- होम
- राष्ट्रीय+
- वीडियो
- राज्य+
- उत्तर प्रदेश
- अम्बेडकर नगर
- अमेठी
- अमरोहा
- औरैया
- बागपत
- बलरामपुर
- बस्ती
- चन्दौली
- गोंडा
- जालौन
- कन्नौज
- ललितपुर
- महराजगंज
- मऊ
- मिर्जापुर
- सन्त कबीर नगर
- शामली
- सिद्धार्थनगर
- सोनभद्र
- उन्नाव
- आगरा
- अलीगढ़
- आजमगढ़
- बांदा
- बहराइच
- बलिया
- बाराबंकी
- बरेली
- भदोही
- बिजनौर
- बदायूं
- बुलंदशहर
- चित्रकूट
- देवरिया
- एटा
- इटावा
- अयोध्या
- फर्रुखाबाद
- फतेहपुर
- फिरोजाबाद
- गाजियाबाद
- गाजीपुर
- गोरखपुर
- हमीरपुर
- हापुड़
- हरदोई
- हाथरस
- जौनपुर
- झांसी
- कानपुर
- कासगंज
- कौशाम्बी
- कुशीनगर
- लखीमपुर खीरी
- लखनऊ
- महोबा
- मैनपुरी
- मथुरा
- मेरठ
- मिर्जापुर
- मुरादाबाद
- मुज्जफरनगर
- नोएडा
- पीलीभीत
- प्रतापगढ़
- प्रयागराज
- रायबरेली
- रामपुर
- सहारनपुर
- संभल
- शाहजहांपुर
- श्रावस्ती
- सीतापुर
- सुल्तानपुर
- वाराणसी
- दिल्ली
- बिहार
- उत्तराखण्ड
- पंजाब
- राजस्थान
- हरियाणा
- मध्यप्रदेश
- झारखंड
- गुजरात
- जम्मू कश्मीर
- मणिपुर
- हिमाचल प्रदेश
- तमिलनाडु
- आंध्र प्रदेश
- तेलंगाना
- उडीसा
- अरुणाचल प्रदेश
- छत्तीसगढ़
- चेन्नई
- गोवा
- कर्नाटक
- महाराष्ट्र
- पश्चिम बंगाल
- उत्तर प्रदेश
- Shopping
- शिक्षा
- स्वास्थ्य
- आजीविका
- विविध+
स्पेशल-रिपोर्ट -- भारत के पहले प्रधानमंत्री को याद किया जाए या भुला दिया जाए ??
जवाहरलाल नेहरू आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री थे। बचपन से लेकर कॉलेज के दिनों तक आपके जन्मदिन का बड़ा बेसब्री से इंतजार रहता था। क्योंकि 14 नवंबर को सिर्फ आपका जन्मदिन ही नहीं हमारे लिए बाल दिवस के रूप में जो मनाया जाता था। बचपन से लेकर जवानी तक आपके बारे में अच्छाइयां पढ़ी और कुछ बुराइयां सुनी। उस समय मैंने इन चीजों पर इतना ध्यान नहीं दिया। अब आता हूं साल 2013 पर। एक ट्रेन में सफर के दौरान मेरे व्हाट्सएप पर एक मैसेज गिरता है। मैसेज का शीर्षक था "जवाहरलाल नेहरू एक अय्याश प्रधानमंत्री"। पूरे मैसेज को पढ़ा और मैं उससे प्रभावित भी हो गया। लेकिन फिर जब वर्ष 2014 के बाद जवाहरलाल नेहरू का भारतीय राजनीति में पुनर्जन्म हुआ तो मेरी दिलचस्पी नेहरू के तरफ बढ़ी। नेहरू को 70 साल की आजादी में देश ने जितना याद नहीं किया। उतना 2014 के बाद से अभी तक देश कर रहा है। व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी पर तरह-तरह का आरोप और फर्जी खबरें चलती रहती है। आज जवाहरलाल नेहरू के 132वें जन्म जयंती के अवसर पर कुछ तथ्यों के साथ उन पर लग रहे आरोपों का मैं पोस्टमार्टम करूंगा।
गांधी ने जबरदस्ती पटेल की जगह नेहरू को प्रधानमंत्री बनाया
यह एक ऐसा विवादित विषय है जिसे छूने का मतलब 440 वोल्ट से भी ज्यादा पावर के तार को छूना। यह एक ऐसा विषय है जिस पर बहुत सारे डिबेट हो सकते हैं। कहा जाता है कि महात्मा गांधी ने जबरदस्ती व अपनी ताकत का इस्तेमाल करके नेहरू को प्रधानमंत्री बनाया था। यह एक बेबुनियाद तर्क है। सच्चाई जानने के लिए हमें वर्ष 1947 में जाना होगा।
द्वितीय विश्वयुद्ध में कमर टूट जाने के बाद ब्रिटेन के लिए भारत को संभालना बिल्कुल आसान नहीं रह गया था। वैश्विक पटल पर ब्रिटेन अब सुपर पावर नहीं रह गया था। उसका स्थान संयुक्त राज्य अमेरिका ने ले लिया था। भारत को आजादी देने की घोषणा हो चुकी थी। कांग्रेस की वर्किंग कमेटी की बैठक होती है। इस बैठक में कांग्रेस वर्किंग कमेटी के समस्त प्रांतों से कांग्रेस का नेता व भारत का अंतरिम प्रधानमंत्री सरदार पटेल के नाम को सर्वसम्मति से चुना गया था। नेहरू का नाम न तो किसी भी प्रांतीय संगठन या कांग्रेस के किसी भी प्रांत से नहीं भेजा गया था। जवाहरलाल नेहरू को सिर्फ कांग्रेस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने नामित किया था। यह लगभग तय लग रहा था कि सरदार पटेल ही भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे। लेकिन तभी कुछ ऐसा हुआ की पटेल की जगह जवाहरलाल नेहरू को नेता चुन लिया गया। मेरा इस पर तथ्यों पर आधारित तर्क यह है कि सरदार पटेल का स्वास्थ्य बिल्कुल उस समय स्वस्थ नहीं था। तो महात्मा गांधी ने यह सोचा होगा कि संक्रमण काल तक के लिए किसी ऐसे आदमी का प्रधानमंत्री पद पर चुनाव किया जाए। जो इस बिखरे हुए देश को ठीक ढंग से 10-12 वर्षों तक चला सके। इस काम के लिए गांधी को सरदार पटेल से 13 वर्ष छोटे नेहरू उपयुक्त लगे। इसीलिए उनको प्रधानमंत्री बना दिया गया। एक और तथ्य से यह भी निष्कर्ष निकलता है कि स्वयं महात्मा गांधी ने 1935 के बाद से ही स्पष्ट कर दिया था कि उनके बाद उनका उत्तराधिकारी जवाहरलाल नेहरु होंगे। यहां तक कि जब 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन अपने चरम सीमा पर था तब भी महात्मा गांधी ने यह बात दोहराई थी। स्वयं महात्मा गांधी ने कहा है कि नेहरू और पटेल आजाद भारत के दो बुनियादी स्तंभ हैं। इस पर अगर आप व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से आयातित तथ्य पढेंगे तो वह आपको पथभ्रष्ट करने के अलावा कुछ नहीं करेंगे। लेकिन जब आप किताबों को पढेंगे व तथ्यों को देखेंगे तो आप भी मेरी तरह दिए गए ऊपर तर्को से सहमत हो जाएंगे।
नेहरू और पटेल रिश्ता कैसा था
भारत के पहले प्रधानमंत्री व भारत के पहले उप प्रधानमंत्री के बीच रिश्तो को लेकर तरह-तरह की बातें वर्ष 2014 के बाद से फैलाई गई है। नेहरू और पटेल एक दूसरे का सम्मान करते थे। वह दोनों एक अच्छे मित्र भी थे। नेहरू और पटेल ने मिलकर भारत की आजादी की लड़ाई में लगभग 25 वर्षों से अधिक महात्मा गांधी के निकटतम सहयोगी बनकर कार्य किया है। जहां नेहरू का युवाओं में पकड़ था वही सरदार पटेल की राजनीति ही महात्मा गांधी के द्वारा गढ़ी गई थी। सरदार पटेल व जवाहरलाल नेहरू दोनों ही गांधी के प्रिय थे। जहां नेहरू भारत और दुनिया दोनों जगह निगाह रखते थे वही पटेल के लिए भारत ही उनकी दुनिया थी। दोनों के बीच में सबसे बड़ा मतभेद सांप्रदायिकता के मामले पर था। जहां नेहरू अल्पसंख्यकों के प्रति नरम रुख रखते थे। वही पटेल का मत यह था कि जो अल्पसंख्यक कुछ दिन पहले तक पाकिस्तान मांग रहे थे उन पर भरोसा कैसे कर लिया जाए। भारत के बंटवारे के दौरान देश में चारों तरफ घनघोर हिंसा व कत्लेआम जारी था। जहां मीडिया गांधी और नेहरू को मुसलमान की रक्षा करने वाला नेता बता रहा था। दोनों के बीच में आर्थिक और सांप्रदायिकता के मुद्दे पर नजरिया शुरू से ही एक-दूसरे से बिल्कुल अलग था। वही पटेल को हिंदुत्व नेता के तौर पर पेश किया जा रहा था। आलम यह हो गया कि स्वयं महात्मा गांधी को मीडिया से कहना पड़ा कि नेहरू और सरदार भारत के सच्चे सिपाही हैं। इन्हें देश की सेवा करने दिया जाए ना कि फर्जी खबर चला कर रुकावटें पैदा की जाए।
नेहरू और पटेल के रिश्ते को समझने के लिए मैं आपको एक तथ्य बताता हूं। जब आजाद भारत में जवाहरलाल नेहरू ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली तो उन्होंने अपने मंत्रिमंडल में शामिल होने के लिए पटेल को पत्र भेजा। अपने इस पत्र में नेहरू लिखते हैं कि आप इस सरकार के महत्वपूर्ण स्तंभ है। आपको यह न्योता भेजना मात्र एक औपचारिकता है। मैं जानता हूं कि आपको और हमें देश के प्रति कितना प्रेम है।
सरदार पटेल और नेहरू के बीच में विवाद
जैसा कि मैं ऊपर बता चुका हूं कि सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू के बीच संप्रदायिकता यानी मुसलमानों के सवाल पर उनके विचारों में भारी अंतर थे। आजाद भारत में सरकार बनने के बाद प्रधानमंत्री नेहरु और उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल के बीच मतभेद का शुरुआती कारण कुछ प्रशासनिक फैसले रहे थे। भारत अभी संक्रमण काल से गुजर रहा था। देश के जवाहर और पटेल पर ही यह जिम्मेदारी थी कि वह जैसा आचरण इस लोकतंत्र में अपनाएंगे वैसा ही आचरण आने वाली पीढ़ी अनुसरण करेगी। कहां जाता है ना आग लगाने का सही समय तभी होता है जब एकता की जरूरत होती है। नेहरू और पटेल के बीच मतभेद का यह दौर तब शुरू हुआ जब देश को सबसे ज्यादा एकता की जरूरत थी। जहां देश की राजधानी में एक तरफ कत्लेआम मचा हुआ था वही दूसरी ओर देश के दो शिर्ष भरोसेमंद साथी आपस में ही लड़ रहे थे। आलम यह हो गया कि इन दोनों के बीच के विवादों को सुलझाने के लिए महात्मा गांधी 12 जनवरी 1948 से आमरण अनशन पर बैठ गए। अब देश की प्रतिष्ठा दांव पर लग चुकी थी। नेहरू और पटेल का यह विवाद राजधानी दिल्ली में हो रहे मुस्लिमों पर अत्याचारों के वजह से शुरू हुआ। जहां नेहरू लगातार गृहमंत्री सरदार पटेल को दिल्ली में हो रही घटनाओं पर एक्शन लेने को कह रहे थे। वहीं पटेल नेहरू, गांधी और मौलाना आजाद को यह कर कर समझा रहे थे कि आप लोगों के पास जो भी सूचनाएं आ रही हैं वह पूरी तरीके से सही नहीं है। पटेल ने तो यहां तक कह दिया कि मुसलमानों के लिए राजधानी में डर या चिंता की कोई बात नहीं है। वही पटेल ने नेहरू को कहा कि अपनी ही सरकार के काम पर आपको ऐतराज नहीं जताना चाहिए। लेकिन जब सरेआम मुसलमानों का कत्लेआम किया जा रहा था तो महात्मा गांधी इतने विचलित हुए कि वह आमरण अनशन पर बैठने का फैसला किया। महात्मा गांधी का स्वास्थ्य बिल्कुल भी ठीक नहीं था लेकिन इसके बावजूद वह इस उपवास से टस-से-मस ना हुए। इस उपवास से सरदार पटेल इतने परेशान हुए कि वह उस महात्मा गांधी के ऊपर चिल्ला पड़े जिन्होंने उन्हें राजनीति का ज्ञान सिखाया था। अब यह लड़ाई इस मोड़ तक आ चुकी थी कि महात्मा गांधी को यह फैसला करना था कि आजाद भारत के पहले मंत्रिमंडल में देश के दो शीर्ष नेताओं में से कौन रहेगा। लेकिन यह बैठक होती उससे पहले ही 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई। महात्मा गांधी की हत्या के बाद नेहरू और पटेल दोनों ही राजनीतिक स्तर पर अनाथ हो गए। महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद देश के इन शीर्ष नेताओं ने साथ काम करने का फैसला किया। यह फैसला हमारे राष्ट्र के लिए एक महत्वपूर्ण फैसला स्थापित हुआ। हालांकि दोनों के बीच में वैचारिक मतभेद बने रहे। लेकिन जब दिसंबर 1950 में पटेल का देहांत हुआ। उसके बाद से जवाहरलाल नेहरू को देश की सत्ता में उनके बराबर का कोई नेता नहीं था।
नेहरू ने देश को क्या दिया
वर्ष 2014 के पहले यह सवाल शायद ही किसी ने उठाया हो कि नेहरू ने इस देश को क्या दिया? लेकिन 2014 के बाद से लोग हमेशा ही यह सवाल उठाते हैं कि आखिर जवाहरलाल नेहरू ने देश को क्या दिया है।
जवाहरलाल नेहरू आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री थे। इसकी तुलना आप एक नवजात शिशु से कर सकते हैं। जैसे एक नवजात शिशु का पालन पोषण कर के उसे भविष्य के काबिल बनाया जाता है। उसी तरह नेहरू ने नए आजाद हुए भारत को एक उज्जवल भविष्य देने की आधारशिला रखी। नेहरू को सोने की चिड़िया वाला भारत नहीं मिला था। बल्कि उन्हें अंग्रेजों द्वारा लूटा हुआ, भाषा व धर्म के आधार पर बांटा हुआ व जाति प्रथा व जमीदारी प्रथा में जकड़ा हुआ देश मिला था। इसके साथ ही उनके सामने जो सबसे बड़ी समस्या थी मुल्क में रहने वाले 36 करोड हिंदुस्तानियों का पेट भरना। आज हम वह देश हैं जिसके पास अपने 130 करोड़ से अधिक नागरिकों के लिए 3 साल तक का अनाज रिजर्व में है। लेकिन एक समय में हम वह भी देश थे। जब हमारे यहां गोबर में से गेहूं छान कर लोग खाया करते थे। नेहरू ने इन समस्याओं पर काम करना शुरू किया। पहला संविधान संशोधन करके उन्होंने जमीदारी प्रथा का अंत किया। देश की पहली आईआईटी आजाद भारत के 5 साल बाद ही आईआईटी खड़कपुर के रूप में स्थापित की गई। आज हम जिस आईआईटी,आईआईएम, इसरो, भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर व एम्स जैसे संस्थान को देख रहे हैं यह सब नेहरू के वक्त में बनाए गए हैं। इन सभी संस्थानों के लगभग 60% से अधिक संस्थान नेहरू के ही वक्त से बने हैं। उसके बाद के 70 साल में हमने क्या विकास किया है यह आप तथ्य सहित देख सकते हैं।
इसके अलावा नेहरू ने देश को बांध परियोजनाएं, बिजली घर, पंचवर्षीय योजना व योजना आयोग सहित तमाम आधुनिक चीजों का आधारशिला नेहरू ने ही तैयार किया है।
इसके अलावा नेहरू ने जो हमें सबसे बड़ी चीज दी वह था दुनिया का सबसे बड़ा व विशाल लोकतांत्रिक देश। वर्तमान समय में अगर आप पत्रकार या कवि व सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सरकार के कार्यों पर सवाल उठाते हैं तो सरकार विभिन्न हथकंडो से परेशान करती है। अब तो सरकार से सवाल पूछने वालों को देशद्रोही तक करार दिया जाता है। लेकिन जरा पीछे मुड़ कर आजाद भारत की पहली सरकार के कार्यकाल को देखते हैं। जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में देश का सर्वप्रथम आम चुनाव संपन्न हुआ था। जवाहरलाल नेहरू ने पूरे चुनाव प्रचार के दौरान अपने सरकारी पद का किसी भी तरीके से गलत इस्तेमाल नहीं किया। इस चीज की पुष्टि तथ्य भी करते हैं। नेहरू के ऊपर यह जिम्मेदारी थी कि वह आने वाली पीढ़ी के लिए चुनाव कैसे होंगे इसकी आधारशिला तैयार करें।
नेहरू का मुकाबला उस समय के विपक्ष के नेता आचार्य कृपलानी, आचार्य नरेंद्र देव, डॉ राम मनोहर लोहिया, डॉक्टर भीमराव अंबेडकर व श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे मजबूत जमीनी नेताओं से था। इस चुनाव में नेहरू का खूब विरोध हुआ। अपने विरोधियों के प्रति नेहरू का क्या विचार था उसका अंदाजा आप इस भाषण से लगा सकते हैं नेहरू बोलते हैं कि "मैं यह नहीं मानता कि भारत में दूसरी पार्टियों को नहीं रहना चाहिए। निश्चित तौर पर एक स्वस्थ लोकतंत्र में उनका स्वागत है। हमारी पार्टी कांग्रेस या अन्य किसी भी पार्टी या संगठन के लिए यह बहुत ही खतरनाक स्थिति होगी कि उसके सामने कोई और ना हो। देश में हर हाल में विपक्ष होना चाहिए संघर्ष होना चाहिए। क्योंकि जीवन संघर्ष है जीवन आसान नहीं है। कोई एक व्यक्ति पूरी पार्टी नहीं हो सकता है। अगर वह ऐसा सोचता है तो वह इस अहंकार में भ्रष्ट हो जाता है। इसीलिए मैं विपक्ष और विपक्षियों को चाहता हूं।" वर्तमान भारतीय राजनीति में विपक्षियों के साथ क्या किया जाता है यह बताने वाली बात नहीं है। पर नेहरू के समय उनके विपक्षियों के साथ कोई भी ऐसा व्यवहार नहीं किया गया जिससे यह लगे कि नेहरू के अंदर सत्ता का अहंकार है। वर्तमान समय में देश के प्रधानमंत्री से एक सवाल भी पूछना बड़ा मुश्किल होता है। विरोध और तंज कसना देशद्रोह की श्रेणी में आता है। लेकिन नेहरू का विरोध करना कितना आसान है इसकी बानगी आप इस बात से देख सकते हैं। नेहरू के जन्मदिन पर नई दिल्ली में एक कार्यक्रम था। इसमें देश के उस समय के सभी सम्मानित कवियों को बुलाया गया था। जिसमें से बाबा नागार्जुन ने नेहरू के जन्मदिन पर उनके आंखों में आंखें डाल कर यह कविता पड़ी "वतन बेचकर पंडित नेहरू फूले नहीं समाते हैं...
फिर भी गांधी की समाधि पर झुक-झुक फूल चढ़ाते हैं।" उनके इस कविता पर नेहरू ने मुस्कुरा दिया और उनका आदर किया। यह सिर्फ नेहरु ही कर सकते थे और उनके बाद के अटल बिहारी वाजपेई। वर्तमान समय की राजनीति पर अगर कोई कवि ऐसा कविता पढ़ दे तो उसकी सिर्फ गिरफ्तारी ही नहीं होगी। बल्कि उसके ऊपर सीबीआई, इनकम टैक्स, ईडी जैसे संस्थानों को छोड़ दिया जाएगा।
मित्र पर किया भरोसा देश को मिला ना भूल पाने वाला दर्द
एक सफल इंसान कितना भी सफल क्यों ना हो उससे कुछ ना कुछ गलतियां हो जाती हैं। यही गलतियां उसके संपूर्ण अच्छे कर्मों पर कलंक लगा देती हैं। साठ के दशक में नेहरू वैश्विक स्तर पर शांति के मसीहा बन चुके थे। कोरिया युद्ध जो कि तीसरे युद्ध विश्वयुद्ध के तरफ बढ़ रहा था उसे जिस तरीके से नेहरू ने टालने में भूमिका निभाई उसका जिक्र करते हुए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित मशहूर गणितज्ञ रसेल ने कहा कि "एशिया का युद्ध एक ही आदमी के दिमाग में जीता या हारा जा सकता है वह है जवाहरलाल नेहरू।"
प्रधानमंत्री नेहरू चीन को परम मित्र के रूप में देखते थे। साठ के दशक में देश के रक्षा मंत्री नेहरू के सबसे भरोसेमंद मित्र वीके कृष्ण मैनन थे। गुप्तचर संस्थाएं व सेना लगातार रक्षा मंत्री को चीन के तरफ से होने वाले विवादों पर लगातार सूचना दे रहे थे। रक्षा मंत्री ने इन सूचनाओं को प्रधानमंत्री को देने के बजाय अपने केबिन में रोक कर रखा। जब नेहरू को इस चीज की सूचना मिली तो उन्होंने कृष्ण मेनन को अपने कार्यालय बुलाया। कृष्णा मेनन नेहरू को यह समझाने में कामयाब हो गए कि चीन के तरफ से कोई खतरा नहीं है व सारी रिपोर्ट हवा हवाई है। नेहरू ने कृष्णा मेनन पर भरोसा करके अपने जीवन की सबसे बड़ी गलती कर दी। नतीजा भारत-चीन 1962 युद्ध हुआ। इस युद्ध में हमारे देश की बहुत बुरी हार हुई। देश के प्रतिष्ठा और मनोबल पर आजादी के बाद पहली बार चोट पहुंची। कहने को सारा दोष प्रधानमंत्री नेहरू पर डाल दिया जाता है। लेकिन इस युद्ध के दोषी अकेले नेहरू नहीं थे। इसको आप इस तरीके से समझें जैसे परिवार चलाने के लिए एक पति व पत्नी में सामंजस्य स्थापित होना जितना महत्वपूर्ण है। उसी तरह एक देश की सुरक्षा करने के लिए उस देश का रक्षा विभाग व देश के सर्वोच्च नेता से कैसा सामंजस बैठता है। यह सबसे महत्वपूर्ण है। उनके साथ सबसे बड़ा विश्वासघात उन्हीं के रक्षा मंत्री वीके मेनन ने किया। नेहरू जैसे स्टेट्समैन आदमी के लिए यह बर्दाश्त कर पाना अत्यधिक मुश्किल हो गया। इस एक युद्ध में हार के चलते नेहरू के वैश्विक छवि के साथ साथ भारत में उनके छवि पर गहरी चोट पहुंची। नेहरू ने एक दार्शनिक की तरह भारत-चीन युद्ध में हार का विश्लेषण किया। नेहरू व अन्य सभी के विश्लेषण में एक चीज सामान्य थी। वह था "चीन को जब जब अन्य विदेशी ताकतों से डर लगता है तो वह भारत पर हमला कर देता है।" कोरोनावायरस महामारी के बाद उसने जो लद्दाख में किया यह चीन के डरपोक होने का सबूत है। इस युद्ध का असर यह हुआ कि 1964 में नेहरू की हृदय गति रुक जाने के कारण मृत्यु हो गई।
नेहरू और महिलाएं
देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर सबसे बड़ा जो आरोप लगता है वह है उनके चरित्र पर। 2014 के बाद से नेहरू को एक अय्याश प्रधानमंत्री घोषित करने में कोई कसर या कमी छोड़ी नहीं गई। वैसे तो भारतीय राजनीति में देश के राजनेताओं वह उनके विपक्षियों के बीच में एक अलिखित सा करार होता है। यह अलिखित करार इसलिए किया जाता है कि ताकि राजनेता चाहे कितना भी एक दूसरे का राजनीतिक विरोध क्यों न कर लें लेकिन वह एक दूसरे के प्रेम संबंधों, विवाह उपरांत संबंधों व तथाकथित दूसरी औरत की चर्चा कभी भी सार्वजनिक मंच से नहीं करेंगे। इसीलिए कहा जाता है कि अगर मामला निजी जीवन में प्राइवेसी का हो तो भारत के राजनेता दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह बन जाते हैं। लेकिन जवाहरलाल नेहरू को इस मुद्दे पर भी नहीं छोड़ा गया। जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का वर्ष 1936 में निधन हो गया था। उसके बाद से नेहरू बहुत अकेले रहने लग गए थे। इसी अकेलेपन के दौरान वह कई महिलाओं के संपर्क में आए। नेहरू ने इन संबंधों को कभी भी सार्वजनिक मंच से नहीं छुपाया। अगर आप भारतीय राजनीति का इतिहास देखेंगे तो आपको इन चीजों का भी इतिहास मिल जाएगा। वैसे तो नेहरु कई महिलाओं के संपर्क में आए लेकिन जिस महिला से उनका सबसे ज्यादा संबंध जोड़ा जाता है वह हैं भारत की आखिरी वायसराय की पत्नी एडविना माउंटबेटन। एडविना माउंटबेटन जब भारत आए तो वह नेहरू से हुई उनकी पहली मुलाकात में ही वह नेहरू के संवेदनशील, आकर्षक, सुसंस्कृत व बेहद मनमोहक व्यक्तित्व से बहुत ज्यादा प्रभावित हुई। वहीं नेहरू उनके वैश्विक पटल के राजनैतिक ज्ञान व उनकी सुंदरता से प्रभावित हुए। इन दोनों का रिश्ता आजादी के बाद तक चला। स्वयं नेहरू लंदन एडविना माउंटबेटन को पत्र एयर इंडिया के विमान से भेजते थे। क्या जवाहरलाल नेहरू और एडविना माउंटबेटन के प्रेम संबंध प्लेटॉनिक थे या शारीरिक?
तथ्यों के आधार पर अभी तक इनके प्रेम संबंधों के प्लेटॉनिक की ही पुष्टि हो पाई है। इतिहासकारों व तथ्यों ने भी जिस्मानी या अन्य तरह के संबंधों की बात सिरे से खारिज कर दिया है। वैसे भी प्रेम संबंध भारतीय राजनीति में किसका नहीं रहा है। अगर आप खंगालना शुरू करेंगे तो आपको पता चलेगा कि भारतीय राजनेता कितने पवित्र हैं। तो सिर्फ नेहरु को ही अय्याश प्रधानमंत्री क्यों घोषित किया जाए? यहां तो राज्यपाल स्वयं राजभवन में रंगरेलियां मनाते पकड़े गए हैं। वैसे भी एक पुरानी कहावत है कि "जिनके घर शीशे के होते हैं वह दूसरों के घर पत्थर नहीं फेंका करते है।"
भ्रष्टाचार पर मौन सहमति
हमारे देश में कोई भी नेता अगर सबसे ज्यादा बदनाम होता है तो वह होता है भ्रष्टाचार पर। वर्तमान समय में भ्रष्टाचार आम जीवन का हिस्सा बन चुकी है। आजाद भारत में सबसे पहला भ्रष्टाचार स्वयं प्रधानमंत्री नेहरु के कार्यकाल में हुआ है। प्रधानमंत्री नेहरु के कार्यकाल में प्रश्न घोटाला, जीप घोटाला, वाइन घोटाला व पर्दा घोटाला सहित आठ घोटाले हुए हैं। इन घोटालों की कुल रकम लगभग ₹8 करोड़ से ऊपर की है। जो कि आज के समय में लगभग हजार करोड़ रुपए आएगा। इन भ्रष्टाचारियों में प्रधानमंत्री नेहरु के सबसे करीबी वीके कृष्ण मैनन भी शामिल थे। इस मुद्दे को स्वयं उनके दामाद वह इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी ने सदन में उठाया था। इस पूरे प्रकरण में जवाहरलाल नेहरू ने मौन धारण किया हुआ था। पहले तो वह इन घोटालों की बात से इंकार कर रहे थे लेकिन जब दबाव बढ़ा तो उन्होंने इसके जांच के लिए पार्लियामेंट्री कमिटी बनाई। इन कमेटियों की रिपोर्ट आज तक पब्लिक नहीं की गई है। लेकिन तथ्यों के आधार पर यह रिपोर्ट इस बात को प्रमाणित करते हैं कि प्रधानमंत्री नेहरु के कार्यकाल में घोटाले हुए थे। अगर नेहरू ने लोकतंत्र का आदर्शवाद बनाया तो उन्होंने ही इसी लोकतंत्र में घोटालों को भी एक आदर्श बनाया। जो कि आज तक अनुव्रत तरीके से चला आ रहा है।
वंशवाद को बढ़ावा देने वाले नेहरू
देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर लगने वाले आरोपों में सबसे गंभीर आरोप यह है कि उन्होंने भारतीय राजनीति में वंशवाद को बढ़ावा दिया व भारतीय राजनीति को एक परिवार की राजनीति बना डाला। अगर तथ्यों में देखें तो नेहरू ने अपनी बहन विजया लक्ष्मी पंडित को सोवियत रूस में भारत का राजदूत बनाकर भेजा। लेकिन विजया लक्ष्मी पंडित एक पढ़ी-लिखी वह जानकार महिला थी इसलिए उन्हें यह पद दिया गया। जबकि नेहरू ने अपनी बेटी इंदिरा गांधी को जीते जी कोई भी पार्टी में पद या फिर मंत्री व सांसद नहीं बनाया है। नेहरू स्वयं अपनी बेटी इंदिरा गांधी को राजनीति से दूर हट कर समाज सेवा करने के लिए प्रेरित करते हैं। यहां तक कि जवाहरलाल नेहरू ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में जयप्रकाश नारायण व राम मनोहर लोहिया जैसे जमीनी व तपे हुए नेताओं को बनाना चाहते थे। नेहरू की मृत्यु के बाद दोनों नेता इसे अस्वीकार कर दिया जिसके बाद गांधीवादी नेता लाल बहादुर शास्त्री को भारत का प्रधानमंत्री बनाया गया।
लेकिन कहा जाता है ना कि डॉक्टर का बेटा डॉक्टर ही बनेगा, पुलिस के खानदान में से लोग पुलिस वाले ही निकलेंगे, किसी परिवार का एक सदस्य आर्मी में है तो उसके घर के अन्य सदस्य भी आर्मी में जाएंगे। कुछ अपवादों को छोड़कर यही नियम भारतीय राजनीति में भी लागू होता हैं। पिता राजनीति में हैं तो बेटा आएगा। वर्तमान तमाम पार्टियों में आप इस चीज को देख सकते हैं। परिवारवाद भारतीय राजनीति का एक कड़वा सच है जिसका पता सभी को रहता है पर उसे कबूल करना कोई नहीं चाहता है। कुछ ऐसा ही किया इंदिरा गांधी ने उनके खून में जो राजनीति थी। हालांकि इंदिरा गांधी ने अपने पिता जवाहरलाल नेहरु के द्वारा बनाए गए सभी आदर्शों को ध्वस्त कर दिया। किसने सोचा था कि जो व्यक्ति देश की आजादी के लिए अपने पिता के साथ जेल में जाएगा उसी की बेटी आजादी के 28 में वर्ष में देश को एक आपातकाल में ढकेल देंगी।
उपसंहार
जवाहरलाल नेहरू पर वर्तमान समय में कई वाद-विवाद होते हैं। वर्तमान केंद्र सरकार जितना नेहरू को याद करती है। शायद ही किसी सरकार ने उतना याद किया हो। स्वस्थ इतिहास व वाद-विवाद के लिए यह जरूरी होता है कि आप सही तथ्यों के साथ वार्तालाप करें। नेहरू के मामले में अक्सर तथ्यहीन बातें की जाती हैं। सही तथ्यों के साथ वाद-विवाद एक स्वस्थ लोकतांत्रिक देश का पहचान है। आखिर नेहरू इसी के लिए तो लड़ रहे थे। पर नेहरू का सपना तो उन्हीं के अपनी बेटी इंदिरा गांधी ने अपने कार्यकाल में तहस-नहस करके रख दिया। वर्तमान राजनीति चाहे कितना भी नेहरू को दोष दे। लेकिन वह शासन इंदिरा गांधी स्टाइल में ही करती है। आज 2021 में घटित होने वाली समस्याओं को अगर बार-बार हम 1947 के नजरिए से देखें तो फिर देखने के लिए कुछ बचा ही नहीं है। इतिहास की सबसे बड़ी सीख यही है कि "हम अपने इतिहास से कुछ नहीं सीखते हैं।"
बचपन से आपके जन्मदिन का आनंद उठाने वाले युवा वर्ग आज आपको बिना पढ़े आप पर कमेंट करता है। न जाने आपको कैसी कैसी गालियां दी जाती हैं। लेकिन मुझे पता है आप जहां भी होंगे स्वर्गीय नेहरु वहीं से आप इन लोगों पर मुस्कुराकर इनका आदर करते होंगे।
आज जिस लोकतांत्रिक देश में रहते हुए हम अपने अधिकारों के साथ अपनी बात रखते हैं। हमें यह अधिकार हमारे संविधान निर्माताओं व अन्य लोगों ने दिया है। हम और आप एक लोकतांत्रिक देश में रहते हैं जिसमें हमें अभिव्यक्ति की आजादी प्राप्त है हमारे अपने पूर्व के नेताओं से मतभेद भी हो सकते हैं। लेकिन हम उन मतभेदों पर सही तथ्यों के साथ डिबेट करेंगे तो उचित निष्कर्ष तक पहुंच सकते हैं। लेकिन अगर हम और आप व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से आयातित ज्ञान पर बहस करेंगे तो इसका निष्कर्ष सिर्फ बेवकूफी भरा ही होगा।