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किरण रिजिजू न्यायपालिका के खिलाफ मुखर हैं। यहां तक कहा है कि जजों की नियुक्ति का काम सरकार का है और यह सवाल उठा चुके हैं कि देश चलाना निर्वाचित सरकार का काम है या न्यायपालिका का? यही नहीं, उन्होंने जजों की नियुक्ति के कॉलेजियम सिस्टम पर भी सवाल उठाया है और कहा है कि जज न्याय देने के बजाय न्यायाधीशों की नियुक्ति में व्यस्त हैं। वैसे तो न्याय देने के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति जरूरी है और मुद्दा यह रह जाता है कि नियुक्ति कैसे हो या कौन करे पर सरकार का काम चुनाव लड़ना, लड़ाना और जीतना तो नहीं ही है और ना ही भाषण देना।
यह जरूर है कि नियुक्ति कैसे हो, हो और समय पर हो। लेकिन प्रधानसेवक खुद और उनके नेतृत्व में लगभग पूरी सरकार काम कम चुनाव जीतने में जयादा लगी रहती है। रिजिजू इसपर बोलेंगे नहीं और यह उनकी राजनीति है। इन दिनों जो राजनीति चल रही है उनमें 'अंग्रेजों के राजपथ' का नाम भी बदला जा चुका है और अब वह कर्तव्यपथ है। सरकार समर्थकों को यह बदलाव पसंद तो आया ही है। इसकी तारीफ भी हुई है। लेकिन कर्तव्य के नाम पर जजों की नियुक्ति की राजनीति पर नजर है। ऐसे में अंग्रेजों का बनाया 1890 का राजद्रोह कानून अभी चल रहा है। इस साल मई में सुप्रीम कोर्ट ने इसपर रोक लगा दी थी और सरकार ने इसकी समीक्षा का आश्वासन दिया है। तब तक रोक लागू रहेगी।
सोमवार, 31 अक्तूबर को सुप्रीम कोर्ट इस मामले पर फिर सख्ती दिखाई और सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में इस कानून में बदलाव लाने को राजी हुई है। सरकार ने इस मामले में सुनवाई टालने का आग्रह किया था जिसे स्वीकार कर लिया गया है। तब तक इसपर रोक जारी रहेगी। सुप्रीम कोर्ट इस मामले में जनवरी के दूसरे हफ्ते में सुनवाई करेगा। कोर्ट ने उस वक्त नागरिकों के अधिकारों की रक्षा को सर्वोपरि बताया था और कहा था कि देश में इस कानून का दुरुपयोग हो रहा है। दूसरी ओर सरकार की प्राथमिकताएं आप देख रहे हैं और ऐसे में किरण रिजिजू के गुस्से का कारण भी समझा जा सकता है।
इस पर महुआ मोइत्रा का एक ट्वीट है, "सर, इस मामले में एक याचिकाकर्ता के रूप में मैं आपको याद दिला दूं कि यह कानून 1890 का है और आपकी सरकार के पास इसे बदलने के लिए पर्याप्त समय था। पर बदला नहीं गया। भगवान का शुक्र है, सुप्रीम कोर्ट ने कार्रवाई की।" अब सवाल यह है कि इन दिनों राजनीति कर कौन रहा है और किसे करने दिया जा रहा है। और कौन कर पा रहा है। जब प्रधानमंत्री पर उम्मीदवार को चुनाव मैदान से हट जाने के लिए कहने का दबाव है। तब यह याद क्यों नहीं दिलाया जाना चाहिए कि नेहरू जी ने गलती से टिकट दे दिए जाने या झूठ बोल कर टिकट लेने वाले के खिलाफ प्रचार करके पार्टी के उम्मीदवार को हरवा दिया था। अब ईडी और सीबीआई से क्या करवाया जा रहा है।