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जब भी ईद की बात होती है, तो सबसे पहले जिक्र आता है EID के चांद का. ईद का चांद रमजान के 30वें रोज़े के बाद ही दिखता है. इस चांद को देखकर ही ईद मनाई जाती है. इसे लोग ईद-उल-फित्र भी कहते हैं. इस्लामिक कैलेंडर में दो ईद मनाई जाती हैं. दूसरी ईद जो ईद-उल-जुहा या बकरीद के नाम से भी जानी जाती है. ईद-उल-फित्र का यह त्योहार रमजान का चांद डूबने और ईद का चांद नजर आने पर इस्लामिक महीने की पहली तारीख को मनाया जाता है.
मुसलमानों का ये त्योहार भाईचारे और प्रेम को बढ़ावा देने वाला त्यौहार व पर्व है. ईद को सभी आपस में मिल के मनाते हैं और खुदा से दुआएं करते हैं कि सुख-शांति और बरक्कत बनी रहे. 624 ईस्वी में पहला ईद-उल-फ़ित्र मनाया गया था. पैगम्बर हजरत मुहम्मद ने बद्र के युद्ध में विजय प्राप्त की थी. यह त्योहर उसी खुशी में मनाया गया था.
रमज़ान के पूरे महीने रोजे रखने के बाद इसके खत्म होने की खुशी में ईद के दिन कई तरह के पकवान बनाए जाते हैं. सुबह उठकर ईदगाह और मस्जिदों में नमाज अदा की जाती है और ख़ुदा का शुक्र अदा किया जाता है कि उसने पूरे महीने हमें रोजे रखने की शक्ति दी.
ईद से पहले जकात और फितरा देने का महत्व-
इस दिन इस्लाम को मानने वाले का फर्ज होता है कि अपनी हैसियत के हिसाब से जरूरतमंदों को दान दें. इस दान को इस्लाम में जकात और फितरा भी कहा जाता है. सभी हैसियतमंद मुसलमानों पर फर्ज है कि वो जरूरतमंदों को दान दें. रमजान में इस दान को दो रूप में दिया जाता है, फितरा और जकात. दरअसल, रमजान के महीने में ईद से पहले फितरा और जकात देना हर हैसियतमंद मुसलमान पर फर्ज होता है. इस पर रोशनी डालते हुए विश्व विख्यात इस्लामिक संस्थान दारूल उलूम देवबंद के जनसंपर्क अधिकारी अशरफ उस्मानी साहब ने बताया, 'अल्लाह ताला ने ईद का त्योहार गरीब और अमीर सभी के लिए बनाया है. गरीबी की वजह से लोगों की खुशी में कमी ना आए इसलिए अल्लाह ताला ने हर संपन्न मुसलमान पर जकात और फितरा देना फर्ज कर दिया है.'
अल्लाह की रहमत-ईद के त्योहार पर लोग ईदगाह में नमाज पढ़ने जाते हैं. इसके बाद एक दूसरे के गले मिलते हैं और ईद मुबारक बोलते हैं. इतना ही नहीं सब लोग साथ में मिलकर खाना भी खाते हैं. कहा जाता है कि आपसी प्रेम व भाईचारे को अपनाने वालों पर अल्लाह की रहमत बरसती है.