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कच्छ की रहने वाली राजीबेन प्लास्टिक वेस्ट से अलग-अलग प्रोडक्ट बनाती हैं। वह कभी खुद मजदूर थी लेकिन आज वह 30 से 40 महिलाओं को रोजगार दे रही हैं। राजी वैसे तो एक बुनकर परिवार से हैं लेकिन वह कई समय से कच्छ में रह रही हैं और उन्होंने अपनी पारंपरिक कला को बिल्कुल नया रूप दे दिया है। यही वजह है कि वह आज आम बुनकरो से हटकर अपनी अलग पहचान बना पाई हैं। आज वह अपने ही नाम से एक सस्टेनेबल 'मेड इन इंडिया' ब्रांड चलाती हैं।
वैसे तो सामान्य रूप से कच्छ कला में बुनाई और कशीदाकारी का काम रेशम या ऊन के धागे से होता है । लेकिन राजीबेन बुनाई का काम प्लास्टिक वेस्ट से करती हैं और इससे ढेर सारे प्रोडक्टेस बनाती हैं। अपने बनाए हुए प्रोडक्ट्स को वह देश विदेश की प्रदर्शनी उन्हें भी पहुंचाती हैं लेकिन यहां तक आने के लिए उन्होंने काफी संघर्ष किया एक समय था जब राजी बेन मजदूरी का काम करती थी
राजीबेन बताती हैं कि उन्होंने अपने पिता से छुपकर ये कला सीखी थी लेकिन शादी के बाद उन्होंने इस कला से जुड़ कर काफी नाम कमाया। शादी के 12 साल बाद 2008 में उनके पति को दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया इसके बाद उन्होंने अपने तीन बच्चों की जिम्मेदारी संभाल ली।
इस मुश्किल समय में घर चलाने के लिए राजीबेन मजदूरी किया करती थीं। उसी दौरान उन्हें कच्छ की एक संस्था का पता चला, जो बुनकर महिलाओं को काम दे रही थी। राजीबेन ने मौके का फायदा उठाया और संस्था से जुड़ गईं। इसी संस्था में उन्हें प्लास्टिक से बुनाई का आईडिया मिला। 10 साल काम करने के बाद राजीव बहन ने खुद का ब्रांड बनाने का फैसला किया लेकिन उन्हें मार्केटिंग के बारे में नहीं पता था। इसके लिए उन्होंने नीलेश प्रियदर्शी से संपर्क किया और कुछ महीनों बाद देशभर में उनका ब्रांड छा गया।वह देश के अलग-अलग शहरों की प्रदर्शनी में भाग लेने जाती हैं।
फ़िलहाल, राजीबेन के साथ 30 महिलाएं काम कर रही हैं। कच्छ के अलग-अलग इलाकों से प्लास्टिक वेस्ट लाने के लिए आठ महिलाएं काम कर रही हैं। महिलाओं को एक किलो प्लास्टिक वेस्ट के एवज में 20 रुपये मिलते हैं।
फिलहाल वह तकरीबन 20 से 25 प्रोडक्ट्स बना रही हैं, जिसकी कीमत 200 से 1300 रुपये तक है। इस तरह जमा किए गए प्लास्टिक वेस्ट को पहले धोकर सुखाया जाता है।
इसके बाद इसे रंगों के आधार पर अलग किया जाता है। फिर इस प्लास्टिक की कटिंग करके धागे बनाए जाते हैं, जिसके बाद बुनाई का काम होता है। एक बैग बनाने में वे तकरीबन 75 प्लाटिक बैग्स को रीसायकल करते हैं। प्लास्टिक धोने के लिए महिलाओं को प्रतिकिलो 20 रुपये दिए जाते हैं, जबकि कटिंग करने वाली महिलाओं को प्रति किलो 150 रुपये दिए जाते हैं। साथ ही एक मीटर शीट बनाने पर महिलाओं को 200 रुपये दिए जाते हैं।