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राकेश अस्थाना का रिटायरमेंट के तीन दिन पहले क्यों बनाया दिल्ली पुलिस कमिश्नर, पूर्व आईपीएस ने किया खुलासा
पूर्व आईपीएस विजय शंकर सिंह
राकेश अस्थाना दिल्ली के नए पुलिस कमिश्नर नियुक्त हुए हैं। गुजरात कैडर के 1984 बैच के आईपीएस अफसर राकेश जी, प्रधानमंत्री नरेंद मोदी के बेहद नज़दीकी अफसर समझे जाते रहे हैं। जब ये सीबीआई में स्पेशल डायरेक्टर थे तो तत्कालीन सीबीआई प्रमुख आलोक वर्मा से इनका अच्छा खासा विवाद भी हुआ था। आलोक वर्मा को, राफेल मामले में पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट प्रशांत भूषण से मुलाकात करने और राफेल मामले में जांच हेतु प्रार्थनापत्र लेने के कारण, उसी दिन, बिना नियुक्ति समिति की राय और सहमति के रात में ही हटा दिया गया और नागेश्वर राव को सीबीआई का अंतरिम प्रमुख बना दिया गया था। तब से सत्ता के गलियारों में यह चर्चा थी कि, राकेश अस्थाना ही अगले सीबीआई प्रमुख होंगे। लेकिन वर्तमान सीजेआई रमन्ना के रुख और एक आपत्ति के कारण ऐसा न हो सका।
हुआ यह कि, सीबीआई डायरेक्टर का पद फ़रवरी 2021 से ख़ाली पड़ा था। इस पद पर कोई नियमित नियुक्ति नहीं हुई थी। इस बीच 'कॉमन कॉज़' नाम के एक एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर की, कि, सीबीआई डायरेक्टर पद पर जल्द कोई नियुक्ति की जाए। मई महीने में इस पर काम शुरू हुआ। कुल 109 संभावित उम्मीदवारों के नाम चयन समिति को भेजे गए। सत्ता के गलियारों में एक फुसफुसाहट पहले से ही थी कि, 1984 बैच के वाईसी मोदी और राकेश अस्थाना सरकार के भरोसेमंद हैं और इन्हीं में से किसी एक को, सीबीआई डायरेक्टर बनाया जा सकता है। लेकिन, कमेटी में शामिल चीफ़ जस्टिस एनवी रमन्ना ने प्रधानमंत्री को ध्यान दिलाया कि 2019 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के अनुसार, जिन अफ़सरों के रिटायरमेंट में सिर्फ़ छह महीने से कम वक़्त बचा हो, उन्हें डीजीपी स्तर के पदों पर नियुक्त न किया जाए। राकेश अस्थाना अभी बीएसएफ के डीजी हैं, और वे 31 जुलाई को रिटायर हो रहे हैं। इस नियम की वजह से वे सीबीआई प्रमुख की नियुक्ति प्रक्रिया से बाहर हो गए। तब सीआईएसएफ के डीजी, सुबोध कुमार जायसवाल को सीबीआई प्रमुख नियुक्त किया गया।
अब राकेश अस्थाना दिल्ली के पुलिस कमिश्नर होंगे। यह पद भी डीजी के समकक्ष है लेकिन दो साल की बाध्यता का नियम इस पद पर नहीं लागू है अतः 31 जुलाई को उनकी आसन्न सेवानिवृत्ति को देखते हुए सरकार ने उन्हें एक साल का सेवा विस्तार दिया है। सरकार किसी भी अखिल भारतीय सेवा के अफसर को सेवा विस्तार दे सकती है पर सेवा विस्तार के भी नियम हैं। सेवा विस्तार की सामान्य नियमों के अनुसार,
● सेवानिवृत्ति की अधिकतम आयु 60 वर्ष से अधिक नहीं होगी।
● चिकित्सा और वैज्ञानिक विशेषज्ञों के मामले में, उन्हें सेवा में विस्तार दिया जा सकता है लेकिन अधिकतम 62 वर्ष तक।
● अन्य को, सेवानिवृत्ति की आयु से परे सेवा में विस्तार पर पूर्ण प्रतिबंध होगा।
यह एक सामान्य नियम है। पर 'शो मी द फेस, आई विल शो यू द रूल' के अनुसार, जैसे सभी नियमों के अपवाद होते हैं, इस नियम का भी अपवाद है। यह व्यवस्था इसलिए भी बनाई गई है जिससे कि यदि कोई अधिकारी किसी ऐसे आवश्यक राजकीय कार्य मे लगाया गया हो और वह, उसी बीच अपनी अधिवर्षता की आयु पूरी कर के रिटायर हो रहा हो तो, उसे कुछ महीनों का सेवा विस्तार दे दिया जाता है। उद्देश्य उस राजकीय कार्य मे आ सकने वाले व्यवधान को बचाना है न कि उक्त अधिकारी को लाभ पहुंचाना और उपकृत करना है। एक साल का सेवा विस्तार एक ही बार मे कम ही दिया जाता है। सेवा विस्तार की अवधि तीन माह की होती है और फिर अधिकतम तीन माह का सेवा विस्तार औऱ दिया जा सकता है। पर इस मामले में यह सेवा विस्तार एक ही बार मे एक साल के लिये दिया जा रहा है। निश्चय ही इस पर कोई न कोई आपत्ति करेगा और यह मामला अदालत में भी जा सकता है। इसका एक कारण राकेश अस्थाना का राजनैतिक रूप से विवादित होना भी है।
यूनियन टेरिटरी ( यूटी ) काडर के एसएन श्रीवास्तव 30 जून को दिल्ली के पुलिस कमिश्नर पद से रिटायर हुए थे। उनकी जगह बालाजी श्रीवास्तव को यह जिम्मेदारी दी गई थी। महत्वपूर्ण बात यह है कि दिल्ली में 19 साल बाद यूटी काडर से बाहर के किसी अधिकारी को सर्वोच्च पद पर बैठाया गया है। इससे पहले 1966 बैच के आईपीएस अधिकारी अजय राज शर्मा को यह अवसर मिला था। उत्तर प्रदेश काडर से होने के बावजूद अजय राज शर्मा को जुलाई 1999 में दिल्ली पुलिस का कमिश्नर बनाया गया था। वह जून 2002 तक इस पद पर रहे थे।
राकेश अस्थाना काफी तेज-तर्रार अफसर माने जाते हैं। चारा घोटाले से जुड़े मामले की जांच में राकेश अस्थाना की अहम भूमिका थी। सीबीआई एसपी रहते हुए चारा घोटाले की जांच उनकी अगुआई में की गई थी। अतिरिक्त प्रभार के रूप में वे नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के डीजी भी रहे हैं। उनकी निगरानी में ही सुशांत सिंह राजपूत की मौत से जुड़े ड्रग्स केस की जांच शुरू हुई थी। इसके अतिरिक्त, उन्होंने राजनीतिक रूप से संवेदनशील कई मामलों की भी जांच की है, जैसे- आगस्टा वेस्टलैंड स्कैम, INX मीडिया केस, विजय माल्या के खिलाफ किंगफिशर एयरलाइंस लोन फ्रॉड, राजस्थान का ऐंबुलेंस स्कैम, जिसमें अशोक गहलोत, सचिन पायलट और कार्ति चिदंबरम भी घिरे थे, गोधरा ट्रेन कांड में साजिश सहित कई मामले हैं।
कुछ प्रमुख विवादित मामले यह भी है।
● सीबीआई में नियुक्ति के दौरान तत्कालीन डायरेक्टर आलोक वर्मा और उनके बीच हुआ विवाद काफी सुर्खियों में रहा था। दोनों ने भ्रष्टाचार के एक मामले की जांच में एक दूसरे पर घूसघोरी और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए थे।
● इशरत जहां केस में गुजरात काडर के एक और आईपीएस अफसर सतीश वर्मा ने गुजरात हाई कोर्ट में याचिका दाखिल कर कहा था कि, गुजरात सरकार के प्रभाव में कैसे अस्थाना ने साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ करने के लिए एक फोरेंसिक अधिकारी को मजबूर करने की कोशिश की थी। सतीश वर्मा अपने पेशेवराना छवि के लिए जाने जाते थे।
● जोधपुर पुलिस की ओर से, आसाराम बापू को गिरफ्तार करने के बाद चर्चा थी कि उनका बेटा नारायण साईं मानव तस्करी के रैकेट में शामिल है। गुजरात सरकार ने उसे गिरफ्तार करने का फैसला किया और वह अस्थाना थे, जिन्हें यह जिम्मेदारी सौंपी गई।
राष्ट्रीय पुलिस कमीशन यानी धर्मवीर पुलिस आयोग की चर्चा, जब भी पुलिस सुधार की बात उठती है तो अक्सर की जाती है, और जब जब पुलिस सुधार की बात की की जाती है तो, प्रकाश सिंह बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मुकदमे का भी उल्लेख होता है। देश में पुलिस-सुधार के प्रयासों की भी एक लंबी श्रृंखला है, जिसमें विधि आयोग, मलिमथ समिति, पद्मनाभैया समिति, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, सोली सोराबजी समिति तथा सबसे महत्त्वपूर्ण प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ-2006 मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गए निर्देश हैं। इन सभी आयोगों में सर्वाधिक चर्चित रहा धर्मवीर आयोग, जिसने फरवरी 1979 और 1981 के बीच कुल आठ रिपोर्टें दी थीं। जब काफी लंबे समय तक धर्मवीर आयोग (राष्ट्रीय पुलिस आयोग) की सिफारिशों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया तो इन्हें लागू करवाने के लिये प्रकाश सिंह ने सर्वोच्च न्यायालय में वर्ष 1996 में एक जनहित याचिका दायर की और 22 सितंबर, 2006 को आयोग की सिफारिशों की पड़ताल कर न्यायालय ने राज्यों और केंद्र के लिये कुछ दिशा-निर्देश जारी किये। लेकिन लगभग 15 वर्ष बीतने के बाद भी इनका पूर्णतः अनुपालन सुनिश्चित नहीं हो पाया है।
1980 में गठित पुलिस कमीशन के अनुसार, आज की परिस्थितियों में पुलिस सुधार क्यों आवश्यक है, इस पर नज़र डालते हैं। 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने प्रकाश सिंह की याचिका पर यह फैसला दिया कि चरणों मे ही सही, पुलिस कमीशन की अनुशंसाएं लागू की जांय। कमीशन ने राजनीतिक हस्तक्षेप की बढ़ती प्रवित्ति को देखते हुए डीजीपी, जिले के एसएसपी और थानों के एसओ को 2 वर्ष का कार्यकाल निर्धारित करने की सिफारिश की थी। पुलिस सुधारों से संबंधित अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने कई अन्य महत्त्वपूर्ण बातों के अलावा यह भी कहा था कि राज्यों में डीजीपी को कम से कम 2 वर्षों का कार्यकाल दिया जाए। अदालत ने एसएसपी और एसओ के पद के लिये अभी कुछ भी नहीं कहा।
लेकिन 2006 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हाल ही में केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में एक आवेदन पत्र दायर किया है, जिसमें कहा गया है कि न्यायालय को वर्ष 2006 के पुलिस सुधारों से संबंधित अपने आदेश पर पुनर्विचार करना चाहिये। सरकारें पुलिस सुधार के मामले में बेहद सुस्त हैं। यह मनोवृत्ति किसी एक दल के सरकार की नहीं है, बल्कि यह मानसिकता सभी दलों की सरकार की है। पुलिस सुधारों से संबंधित न्यायालय के अन्य निर्णयों को लागू करने में लगभग सभी राज्यों का रवैया ढुलमुल रहा है। डीजीपी के लिये 2 वर्षों के कार्यकाल वाले आदेश का तो जमकर दुरुपयोग भी किया जा रहा है। कई राज्य तो सेवानिवृत्त होने की उम्र में आ चुके अपने मनपसंद अधिकारियों को सेवानिवृत्ति से मात्र कुछ दिन पहले डीजीपी के पद पर नियुक्त कर दे रहे हैं। परिणामस्वरूप, पुलिस सुधार के निर्देश, लंबे समय से उपेक्षित रहे हैं और वे सरकारों के प्रशासनिक सुधार की प्राथमिकता में भी नहीं है।
पुलिस कमीशन ने पुलिस की मुख्य ढांचागत कमियाँ इस प्रकार स्पष्ट की हैं।
● कार्यबल में कमी।
● फॉरेंसिक जाँच व प्रशिक्षण की निम्न गुणवत्ता।
● अत्याधुनिक हथियारों की कमी।
● वाहनों व संचार साधनों की कमी।
● पदोन्नति तथा कार्य के घंटों को लेकर भी कार्मिक समस्या बनी हुई है और ये अवसंरचनात्मक कमियाँ पुलिस की कार्यशैली को प्रभावित करती हैं।
● पुलिस भर्ती के नियमों में पारदर्शिता की कमी के कारण इसमें बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार होता है।
● पुलिस की छवि आज एक भ्रष्ट और गैर-ज़िम्मेदार विभाग की बन चुकी है। यह प्रवृत्ति देश की कानून-व्यवस्था के लिये खतरनाक है।
उपरोक्त विंदु प्रोफेशनल पुलिसिंग के हैं पर वह विंदु जिसके कारण पुलिस सदैव आलोचना के केंद्र में रहती है, वह है पुलिस बल में राजनैतिक हस्तक्षेप। इस पर आयोग का ऑब्जर्वेशन यह है कि,
● लोगों में यह आमधारणा बन गई है कि पुलिस प्रशासन सत्ता पक्ष द्वारा नियंत्रित होता है।
● राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण आम जनता के प्रति पुलिस की जवाबदेही संदिग्ध हो गई है।
जनता तो राजनीतिक हस्तक्षेप की शिकायत करती ही है पर सबसे हास्यास्पद पक्ष यह है कि, सभी राजनैतिक दल भी इसी तरह की बात करते हैं। जबकि सरकार किसी भी दल की हो, वह चाहती है कि, पुलिस उसी के इशारे पर काम करे। अभी हाल ही में हुए दिल्ली दंगे की विवेचना में कई त्रुटियों और पक्षपात पर दिल्ली हाईकोर्ट और सेशन कोर्ट के कई फैसले दिल्ली पुलिस के खिलाफ आये हैं। दिल्ली पुलिस पर ₹ 25000 का अर्थदंड भी अदालत ने लगाया है और उनकी विवेचना पर गम्भीर सवाल उठाए हैं। एनआईए जैसी बड़ी जांच एजेंसी की विवेचना में प्रोफेशनल कमियां मिली हैं। उनपर भी आरोप है कि राजनीतिक विचारधारा और मतवैभिन्यता के चलते उन्होंने मानवाधिकार कार्यकर्ताओ को फंसाया है। एनएसए यानी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून जैसे महत्वपूर्ण निरोधात्मक प्राविधान का इस्तेमाल, बेहद लापरवाही से सरकार विरोधी दृष्टिकोण रखने वाले नागरिकों, नेताओ और पत्रकारों के खिलाफ किया गया है। सीबीआई को तो खुली अदालत में पिंजड़े का तोता बोला ही जा चुका है। यह वे महत्वपूर्ण जांच एजेंसियां हैं जो गम्भीर आरोपो के संवेदनशील अपराधों की विवेचना करती है और देश की प्रमुख जांच एजेंसियां हैं।
अब अगर कानून व्यवस्था की बात करें तो यहां राजनीतिक हस्तक्षेप अक्सर, साफ तौर पर दिखता है। अभी यूपी के पंचायत चुनाव में कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए जिम्मेदार पुलिस बल, कदम कदम पर खुद ही कानून व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ाता नज़र आया। सबको पुलिस का यह खुला पक्षपाती रवैया साफ साफ दिख रहा था, पर एसपी से लेकर डीजीपी तक किसी ने इस निर्लज्जता भरे हस्तक्षेप पर ज़ुबान तक नही खोली। सोशल मीडिया होने के काऱण कुछ मामले जब छुपाए न जा सके तो उन पर ज़रूर कार्यवाही की गई। एक बचकाना तर्क भी दिया गया कि, पुलिस की यही भूमिका तो, सपा और बसपा के शासनकाल में भी रही है। यही काम बंगाल में टीएमसी की सरकार ने किया। यह तर्क तथ्यात्मक रूप से सच भी हो तो, क्या एक सरकार द्वारा पुलिस बल का राजनीतिक हित के लिए किया जाने वाला दुरुपयोग, दूसरी सरकारों के लिये भी मानने योग्य नजीर बन सकती है ? फिर यही एक कानून क्यों नही बना दिया जाना चाहिए कि पुलिस अपने राजकीय कार्यो के निष्पादन में सत्तारूढ़ दल को प्राथमिकता देगी और वह कानून के बजाय सत्तारूढ़ दल औऱ उसकी सरकार के ही दिशा निर्देशों पर काम करेगी !
राजनीतिक रूप से प्रतिबद्ध पुलिस बल का सबसे अधिक दुष्प्रभाव उन अधिकारियों के मनोबल पर पड़ता है जो बिना किसी राजनैतिक दलीय प्रतिबद्धता के एक प्रोफेशनल पुलिसकर्मी के रूप में अपने दायित्वों का निर्वहन करते हैं। जाति, क्षेत्र, और राजनीतिक दलीय प्रतिबद्धता के आधार पर विभाजित होते हुए, पुलिस बल में धर्म की छौंक अब औऱ लग गयी है। इस प्रवित्ति को रोकना होगा। ऐसा भी नहीं है कि यह रोग केवल पुलिस बल में ही है, बल्कि सरकार के अन्य विभाग भी इन्ही लाइनों पर कभी कभी विभाजित नज़र आते हैं, पर पुलिस जो मुख्य रूप से सबसे अधिक जनशक्ति और प्रत्यक्ष दिखने वाला सरकारी महकमा है, जिसका दायित्व और धर्म ही है कि, वह कानून के राज्य को लागू करे, उसका तरह तरह के कठघरों में बंट जाना और विभाजित दिखना, न केवल देश को अराजकता की ओर ले जाएगा बल्कि वह एक ऐसा विभाजनकारी समाज बना देगा कि हम सब एक दूसरे से अनावश्यक और अनजाने डर और आशंका की क़ैदगाहों में सिमट कर रह जाएंगे। इस जटिल समस्या का समाधान अदालतें नही हैं, हालांकि वे इसके समाधान हेतु किसी भी अन्य संस्था से अधिक प्रस्तुत हर सजग रहती हैं, पर इनका हल, पुलिस के उच्चाधिकारियों और राजनीतिक दलो को मिलकर ढूंढना होगा और सत्तारूढ़ दल का यह दायित्व है कि वह इस पहल का नेतृत्व करें। पर आज जैसी विभाजनकारी राजनीति और सभी राजनीतिक दलों में परस्पर शत्रुता भाव दिख रहा है, उसे देखते हुए क्या यह सम्भव हो पायेगा। फिलहाल तो इस पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है।