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सविता चड्ढा
आज आपसे बात करने का अवसर मिला है, सोचती हूँ कहां से अपनी बात करूँ और कौन कौन सी बात करूँ । बहुत पहले लड़कियों को लेकर परिवारों में विरोध होते थे, हमारे परिवार में भी हुए थे.जब मेरे बाद मेरी छोटी बहन हुई सबको बुरा लगा था. लेकिन पिता ने मां का बचाव किया था.मुझे वह समय भी कुरेदता है , जब लिंग जाँच की सुविधा समाज को नहीं थी वो समय बहुत ही भयावह था जब बेटियों को पैदा होते ही मार जाता था।
आज परिस्थितियाँ बहुत बदल गई हैं.समाज की सोच बदली है, कानून और हमारी सरकार महिलाओं के प्रति सकारात्मक हो गई हैं. सोच पर पड़े परदे हट गए हैं.इस सबके बावजूद बेटियों को लेकर आये दिन हमारे घ्यान में कोई न कोई बुरी - खबर आती रहती है, चाहे वह खबर बलात्कार की हो, अपहरण, हत्या,आत्महत्या, बेमेल विवाह, दहेज या घरेलु हिंसा की हो । कोई न कोई मसला प्रति दिन हम सबको चौंकाता ही है । हम इन सबके लिए कभी सरकार, कभी प्रशासन कभी समाज या कभी पुरुष वर्ग को दोष देकर , अपना बहुत नुकसान करने के बाद, इन सबके लिए दूसरों पर आरोप लगा कर बचने का ढोंग कर लेते हैं । क्या हमने इन परिणामों के लिए कभी अपने भीतर कुछ तलाश किया है ।
हमेशा दूसरों पर आरोप लगाकर हम केवल दूसरों को दोषी कह सकते हैं परंतु वास्तविकता से मुंह मोड़कर हम समस्याओं का हल नहीं कर सकते । मैं इस बात से सहमत हूं कि जो अशुभ और दुष्टता के प्रतिनिधि हैं उन्हें यदि सबको रोंदने और कुचलने के लिए खुला छोड़ दिया जाये तो वे न केवल समाज बल्कि अपने उपर भी इतनी बड़ी तबाही बुला सकते है जिसकी हम कल्पना ही नहीं कर सकते अता: उन्हें रोकना और बल प्रयोग करना भी गलत नहीं होगा ।
मेरा कहना यह है कि क्यों न हम प्रयास करें कि इन परिस्थितियों से खुद को बचा सके और स्वयं को इनसे दूर रखने का प्रयास भी किया जाये । हम बहुत बहादुर है यह जताने के लिए यह जरुरी नहीं कि हम कम या छोटे छोटे कपड़े पहने, हम रात को बाहर ही रहें, अंधेरें में निकले और अंधेरे में ही घर आये, हम बहादुर है यह सिद्ध करने के लिए हम बेवजह बहादुरी का अभद्र प्रदर्शन करते रहे । मुझे यह लिखते हुये बेहद कष्ट है कि मर्यादा रहित रहने, चीख कर और कंटीला बोलने को हम फैशन मानने की कतई भी गलती न करें । मैं हमेशा कहती हूँ जीवन मर्यादा और सीमाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. मेरी तो मान्यता है की श्रेष्ठ लेखन करना गंगा में स्नान करने जैसा हैं. गंगा में स्नान करते समय हमें जी तरह मर्यादित रहना है उसी प्रकार लेखन में भी , प्रत्येक क्षेत्र में अपनी सीमा तै करनी है, हमें अपना ध्यान खुद रखना है. कुछ लोग मेरी इस बात सहमत नहीं हो सकते है ।
आजकल, दादा- दादी और नाना -नानी कहां साथ रहते हैं. अपने मालिक खुद की परंपरा ने और संयम से परे होकर जीने के कारण अपना विनाश आंमत्रित कर लेते हैं । हम स्वयं कठोर बोल तो लेते हैं लेकिन दूसरों की कठोर बातें सुन नहीं सकते । हम सोचते है है कि केवल हम ही इस दुनिया में पैदा हुंये हैं, दूसरों को बुरा कहने और दूसरों का बुरा करने का हक केवल हम को है लेकिन ऐसा नहीं है।
मुझे इस देश की सभी बेटियों की बहुत चिंता हैं, बस मैं तो चाहती हूँ जवानी की दहलीज़ पर पाव रखने से पहले ही किसी भी बेटी के पाँव डगमगाने न पाएँ । आपके मन को पता हो की आपके कर्म का परिणाम आपके लिए, आपके परिवार, समाज और फिर देश को क्या हो सकता है। बिना होशोहवास के आप कभी कोई निर्णय न लें ।
12 साल की उम्र के बाद जब परों में उड़ान भरने की इतनी ख़्वाहिश होती है कि वह बिना ये जाने ,बिना ये सोचे समझे आकाश की और उड़ जाता है कि आगे कि उड़ान का सफर सिर्फ परों से नहीं विवेक से होना चाहिए। आप सब बेटियों का जीवन सोने सा पवित्र रहे, आपके हर कदम पर फूलों की पंखुरिया बिछें और आपको कभी किसी की घूरती निगाह का सामना न करना पड़े । आप जहाँ से निकले शीतल ब्यार के झोंके आपका स्वागत करें
आप भली भांति जानते हैं, मनुष्य की जीवन भर की तमाम उलझनों और परेशानियों का एक ही कारण होता है और वह है उसकी हीनता की ग्रंथि । इसे हम और आप अंग्रेजी में इनफिरीटी काम्पलेक्स कहते है ।यही हीन भावना किसी को कभी प्रसन्न नहीं रहने देती । इसका अर्थ यह है कि हम कहीं भी रहें, कैसे भी रहें सदा ही हमारे मन को एक भय या विचार सालता है और यह भय एक दर्द के रूप में हमारे साथ बना रहता है ।
हीन भावना से ग्रस्त व्यक्ति के मन में सदा ही एक डर रहता है कि कोई दूसरा उससे आगे है, दूसरा उससे ऊपर है, कहीं दूसरा उससे अधिक प्राप्त न कर ले और वह अपने मन की इस सोच के कारण सदा अशांत बना रहता है । कोई कितना भी समृद्ध हो अगर हीन भावना से उसकी दोस्ती है तो जीवन भर वह दुखी रहता है ।
अगला पड़ाव तो और भी दुखदाई हो सकता है जब स्थिति ये हो - चाहे वह किसी को जानता है या नहीं बस किसी भी दूसरे को देख देख दुखी होता रहता है और अपने जीवन का आनंद भूल जाता है । मन में हीनता की ग्रंथि लेकर हर व्यक्ति से अपनी तुलना करना हमें सदा सदा के लिए रोगी भी बना सकता है जिसका इलाज कहीं नहीं होता, कभी नहीं होता ।
ऐसे व्यक्ति को लगने लगता है कि सामने वाला व्यक्ति जानबूझकर उसे नीचा दिख रहा है पर ऐसा नहीं होता । हकीकत तो ये होती है कि समने वाले को तो पता भी नहीं लगता कि कोई उसे देखकर दुखी हो रहा है । वो आनंदित रहता है और हीन भावना वाला व्यक्ति उसे देख देखकर परेशान हो जाता है, यहां तक कि अपने घर आकर भी, यहां तक कि जीवन भर के लिए अपने दिल में उस व्यक्ति के लिए दुर्भावना उत्पन्न कर लेता है और असफल हो जाता है ।
जब मै विद्यार्थी थी, हमें अपने स्कूल की ओर से राष्ट्रपति भवन में फखरुद्दीन अली अहमद साहेब के समक्ष प्रस्तुत होना था। सब विद्यार्थी एक जैसी वेशभूषा, एक जैसे शिंगार के साथ थे,लेकिन दो छात्राएं ऐसे व्यवहार कर रही थी जैसे वे आसमान से उतरी हों। अरे भाई ये दुनिया सबकी है, किसी एक का घर नहीं।यहां सब का पूरा हक है, धरती,आकाश,सूरज , चांद,हवा,पानी, नदियां, सब पर सबका अधिकार है। मैंने तो शुरू से ही समानता,सीमाओं और मर्यादा को अपनाकर जीवन जिया है।19 वर्ष की आयु में सरकारी नौकरी मिल गई और वर्ष,2013 में सेवानिवृत्त हो गई।जीवनभर कोई परेशानी नहीं हुई।कुछ लोग मिले थे ऐसे जो चाहते थे और सोचते थे कि केवल उन्हें है इस दुनिया में सिर उठाकर और सम्मान के साथ जीने का हक है।ऐसे लोगो का विरोध जायज था, किया भी। किसी पुरुष को ये। हक भी नहीं कि वे अपने पुरुषत्व के कारण महिलाओं को नीचा समझने का प्रयास करे।