेंड भी लेते हैं। जैसे 1999 में एयर इंडिया के जहाज के अपहरण के समय वे आतंकवादियों को छोड़ने के सख्त खिलाफ थे। रा की चीफ रहे एएस दुल्लत ने अपनी किताब में कहा है कि उस समय फारूक ने विरोध में मुख्यमंत्री पद छोड़ने की धमकी भी दी थी। इसी तरह करगिल में घुसपैठ के समय पाकिस्तान पर एयर स्ट्राइक करने का दबाव फारूक ने ही बनाया था। लेकिन ये सारी बातें एकतरफ है और नेता की निरंतरता (कन्सिसटेन्सी) एक तरफ। नेता के रूप सें अगर आप का काम लगातार जिम्मेदारी वाला नहीं रहा तो मानवीय गुण या कड़े स्टेंड बहुत ज्यादा अर्थपूर्ण नहीं हैं।
फारूक तीसरी बार 1996 में मुख्यमंत्री बने थे आतंकवाद के भीषण दौर के बीच। केन्द्र सरकार ने दुनिया को बताने के लिए और खासतौर से पाकिस्तान के प्रोपेगंडे का जवाब देने के लिए कि कश्मीर में जनता द्वारा चुनी सरकार है बहुत प्रतिकूल परिस्थितियों में 9 साल बाद ये चुनाव करवाए थे। फारूक से बहुत उम्मीदें थीं। मगर फारूक अपनी प्लेब्वाय इमेज से बाहर नहीं निकल पाए। दो अधिकारियों पर पूरी सरकार छोड़ रखी थी। भ्रष्टाचार और बढ़ गया था। राज्य में एक लाख नौकरियां निकाली गईं थी। अगर ईमानदारी से बेरोजगार युवाओं को मिल जातीं तो कश्मीर में बड़ा सुधार हो सकता था। विधायकों की सिफारिश से मिल जातीं तब भी लाभ हो सकता था। मगर सारी नौकरियां बिकीं।
पूरे 6 साल बरबाद कर दिए। 2002 में हारे। उसी के बाद 2002 से 2005 मुफ्ती साहब के टाइम में जम्मू कश्मीर में सबसे बेहतरीन काम हुआ है। आंतकवाद से लेकर भ्रष्टाचार सब जगह नियंत्रण हुआ। लेकिन 2005 में जब स्थिति में सुधार दिखने लगा तो उन्हें कांग्रेस से हुए समझौते के तहत गद्दी छोड़ना पड़ी। गुलामनबी आजाद बने। और घड़ी की सूई फिर पीछे की तरफ घूम गई। 2008 में फिर नेशनल कान्फ्रेंस ने वापसी की। और इस बार फारूक को किनारे करके उमर अब्दुल्ला ने गद्दी संभाली। मगर उमर ने भी अपने वालिद फारूक की ही
गलतियां दोहराईं। वाजपेयी सरकार में केन्द्र में मंत्री रहते हुए उमर ने जो काम करने वाली छवि बनाई थी वह गंवा दी। इसके लिए कश्मीर में कहा जाता है कि मुख्यमंत्री रहते हुए बाप बेटे दोनों को बेवकूफों का साथ बहुत पसंद
आता है। दोनों ने मिलकर कश्मीर के सबसे महत्वपूर्ण 12 साल गंवा दिए।
( लेखक ने आतंकवाद के सबसे खतरनाक दौर 1990 से 2000 तक जम्मू कश्मीर से रिपोर्टिंग की है )