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पुण्यतिथि: एक अजीब किस्म का अपने उसूलों वाला महान अदाकार गुरू दत्त

Shiv Kumar Mishra
10 Oct 2020 11:52 AM GMT
पुण्यतिथि: एक अजीब किस्म का अपने उसूलों वाला महान अदाकार गुरू दत्त
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कुछ लोग एक अजीब सी बेचैनी में जीते है। जैसे वे जिंदगी भर किसी तलाश में चल रहे होते है। कोई भी चीज उन्हें लगातार चैन नहीं देती। यह बेचैनी और संवेदनशीलता उनके माध्यम से लगातार कुछ न कुछ अदभूत और अद्वितीय रचती रहती है। कई बार यह बेचैनी उनके साथ ही जाती है और कई बार उन्हें अपने साथ लेकर ही।

असल में गुरु दत्त की बेचैनी ने ही उनकी फिल्मों को अमरता दी और उन्हें मौत। दुनिया के सर्वकालिक महान फिल्मकारों में शुमार गुरु दत्त को जिस जिद और बैचैनी ने बनाया उसने ही उनका सबसे ज्यादा नुकसान भी किया। यह बात महान अदाकारी के कलाकार गुरु दत्त के साथ सौ फीसदी सच के साथ जुड़ी हुई है।

गुरू दत्त के साथ जो हुआ वह दूसरी तरह के हादसे की श्रेणी में आता है। एक ऐसा हादसा जिसने 39 साल की उम्र में ही उनकी जान ले ली। जिसके बारे में आज तक ठीक से कहना मुश्किल है कि वह सचमुच आत्महत्या ही था या कुछ और।

गुरु दत्त की मौत शराब और नींद की गोलियों के अत्यधिक सेवन के कारण हुई थी। कहा नहीं जा सकता कि यह मात्रा जानबूझकर ली गई थी या इसके पीछे लापरवाही थी। हालांकि इससे पहले भी वे दो बार आत्महत्या की कोशिश कर चुके थे।

नींद न आने की बीमारी गुरु दत्त को काफी समय से थी। उनके करीबी दोस्त रहे विमल मित्र अपनी किताब 'बिछड़े सभी बारी बारी' में भी इस बात का जिक्र बार-बार करते हैं- बार बार रात में उठकर उनसे बात करने आने की बात, काफी मशक्कत के बाद आधी रात को उनके लिए नींद की गोली लाने की बात और ठीक मात्रा में ही उन्हें दवा देने की बात भी।

खैर, यह मौत थी या आत्महत्या या फिर हत्या, इस सवाल को छोड़ भी दें तो भी कह सकते हैं कि यह मौत लगभग वैसे ही थी जैसा अंत गुरु दत्त 'कागज के फूल' में अपने नायक के लिए रचते है।

यह जान ले कि कागज के फूल को गुरु दत्त की जिन्दगी की अपनी कहानी कहकर ही प्रचारित किया गया है। खुद गुरु दत्त ने ही इसकी कहानी लिखी थी और इसे इस तरह ही देखा-समझा जाए उनकी यह चाहत भी यही थी।

हालांकि यह फिल्म फ्लॉप रही थी। बाद में भले ही इसे क्लासिक के तौर पर देखा गया लेकिन, उस समय के दर्शकों ने इस आत्महंता कहानी को सिरे से खारिज कर दिया था। सिर्फ यही नहीं और भी दो क्लासिक्स गुरु दत्त की झोली में हैं- प्यासा और साहिब बीबी और गुलाम।

गुरुदत्त की जिंदगी पर जब भी बात की जाए, अकेले की जानी असंभव है। एक प्रेम त्रिकोण सा इसमें आना ही आना है। इस त्रिकोण के तीन सिरे गुरुदत्त, गीता दत्त और वहीदा रहमान हैं। अभिनेत्री वहीदा रहमान लंबे अरसे तक गुरुदत्त खेमे की एक जरूरी कड़ी रही। कहा जाता है कि वे गुरु दत्त के लिए प्रेरणा और जीवन-स्त्रोत भी थी। इस बात में जाहिर है एक अनाम सा दर्द था।

वहीदा रहमान के साथ गुरू दत्त के रिश्ते की भी अपनी एक कहानी है। बताते है कि वहीदा के अलग होने के ठीक साल के भीतर गुरु दत्त दुनिया को अलविदा कर गए थे। इस घटना के चलते अभिनेत्री वहीदा के साफ सुथरे चमकदार व्यक्तित्व और फिल्मी जीवन पर मौत का दोष एक धब्बे की तरह लगा है।

हालांकि अपने शालीन और मर्यादित व्यवहार के लिए जानी जाने वाली वहीदा रहमान भविष्य में जब भी इस सवाल से घिरीं, इसे अपना व्यक्तिगत जीवन कहकर टाल जाती रही।

वहीदा के एक अजीज के अनुसार वहीदा ने इसलिए अपने कदम पीछे खींच लिए थे कि उन्हें अहसास हो चुका था कि गुरु दत्त की जिंदगी में गीता दत्त की जगह कोई नहीं ले सकता। हालाकि वहीदा चाहती तो आराम से गुरु दत्त के साथ शादी कर सकती थीं। गीता दत्त घर छोडक़र जा ही चुकी थी। लोग कुछ दिनों में सब कुछ भूल ही जाते और फिर कहानी भी दूसरी ही होती, पर यह हो न सका।

एक अनाम सा डर वहीदा के दिल में गुरु दत्त के स्वभाव की अस्थिरता को भी लेकर रहा हो शायद। गुरु दत्त अपने निजी जीवन में और बतौर कलाकार भी उस जिद्दी बच्चे जैसे थे जिसे कुछ चाहिए होता है तो बस चाहिए होता है। ना नुकुर, किन्तु-परंतु की वहां कोई गुंजाइश ही नही होती थी। इसका सबसे बड़ा प्रमाण वह बंदिश है जो गीता दत्त से लेकर वहीदा तक समान रूप से लागू थी। इन दोनों को कहीं और फिल्म करने की आजादी नहीं थी।

गुरु दत्त के अकेले पड़ जाने का सबसे बड़ा एक कारण यह भी था कि वे अति की सीमा तक 'पजेसिव' थे। अपनी बनाई कैद में लोगों को बांधकर रखते हुए वे यह भी भूल जाते थे कि सामने वाला भी उनकी ही तरह एक इंसान और कलाकार है। जब वे किसी खांचे या कहें कि एक ही तरह के काम से बंधकर नहीं जी सकते थे तो उस व्यक्ति की छटपटाहट की सीमा क्या रही होगी?

नर्तक, लेखक और कोरियोग्राफर से लेकर निर्देशक, लेखक और अभिनेता तक उनकी विविधरंगी यात्रा क्या किसी ऐसी ही कैद में वह स्वरूप ग्रहण कर पाती? लेकिन न सुनना तो गुरु दत्त को मंजूर ही नहीं था। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है प्यासा के लिए दिलीप कुमार की ना के बाद गुरु दत्त का खुद उस भूमिका में उतरना।

आत्ममोह और आत्मकेंद्रीयता की इस प्रवृत्ति का कुछ लेना-देना उनके बचपन से भी था। मां अपने सब बच्चों में सबसे अधिक लगाव उन्हीं से करती रही। वे गुरु दत्त की प्रतिभा और जिद को जानती थी शायद इसलिए उनके हर निर्णय को बिना सवाल बचपन से ससम्मान तवज्जो देती थी।

यह उस मां के लगाव की पराकाष्ठा ही थी कि उनके नाम वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोने में उनका अनिष्ट छिपा है, यह जानते ही उन्होंने उनका नाम गुरु दत्त कर डाला था। पर वे नहीं जानती थी कि अनिष्ट नामों में नहीं होता और नाम बदलने भर से चला भी नहीं जाता।

सदाबहार अभिनेता और गुरु दत्त के अभिन्न मित्र देव आनंद ने बिलकुल ठीक ही कहा था- वे बेहद भावुक किस्म के इंसान थे। उनकी वजह से ही हमें इतनी आला दर्जे की फिल्मों की सौगाते मिली, मगर उनकी मौत का कारण भी वह भावुकता ही बनी।

गुरु दत्त अपने आप में एक संपूर्ण कलाकार बनने की पूरी पात्रता रखते थे। उनकी साहित्यिक रुचि और संगीत की समझ की झलक भी हमें उनकी सभी फिल्मों में दिखती है। वे विश्वस्तरीय फिल्म निर्माता और निर्देशक थे।

उनकी जिद का ही परिणाम था कि फिल्म इंडस्ट्री को कई बेहतरीन फिल्में, पटकथाएं, एक बेहतरीन टीम और वहीदा रहमान जैसी एक सशक्त और शाश्वत अदाकारा मिली। गुरु दत्त के जाने के बाद उनकी टीम तो रही पर उसमें वह बात न रही।

अबरार अलबी पटकथा और डायलॉग लेखक के रूप में काम करते रहने के बावजूद वह नहीं रह पाए जो गुरु दत्त के रहते होते। गीता दत्त गुरु दत्त के जाने के बाद से ही नर्वस ब्रेक डाउन से गुजरी तो फिर कभी उबरी ही नही। इसके बाद के नौ साल उनके लिए गुमनामी, चुप्पी और दर्द के साल थे जो किसी कलाकार के जीते जी मौत जैसे ही होते है।

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