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एक ही दिन सोमवती अमावस्या एवं वटसावित्री-व्रत, मिलेगा दोगुना फल
वट देववृक्ष है। वटवृक्ष के मूल में भगवान् ब्रह्मा, मध्य में जनार्दन विष्णु, तथा अग्रभाग में देवाधिदेव शिव स्थित रहते हैं। देवी सावित्री भी वटवृक्ष में प्रतिष्ठित रहती हैं । इसी अक्षय वट के पत्रपुटक पर प्रलय के अन्तिम चरण में भगवान् श्रीकृष्ण ने बालरूप में मार्कण्डेय ऋषि को प्रथम दर्शन दिया था।प्रयागराज में गंगा के तट पर वेणीमाधव के निकट अक्षय वट प्रतिष्ठित है। हानिकारक गैसों को नष्ट कर वातावरण को शुद्ध करने में वटवृक्ष का विशेष महत्व है। वटवृक्ष की औषधि के रूप में उपयोगिता से सभी परिचित हैं। जैसे वटवृक्ष दीर्घकाल तक अक्षय बना रहता है, उसी प्रकार दीर्घायु, अक्षय सौभाग्य तथा निरन्तर अभ्युदय की प्राप्ति के लिए वटवृक्ष की आराधना की जाती है।
इसी वटवृक्ष के नीचे सावित्री ने अपने पति व्रत से मृत पति को पुन: जीवित किया था। तब से यह व्रत वट- सावित्री के नाम से किया जाता है। ज्येष्ठ मास के व्रतों में 'वटसावित्री- व्रत' एक प्रभावी व्रत है। इसमें वटवृक्ष की पूजा की जाती है। महिलाएँ अपने अखंड सौभाग्य एवं कल्याण के लिए यह व्रत करती हैं। इस वर्ष यह व्रत सोमवार 3 जून को पड़ रहा है। सोमवार के दिन अमावस्या होने से "सोमवती अमावस्या" का भी दुर्लभ संयोग प्राप्त हो रहा है। जिससे इसका महत्व और अधिक बढ़ गया। व्रत करने वालों को दोगुना फल की प्राप्ति होगी।
साथ ही पूरे दिन 'सर्वार्थसिद्धि' योग भी प्राप्त हो रहा है। सोमवार दिन 10.20 तक 'सुकर्मा' योग है। यह पूर्ण शुभ योग होता है। उसके बाद 'धृति' योग लग रहा है, इस योग में प्रारम्भ किये गये समस्त शुभ कार्य धैर्य पूर्वक सम्पन्न होते हैं।
यह व्रत स्कन्द और भविष्योत्तर के अनुसार ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को और निर्णयामृतादि के अनुसार अमावस्या को किया जाता है। इस देश में प्रायः अमावस्या को ही होता है। संसार की सभी स्त्रियों में से ऐसी कोई शायद ही हुई होगी, जो सावित्री के समान अपने अखण्ड पतिव्रत और दृढ़ प्रतिज्ञा के प्रभाव से यमद्वार पर गये हुए पति को सदेह लौटा लायी हो। अतः विधवा, सधवा, बालिका, वृद्धा, सपुत्रा, अपुत्रा सभी स्त्रियों को सावित्री का व्रत अवश्य करना चाहिए। जैसा कि धर्म का वचन है-
नारी वा विधवा वापि पुत्रीपुत्रविवर्जिता।
सभर्तृका सपुत्रा वा कुर्याद् व्रतमिदं शुभम्।।
विधि यह है कि ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी को प्रातः स्नानादि के पश्चात्
' मम वैधव्यादिसकलदोषपरिहारार्थं ब्रह्मसावित्रीप्रीत्यर्थं च वट सावित्री व्रतमहं करिष्ये।'
यह संकल्प करके तीन दिन उपवास करें। यदि सामर्थ्य न हो तो त्रयोदशी को रात्रि भोजन, चतुर्दशी को अयाचित और अमावस्या को उपवास करके शुक्ल प्रतिपदा को समाप्त करे। अमावस्या को वट के समीप बैठकर बाँस के एक पात्र में सप्तधान्य भरकर उसे दो वस्त्रों से ढक दे और दूसरे पात्र में ब्रह्मसावित्री तथा सत्य सावित्री की मूर्ति स्थापित करके गन्धाक्षतादि से पूजन करें। तत्पश्चात वट के सूत लपेट कर उसका यथाविधि पूजन करके परिक्रमा करे। फिर
अवैधव्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते। पुत्रान् पौत्रांश्च सौख्यं च गृहाणार्घ्यं नमोस्तु ते।।
इस श्लोक से सावित्री को अर्घ्य दे और
वट सिञ्चामि ते मूलं सलिलैरमृतोपमैः।
यथा शाखा प्रशाखाभिर्वृद्धोsसि त्वं महीतले।।
इस श्लोक से वट वृक्ष की प्रार्थना करें। देशभेद और मतान्तर के अनुरोधसे इसकी व्रतविंधि मे कोई -कोई उपचार भिन्न प्रकार से भी होते हैं। यहाँ उन सबका समावेश नहीं किया गया है।
सावित्री की संक्षिप्त कथा इस प्रकार है- यह मद्रगेश के राजा अश्वपति की पुत्री थी। द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान से इसका विवाह हुआ था। विवाह के पहले नारदजी ने कहा था कि सत्यवान् सिर्फ सालभर जियेगा। किन्तु दृढव्रता सावित्री ने अपने मन से अंगीकार किए हुए पति का परिवर्तन नहीं किया और एक वर्ष तक पातिव्रत धर्म मे पूर्णतया तत्पर रहकर अंधे सास- ससुर की और अल्पायु पति की प्रेम के साथ सेवा की। अन्त मे वर्ष समाप्ति के दिन( ज्येष्ठ शुक्ल 15 को) सत्यवान् और सावित्री समिधा लाने को वन में गये। वहाँ एक विषधर सर्प नें सत्यवान् को डस लिया। वह बेहोश होकर गिर गया। उसी अवस्था में यमराज आये और सत्यवान् के सूक्ष्म शरीर को ले जाने लगे। किन्तु फिर उन्होंने सती सावित्री की प्रार्थना से प्रसन्न होकर सत्यवान् को सजीव कर दिया और सावित्री को सौ पुत्र होने तथा राज्यच्युत अंधे सास- ससुर को राज्य सहित दृष्टि प्राप्त होने का वर दिया।
इस प्रकार यह मान्यता स्थापित हुई कि सावित्री की इस पुण्य कथा को सुनने पर तथा पति-भक्ति रखने पर महिलाओं के सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण होंगे और सारी विपत्तियाँ दूर होंगी। प्रत्येक सौभाग्यवती नारी को वट सावित्री का व्रत रखकर यह कथा सुननी चाहिये।
ज्योतिषाचार्य पं गणेश प्रसाद मिश्र