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चाहे जाति व्यवस्था हो या संवैधानिक व्यवस्था, चरित्र एक है!
टिप्पणी कमलेश पांडेय
आधुनिक भारत के सफल रणनीतिकारों में से एक समझे जाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत जब कुछ कहते हैं तो देश-दुनिया के लोग उस पर गौर फरमाते हैं। क्योंकि आरएसएस देश का एक अहम सेवा भावी संगठन है जो समाज के एक बहुत बड़े तबके से जुड़ा हुआ है और उसको जनसेवा के साथ-साथ राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, वसुधैव कुटुम्बकम आदि के पाठ व्यवहारिक प्रशिक्षण के साथ पढ़ाता आया है।
हालांकि, हाल के दशकों में साम्प्रदायिकता और जातीयता को लेकर संघप्रमुख मोहन भागवत ने जो कुछ महत्वपूर्ण टिपन्नियां की हैं, उससे मुस्लिमों, दलितों और पिछड़ों में तो उनकी लोकप्रियता बढ़ी है और बहुमत का रुझान भी उनकी ओर बढ़ा है। लेकिन सवर्णों में इसका गलत संदेश गया है और वो यह मानकर चल रहे हैं कि उनके अल्पमत में होने की वजह से कोई भी सत्ताधारी दल उनकी वाजिब बात करना और कहना भी कदापि मुनासिब नहीं समझेगा।
बहरहाल चाहे कांग्रेस हो, भाजपा हो या अन्य कोई दल, सबको मजबूत बनाने में सवर्णों ने अहम भूमिका निभाई है, लेकिन अपने कथित बहुमत को चिरस्थाई बनाने के लिए प्रायः सभी दलों ने सवर्णों के खिलाफ जो मनसा, वाचा, कर्मणा खेल किया, वह अंततोगत्वा उन्हीं पर भारी पड़ा, क्योंकि उनकी हरकतें देखकर सवर्ण उनके प्रति उदासीन हो गए और दूसरों को उनके पक्ष में प्रेरित करना छोड़ दिया। यही वजह है कि चाहे कांग्रेस हो या समाजवादी सियासत करने वाले क्षेत्रीय दल और उनका राष्ट्रीय गठजोड़, या फिर वामपंथी या दलितपंथी दल, सबके पतन के पीछे उनकी सवर्ण विरोधी मानसिकता का ही प्रमुख हाथ रहा है।
उसी प्रकार से पहले वर्ष 2014 में और फिर वर्ष 2019 में बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर मिली राजनीतिक सफलता के बाद इसने भी बहुसंख्यक जमात को साधने के लिए अपना सवर्ण विरोधी चरित्र अख्तियार लिया है, जिसे संघ प्रमुख का खुला समर्थन हासिल है। यह अप्रत्याशित स्थिति इस बात की चुगली कर रही है कि भाजपा व संघ नेतृत्व अपनी मौजूदा सियासी सफलता पर चाहे जितना भी इतरा ले और विचारों की उलटबांसियों को परोसे, लेकिन जब कांग्रेस, समाजवादी और दलितवादी दल सवर्णों के आक्रोश को नहीं झेल सके, तो कभी राजनीतिक रूप से अछूत समझी जाने वाली भाजपा कितना झेल पाएगी, यह बात मैं नहीं, बल्कि वक्त बताएगा!
हैरत की बात है कि कभी खुद को पार्टी विद डिफरेंस करार देने वाली भाजपा और उसके रणनीतिकार महज अपने बहुमत को बचाये रखने के लिए ही जिस तरह से घिसी- पिटी पुरानी राजनीति का अनुशरण करने लगे हैं, वह इस बात को इंगित करने को काफी है कि देर-सबेर इनका भी पतन होगा उन्हीं क्षुद्र बुद्धि वाले दलों की तरह होगा, जिन्होंने अल्पसंख्यक, दलित, पिछड़ा तुष्टीकरण का खेल खेलकर बहुमत हासिल किया और फिर उन्हें ही भरमाकर उद्योगपति व पूंजीपति वर्ग के हित में कानून बनाए। हालांकि जब इसकी भनक उन्हें लगी तो उन्होंने सत्ता से बाहर भी कर दिया।
वहीं, कभी मुसलमानों के खिलाफ हिंदुओं को बरगलाने वाले संघ और भाजपा के लोग जब अपने को मुस्लिम समाज का नया रहनुमा करार देने की कोशिश करते हैं, तो मुस्लिम समाज के बुद्धिजीवी उनके पैंतरेबाजी पर तरस खाते हैं, जबकि हिन्दू बुद्धिजीवी सोचते हैं कि कांग्रेस की तुष्टिकरण वाली बीमारी से अब भाजपा भी ग्रसित हो चुकी है। इसके अलावा, कभी मंडल के खिलाफ कमंडल लेकर चलने वाली भाजपा आज जब सामाजिक न्याय की बात करते हुए पूंजीपतियों को संरक्षण देती प्रतीत होती है तो दलित और पिछड़े वर्ग के बुद्धिजीवी उसकी राजनीतिक मजबूरियों और वैचारिक उलटबांसी पर तरस खाते हुए हंसते हैं।
अब संघ प्रमुख भागवत ने जाति व्यवस्था का सारा दोष पंडितों यानी ब्राह्मणों पर मढ दिया है। उनका यह कहना कि ईश्वर की नजर में हर कोई समान है, उसके सामने कोई जाति या सम्प्रदाय नहीं है, तो ठीक है। लेकिन यह कहना कि ये सभी चीजें पंडितों ने बनाई हैं, जो गलत है, बिल्कुल गलत है, अतार्किक है। उन्हें यह समझना चाहिए कि जिस समय यह व्यवस्था बनी थी, उस समय पांडित्य कोई जाति नहीं, बल्कि सर्वसमर्थित समकालीन उत्कृष्ट अध्ययन-मनन गुण था, जिसमें सभी जाति के लोग शामिल थे।
वहीं, संघ प्रमुख का यह कहना कि हमारी समाज के प्रति भी जिम्मेदारी है। जब हर काम समाज के लिए है तो कोई ऊंचा, नीचा या कोई अलग कैसे हो गया? भगवान ने हमेशा बोला है कि मेरे लिए सभी एक हैं, उनमें कोई जाति, वर्ण नहीं है, लेकिन पंडितों ने श्रेणी बनाई, वो गलत था। उनके इस कथन की प्रतिक्रिया में मैं उन्हें स्मरण दिलाना चाहूंगा कि समस्त वैदिक बुराइयां आधुनिक संवैधानिक व्यवस्था में भी प्रविष्ट कर चुकी हैं, लेकिन नवसामन्तवादी दलितों, पिछड़ों और 'आतंक' के पर्याय बन चुके अल्पसंख्यकों को सही बात बोलने या सही रास्ता दिखाने में संघ और भाजपा को उसकी नानी याद आ जाती है। कतिपय मामलों में वह भी सार्वजनिक रुप से हथियार डाल चुकी है, पूरा राष्ट्र इसका साक्षी है।
वहीं, संघ प्रमुख मोहन भागवत का यह कहना कि श्रम के प्रति सम्मान की भावना नहीं होना बेरोजगारी के मुख्य कारणों में से एक है। इसलिए लोगों को सभी तरह के काम का सम्मान करना चाहिए, यहां तक तो ठीक है। लेकिन उनके इशारों पर चलने वाली भाजपा किस तरह से स्वदेशी के बजाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को लुभाने वाली नीतियां बना रही है, जहां वेतन-भत्ता सम्बन्धी विसंगतियां ज्यादा हैं, यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है। ऐसे में श्रम कैसे प्रतिष्ठित होगा, उन्हें समझना और समझाना चाहिए।
वहीं, जब उन्होंने सन्त रविदास को उद्धृत करते हुए यह कहा कि कर्म करो, धर्म के अनुसार कर्म करो। पूरे समाज को जोड़ो, समाज की उन्नति के लिए काम करना ही धर्म है। सिर्फ अपने बारे में सोचना और पेट भरना धर्म नहीं है। तो यहां पर फिर यही सवाल उठता है कि कर्म करना तो ठीक है, लेकिन पंडितों के बनाए हुए धर्म का अनुशरण करने का आह्वान वो क्यों करते हैं, यह बात समझ से परे है। जब वह इतने प्रगतिशील और साधन संपन्न हैं तो उन्हें धर्म विहीन यानी धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना को अधिक तरजीह देना चाहिए, ताकि हिंदुओं-मुसलमानों के बीच इसी वजह से अक्सर होते रहने वाली मारकाट थमे। शासन यदि कुछ सकारात्मक सोच ले तो उसे लागू करने, करवाने में ज्यादा मुश्किल नहीं आती।
उन्होंने ठीक ही कहा है कि बड़े-बड़े लोग सन्त रविदास के भक्त बने। क्योंकि संत रविदास, तुलसीदास, कबीर, सूरदास से ऊंचे सन्त थे, इसलिए सन्त शिरोमणि थे। सन्त रविदास ब्राह्मणों से भले नहीं जीत सके, लेकिन उन्होंने लोगों के मन को छुआ और विश्वास दिलाया कि भगवान हैं। इसलिए आज की परिस्थितियों को ध्यान दीजिए.... किसी भी हाल में धर्म को नहीं छोड़िए। उनका यह कथन एक नए विरोधाभास को जन्म देता है। वह यह कि पंडितों की जाति व्यवस्था को मत मानिए, लेकिन उनके भगवान और धर्म को मानिए।
मेरी राय है कि वो और उनकी सरकार वास्तव में जाति-धर्म की मानसिकता बदलना चाहती है कि तो भारत में सिर्फ मानव धर्म यानी प्रकृति धर्म को प्रश्रय दे और सरकारी रिकॉर्ड से जाति-धर्म कॉलम को विलोपित करवाएं, किसी भी जनगणना में इसका उपयोग नहीं होने दें, अन्यथा यह समझा जाएगा कि वो भी महज बीजेपी के वोट बैंक को जोड़ने के लिए मौखिक कसरत कर रहे हैं, वास्तव में समाज बदलने और उसे सही दिशा देने का उनका कोई इरादा नहीं है। वो भी भारतीयों के खिलाफ अस्तित्व में लाए गए संवैधानिक शरारत को जारी रखने के पक्षधर हैं, नया भारत तो सिर्फ जुमला है, जो घिसी-पिटी मुगलिया और ब्रितानी सोच के आधार पर ही घिसटने को राजी है।
गोया, कुछ अधिक याद दिला दिया हो तो क्षमा कीजिएगा, क्योंकि देश-समाज के हित में कड़वी बातें बोलना ही हमारा पेशेवर धर्म है, जिसका पालन करने की ये एक तुच्छ कोशिश भर है, ताकि किंकर्तव्यविमूढ़ सियासत सम्भल जाए और उसको वैचारिक बैक फायर देने वाले कथित समाजसेवी भी!