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दो दिन से यह तस्वीर कई बार आंखों के सामने आ चुकी है, शब्द लिखते लिखते रो पड़ा मन
मनीष सिंह
मगर सच कहूं तो जब पहली बार आई, फट से स्क्रॉल कर दिया। तस्वीर ठीक से देखने की हिम्मत नही थी। मगर जो आंखों से दूर करने की कोशिश की, वो दिल मे पैवस्त हो गयी। हटती ही नही आंखों से। भूत की तरह ये चेहरा पीछा कर रहा है।
गालों पर लुढ़क आया ये आंसू है। ये चेहरे पर शॉक है, विवशता है, नाउम्मीदी है। ये विवशता फैल जाती है, चारो ओर। हवा में, दीवारों पर, खिड़कियों के पार। जिस तरफ देख रहा हूं, हर ओर बस इस मासूम की विवशता है... या मेरी।
आप और मैं मरेंगे न साहब, तो हमारे बच्चे की शक्ल ऐसी ही होगी। तो वो स्तंभित है या मैं, वो नाउम्मीद है या मैं ज्यादा। बस एक बार उसकी आँखों में देखिए। आपको अपना बाप मरा हुआ लगेगा। अपना बेटा अनाथ दिखेगा।
मुझे नही पता करना कि बच्चा हिन्दू है या मुसलमान। मुझे जानने की इच्छा नही कि कफ़न में लिपटा बाप दंगे करने गया था, दंगे की प्रतिक्रिया करने गया था, या दंगे उंसके गिर्द उग आए थे।
हमने ऐसा देश बना लिया है, जिसमे इस बच्चे की घुटी हुई चीख विजय का प्रतीक है। जाने किसकी जीत, जाने किसके ऊपर.. । हर हमले के बाद हम ही घायल हैं, हमारे बच्चे उदास हैं, हमारी आत्माएं छलनी है। तो ये विजयोल्लास की आवाजें कहां से आ रही हैं??
मैं क्या कर सकता हूं... मैं क्या कर सकता था। क्या कोई था, आगे बढ़कर जिसके हाथ पकड़ लेता। उंसके हथियार छीनकर छुपा देता। मौके पर उंसके सामने जाकर खुद पर हथियार झेल लेता। मैं नही तो कोई तो होता, कहीं पर होता, जो ये सब होने के पहले रोक लेता। अब सजा और न्याय की बात से ये आंसू नही थमेंगे।
हम नही रोक पाए। हम फेल हो गए। अब न्याय होता है या नही, इस बच्चे को फर्क नही पड़ता। इस लाश को फर्क नही पड़ता। शायद देश को भी फर्क नही पड़ता।
मगर कहीं ईश्वर है, अल्लाह है तो इसे यतीम करने वालो को फर्क पड़ेगा। ऐसा फर्क, जो दुनिया देखेगी, महसूस करेगी। जो याद रखा जाएगा। जो ईश्वर के होने का एहसास दिलाएगा।
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