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जहां सबकी बल्ले बल्ले बहां "हम क्यों न कहें कि मेरा भारत महान"

Special News Coverage
29 Dec 2015 11:10 AM GMT
Mera_Bharat_Mahan

विष्णु शंकर अग्रवाल
1990 के दशक में परम पूज्य सन्त स्वामी रामसुखदास जी मुरादाबाद नगर में पधारे, विशाल जनसमूह से किसी ने आग्रह किया कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था के प्रति अपने विचार व्यक्त करने का कष्ट करें। सन्त प्रवर इस विषय पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहते थे परन्तु जनसमूह के पुनः पुनः आग्रह करने पर उन्होंने कहा कि भाई हमने सुना है “ बहुमत के द्वारा बहुमत के लिए बहुमत के शासन को लोकतन्त्र कहते हैं
और आप लोग बतायें कि बहुमत में कितने बुद्धिमान हैं ? “ जनसमूह की ओर से अनेक स्वर एक साथ उभरे कि अधिक संख्या तो मूर्खों की है।

स्वामीजी बोले कि भाई आपने अपने प्रश्न का उत्तर स्वयं दे दिया है। पूर्व में भी विश्व के अनेक दार्शनिकों ने यही मत व्यक्त किया है। स्वाभाविक मानवीय गुणों से इतर व्यक्ति बुद्धिकौशल से सरल व सीधे जनमानस को सम्मोहित कर सफलतापूर्वक शासन करने में सफल हो जाता है। भारत के पूर्व राष्ट्रपति महामहिम स्व0 श्री ए0 पी0 जे0 अब्दुल कलाम आजाद के अपने शब्दों में उन्हांने कहा था कि में भारत को वर्ष 2020 तक आथिर्क रूप से सम्पन्न व स्वावलम्बी बनने का स्वप्न देखता थ , मेरे कार्यकाल में तीन बार सत्ता परिवर्तन हुआ परन्तु चरित्र परिवर्तन किसी सत्ता में देखने को नहीं मिला। भारतीय जनमानस को लाोकतन्त्र के नाम पर प्रत्येक पाॅच वर्ष के अन्तराल पर केवल और केवल अपने मताधिकार का प्रयोग कर जनप्रतिनिधियों को चयनित करने का एक अवसर मात्र मिलता है उस पर भी हारे हुए जनप्रतिनिधि सत्ता में अत्यन्त उच्चासीन पदों पर शोभायमान होकर शासन करने में सफल होते हैं, देश का वित्तीय प्रबन्धन तक करते है फिर क्या फर्क पडता है जनमानस के मत से, संविद सरकार के नाम पर अल्पमत में रहने वाली पार्टियांॅ दूसरी अल्पमत वाली पार्टी से जोडतोड कर बहुमत से चुनी गयी पार्टियों को विपक्ष में बैठा देती हैं और बेचारा जनमानस फिर से जी तोड मेहनत कर कर्ज और करों के बोझ तले सत्तासीन जनसेवकों के लिए उस भोजन की थाली की व्यवस्था करता है जिसका मूल्य सात हजार रूपयों तक पहुॅंच चुका है और उसी जनमानस के पैसे से भोजन करने वाला जनप्रतिनिधि जनमानस के भोजन की थाली का मूल्य केवल पांॅच रूपया बताने में भी कोई संकोच नहीं करता है यह अलग बात है कि देश में अनेक बडे शहरों के अलावा अनेक ग्रामीण क्षेत्रों में शुद्ध पेयजल की उपलब्धता नष्ट हो चुकी है और पानी की एक बोतल का मूल्य भी कहीं अधिक है ।


जहां पानी की भी सवत्र व सहजनिशुल्क उपलब्धता कराने में सरकारें विफल हैं वहां ग्रामीण अंचलों में सवत्र बिजली, सडकों व पानी निकासी कीउचित व पर्याप्त व्यवस्था की बात करना तो अप्रसांगिक ही होगा। स्वतन्त्र देश में एकता व अखण्डता के नारों के साथ विभिन्न सत्ताधारी शासकों ने यह जरूरी समझा कि देश के जनमानस को धर्म, जाति, अगडे-पिछडे व वर्ग विशेष के रूप में खण्डित कर दिया जाए ताकि उनके सत्तासुख की स्वतन्त्रता में कोई व्यवधान न हो। भारतीय जनमानस गुमराह होने का व शासक वर्ग जनमानस को गुमराह करने का दक्ष व अभ्यस्त हो चुका है। प्रत्येक नागरिक के बैंक खाते में पन्द्रह लाख रूपयों के चुनावी जुमलों से सत्तायें पलट जाती हैं। भोली-भाली जनता का ठगा व छला जाना अनवरत रूप से चलता रहता है, जन-कल्याणकारी विभिन्न योजनाओं के अन्तर्गत वर्तमान में एक पेंशन योजना का विज्ञापन शीर्षस्थ व सर्वाधिक लोकप्रिय अभिनेता के द्वारा दूरदर्शन पर देखने को मिल रहा है जिसमें बताया जा रहा है कि 18 वर्ष की आयु से आप 200 रुपया प्रतिमाह इस योजना में जमा करायें व 60 वर्ष की आयु पूर्ण होने पर 5000 रुपया प्रतिमाह की पेंशन शेष जीवन पर्यन्त पायें। विचारणीय है कि एक व्यक्ति 42 वर्ष तक इस योजना में धन जमा करायेगा, व लगभग 20 वर्षों के लिए पेंशन पायेगा क्योंकि औसत आयु 80 वर्ष से कम है व वर्तमान में प्रचलित व्याज दर 12 प्रतिशत वार्षिक की है जिसमें 7 वर्ष में धन दोगुना होता है और 42 वर्षों में यह राशि 6 बार दोगुना होकर 12,800 रुपया होगी परन्तु आपको मिलेंगे केवल 5000 रुपये, जनता के साथ न केवल 7,800 रुपये प्रतिमाह की ठगी होगी वरन शेष अन्य 22 वर्षों की उसकी मेहनत की कमाई की बचत का लाभ सरकार व बैंको को मिलेगा इसके अलावा 42 वर्षों की मुद्रा-स्फीति अर्थात मंॅहगाई से उसे कितनी हानि होगी इसका आकलन विगत 42 वर्षों के भारतीय रुपये के विदेशी मुद्रा के साथ अवमूल्यन से आंॅकां जा सकता है, जैसे 42 वर्ष पूर्व सन 1973 में पेट्रोल का रेट 1 रुपया 60 पैसे प्रति लीटर था जो वर्तमान में 50 गुना बढकर 80 रुपये प्रति लीटर तक जा पॅहंचा जिससे यह स्पष्ट है कि 42 वर्ष पश्चात 200 रुपये का अवमूल्यन वर्तमान मॅंहगाई दर से इस स्तर पर होगा कि जो वस्तु आज 200 रुपये में मिलती है वह 10,000 रुपयों में मिलगी अर्थात 5,000 रुपये पेंशन पाने वाले की यह स्थिति होगी जो आज 100 रुपये की आय से एक माह तक गुजारा करने वाले की हो । सरकारों ने आजादी के बाद देश के साहूकारों को चोर कहकर बैंकों को लाईसेन्सी चोर बनाकर उनको कानूनी सुरक्षा प्रदान कर दी, आज बैंक व्याज के साथ साथ अनेक प्रकार के ऐसे शुल्क वसूल कर रहे हैं जो पूर्णतया असंगत हैं, सबका उल्लेख यहाॅं कठिन है बस इतना जानिए कि बैंक अपने निजी खर्चों का भार भी ग्राहकों पर डाल रहे हैं। इस देश में सरकारें चाहें जो करें वह ही कानून है वही न्याय सम्मत है अब

उदाहरणार्थ देखिए सरकार का वित्तीय वर्ष एक वर्ष का होता है जिसके अनुसार किसी प्रकार का कर एक वर्ष से अधिक अवधि के लिए वसूल किया जाना न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता है लेकिन सडक पर चलने वाले वाहनों का मार्गकर 1 वर्ष के स्थान पर 15 वर्षों का यह कहकर वसूल किये जाने की परम्परा शुरु की गयी कि यह सदैव के लिए एकमुश्त कर होगा फिर शीघ्र ही इसे 15 वर्षीय कर के रूप वसूला जाने लगा और अब तो इसकी पराकाष्ठा ही हो गयी जब वाहनों की मान्यता ही 10 वर्षीय किये जाने का प्रस्ताव लाया जा चुका है व 15 वर्षों का मार्गकर देने के बाद भी थोडी थोडी दूर पर टोल-टैक्स के रूप में भारी मार्गकर की पुनः पुनः वसूली की जा रही है न्यायपालिका के साथ साथ सारा देश मौन है। प्रणाम है ऐसे धन्य जनमानस को जो ऐसी लोकतान्त्रिक व्यवस्था को नमन करते हुए स्वयं को विश्व के सबसे बडे लोकतन्त्र और मेरा भारत महान के उदघोष करने में अपना गौरव समझता है जहां लोकतन्त्र के प्रहरी कहे जाने वाले चार स्तम्भों अर्थात विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका व पत्रकारिता के अलावा काॅरपोरेट जगत के अधिष्ठात्र गणमान्यों की चमक दिन दूनी रात चैगुनी बढ रही है। अंग्रेज शासकों द्वारा ब्रिटेन में इण्डिया इन्डिपेन्डेन्स एक्ट कानून पारित कर व भारत देश का विभाजन कर देश को भारतीय मूल के शासकों के हाथ में सौंप दिया गया और देश आजाद होने के बाद भी अंग्रेज शासकों द्वारा बनाये गये लगभग 3500 दमनकारी कानूनों में से मात्र कुछ एक कानूनों को बदलकर शेष सभी को स्वतन्त्र भारत की निरीह जनता पर जस का तस लाद दिया गया। सन 1817 का पुलिस मैनुअल, लाॅर्ड मैकाले का बनाया गया आईरिश पीनल कोड आज की भारतीय दण्ड विधान संहिता कहलाती है जिसके विषय में स्वयं लाॅर्ड मैकाले ने भारत में लागू करते समय कहा था कि भारत की जनता न्याय के लिए अदालतों के चक्कर काटती रहेगी लेकिन उसे न्याय नहीं मिलेगा। कैसी विडम्बना है कि आज देश में दण्ड को ही न्याय कहा जाता है जबकि दण्ड का विध न अपराधी के लिए व न्याय का विधान पीडित के लिए होता है लेकिन मौजूदा न्याय व्यवस्था में अदालतें अपराधी को दण्ड देकर ही न्याय की संज्ञा देती हैं और पीडित को भी अपराधी को दण्ड दिये जाने तक अदालतों के चक्कर काटने को विवश किया जाता है और अन्ततः उसे उसके हाल पर शेष जीवन का बोझ ढोने के लिए छोड दिया जाता है, यह है हमारे देश की संवेदनशीलता, सहनशीलता व सहिष्णुता। देश के शीर्षस्थ व सम्पन्नताधनी अक्सर यह कहते हुए देखे जाते है कि वे भारतीय न्याय व्यवस्था के प्रति पूर्ण आस्था व सम्मान रखते हैं और ऐसा क्यॅंु न हो जब सारी व्यवस्था उनके अनुकूल कार्य करती हो, एक निरीह निरपराधी को कारागार में डालने के बाद रिपोर्ट लिखी जाती हैं और जेलों में क्षमता से बहुत अधिक संख्या में कैदियों को न्यायिक अभिरक्षा के तहत रखे जाने के लिए मान्य न्यायालयों द्वारा भेजा
जाता है। न्यायिक अभिरक्षा में रखे जाने अथवा न रखे जाने का अधिकार केवल न्यायपालिका का है तब फिर क्या उनका यह कर्तव्य नहीं बनता कि जेलों में क्षमता से अधिक कैदियों को न रखा जाय उनके प्रति मानवीय व्यवहार हो। न्याय में विलम्ब को न्याय से इन्कार की संज्ञा में रखा गया है आरै न्याय में विलम्ब की सीमा उस स्तर को पार कर चुकी है कि जहाॅं अपराध के लिए दण्ड की व्यवस्था केवल 3 से 6 माह के कारावास की हो और कैदी अपनी
पूरी जवानी कारावास में काट दे। दूसरी ओर शक्तिशाली व्यक्तित्व के लिए जघन्य अपराध के दोषी होने पर भी यह कहते हुए छुआ तक नहीं जाता कि अभी जांॅच की जा रही है व दोषी पाये जाने पर नियमानुसार कार्यवाही की जायेगी और यदि किसी कारण दोष भी नहीं छिपाया जा सका और कारावास में जाने की स्थिति बनी तो किसी गेस्ट हाउस में रखकर उसे जले की सज्ञं ा दी जाती है अथवा किसी जले को ही गस्े ट हाउस बना दिया जाता है। संधि न में समान व्यवहार की व्यवस्था व्यवहार जगत में नहीं मिलती, परीक्षा देने स्कूल जाते बच्चों को किसी वी.वी.आई.पीके काफिले के इन्तजार में रोक दिया जाता है। कार्यपालिका में जब शिखरस्थ जूते चप्पल उठाते हुए मिलते हैं तो अधीनस्थों की क्या मजाल और मीडिया का स्वामित्व जब काॅरपारेट के हाथ हो तो फिर इन सबकी बल्ले बल्ले और जहां सबकी बल्ले बल्ले बहां "हम क्यों न कहें कि मेरा भारत महान"।
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