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तमिल "सरकार" बालीवुड में बनती तो सेंसर पास ही नहीं करता - पुण्य प्रसून बाजपेयी

Special Coverage News
11 Nov 2018 9:03 AM GMT
तमिल सरकार बालीवुड में बनती तो सेंसर पास ही नहीं करता - पुण्य प्रसून बाजपेयी
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पुण्य प्रसून बाजपेयी

"ठग आफ हिन्दुस्तान" ने एहसास कराया कि मौजूदा राजनीतिक महौल में कैसे रचनात्मकता काफूर है तो "सरकार " ने एहसास कराया कि जब रचनात्मकता खत्म होती है और समाज में वैचारिक शून्यता आती है तो कैसे हालात लोकतंत्र ही हडप लेती है। जी , दोनो ही सिनेमा है। एक मुंबईया फिल्म इंडस्ट्री से तो दूसरी तमिल सिनेमा से। और मौजूदा वक्त में कौन किस रुप में नतमस्तक है या किन हालातो में कितनी सक्रियता क्षेत्रिय स्तर पर महसूस की जा रही है ये राज " ठग आफ हिन्दुस्तान " में भी छिपा है और " सरकार " में भी।


दरअसल हिन्दी पट्टी में बालीवुड की घूम हमेशा से रही है । और सिनेमा को समाज का आईना इसलिये भी माना गया क्योकि इमरजेन्सी में गुलजार फिल्म आंधी बनाने से नहीं हिचकते। नेहरु के दौर में सोशलिज्म को चोचलिस्ट कहने से राजकपूर नही कतराते। और ये दुनिया अगर मिल भी जाये ... गीत परोसते वक्त गुरुदत्त आधी रात की आजादी के महज दस बरस बाद ही सवाल खडे करने से नही हिचकिचाते। हर दौर को परखे तो बालीवुड से कुछ तो निकला जिसने सवाल खडे किये। या फिर सवालो से घिरे समाज के सामने फिल्म के जरीये ही सही अपने होने का एहसास करा ही दिया । लेकिन ऐसा क्या है कि बीते चार बरस के दौर में आपको कोई ऐसी फिल्म बालीवुड की दिखायी नही दी। जो सामाज का आईना हो। या फिर समाज से आगे फिलमकारो की क्रियटिव का एहसास कराता हो। खामोशी क्यो हो गई ....और जब क्रियटिविटी थमती है या दबाव में आ जाती है तो कैसे फिल्म बनती है ये "ठग आफ हिन्दुस्तान" के जरीये समझी जा सकती है। पर इसी कडी में जब आप " सरकार " देखते है तो रचनात्मकता एक नये उफान के साथ दिखायी देती है। और फिल्म सरकार देखते वक्त बार बार ये सवाल जहन में उभरता ही है कि अगर इसी कहानी को लेकर बालीवुड का कोई फिल्मकार सिनेमा बनाता तो क्या सेंसर बोर्ड पास कर देता।


क्योकि फिल्म सरकार शुरु तो होती है अमेरिका के लास वैगास से सीधे चेन्नई पहुंचे एक एनआरआई से। जो विधानसभा चुनाव में एक वोट डालने के लिये लाखो रुपये यात्रा पर खर्च कर पहुंचा है। लेकिन पोलिंग बूथ पर जब वह पहुंचता है और उसे पता चलता है कि उसका वोट तो पहले ही किसी ने डाल दिया । और एक वोट के जरीये परिवर्तन की लोकतांत्रिक थ्योरी ही सही लेकिन जिसे लोकतंत्र में ही कानून के जरीये अमली जामा पहनाया गया है , उसे ही थाम कर महज वोट देने का संघर्ष कैसे लोकतंत्र के भीतर भरे पडे मवाद को उभार देता है । और परत दर परत जो भी हालात सत्ता में आने के लिये या सत्ता बरकरार रखने के लिये राजनीतिक दल करते है वो उभरते चले जाते है । और तब ये सवाल भी उभरता है कि अपने ही गांव से राजनीतिक सत्ता की नीतियो तले कैसे लोग शहरो में रोजगार की तालाश में पहुंचते है । और उनकी हालत शर्णारथी की तरह हो जाती है । और आखिर कार राजनीतिक सत्ता की मेहरबानी पर ही गांव छोड शहरो में आये लोग निर्भर हो जते है । और सियासत अपने तरीके से वोटरो का दोहन करती है और खुद लूट का नंगा खेल लोकतंत्र के नाम पर करती है । दरअसल, ये फिल्म इस मायने में महत्वपूर्ण है कि एक वोट की अहमियत और वोट के लिये अरबो खरबो की लूट के तरीके इतने सामानांतर हो चले है कि कुछ बदलेगा ही नहीं ये बात हर दिल में समा चुकी है । लेकिन फिल्म तो फिल्म होती है और तीन घंटे में पोयटिक जस्टिस होना चाहिये तो फिल्म सरकार में भी पोयटिक जस्टिस होता है।


आप कह सकते है कि ये तो तमाम फिल्मो में होता है फिर सरकार अलग कैसे । इस कडी में आप कालेज स्टूडेंट के जरीये चुनावी लोकतंत्र के भीतर के हालात को उभारने वाली फिल्म युवा को भी याद कर सकते है। लेकिन उ,स पिल्म में चार उम्मीदवार जितते है । और बाकि अगली बार.....इस सोच के साथ फिल्म खत्म हो जाती है । लेकिन " सरकार " की सबसे बडी खासियत यही है कि एक वोट के सवाल पर शुरु हुई फिल्म चुनाव आयोग की कमजोर कडियो को पकडते हुये सत्ता पर पकड बनाने के लिये बहुमत के जनादेश को पाने तक की स्थति कैसे बनेगी उसे बताने की कोशिश जरुर की गई । और 234 सीटो की विधानसभा में 210 निर्दिलिय भी जीत सकते है इसका नायाब प्रयोग भी किया गया और फिल्म का नायक खुद सीएम नहीं बन कर उस लोकतंत्र को जिन्दा करने की कोशिश करता है जो सरोकार या कहे जन सहयोग राजनीतिक सत्ता तले खत्म किया जा चुका है । यानी लोकतंत्र का संदेश मजबूत विपक्ष के होने में कैसे छिपा है जो की गायब हो चला है और जिसकी सत्ता होती है वह बिना जवाबदेही सारी नीतिया बनाता है । लूट मचाता है । क्योकि कोई रोकने वाला नहीं होता , इसका एहसास कराने की कोशिश की गई है । इसलिये फिल्म 210 विधायको में से खुद को अलग कर नायक विजय कुमार बतौर विपक्ष का विधायक होने का संदेश देता है । दरअसल चाहे अनचाहे देश में मौजूदा सत्ता के सामने कमजोर विपक्ष । या सत्ता के एकतरफा फैसले । ईवीएम के सवाल । और जनता के सामने मुश्किल भरे हालात और उसपर सत्ता की कल्याणकारी योजनाओ का ढकोसला या लैपटाप से लेकर टीवी सेट बांटने सरीखे हालात भी फिल्म देखते वक्त सवालो के घेरे में आ ही जाते है । हालाकि फिल्म कामर्शियल है यानी बिकाउ बनाने के लिहाज को रखा गया है तो फिल्म में हर वह दृश्य है जो किसी भी तमिल फिल्म में होता है .... मसलन नायक का एक साथ दर्जनो गुंडो को मार देना । या फिर हर विधा में निपुण नायक।


पर पहली बार बालीवुड की फिल्मो में रहमान का संगीत सुनने वालो के लिये फिल्म सरकार का संगीत अलग सुनाई देगा । जो तेज है । कानफाडू है । लेकिन इसी के सामानातंर अगर "ठग आफ हिन्दुस्तान" का जिक्र करें तो अलग कुछ भी नहीं लगेगा । "ठग आफ हिन्दुस्तान" में भी संगीत बेस्वाद है । गायकी का अंदाज पटरी से उतरा हुआ है । ठग नायक है तो हर दृश्टी से बलिष्ट है । और कहानी बिना सिर पैर सिर्फ अंजाम तक पहुंचने के लिये भागती- दौडती रहती है । तो निकलता कुछ भी नहीं है और ये सवाल रेगं सकता है कि जब अमिताभ बच्चन और आमिर खान एक साथ पहली बार सिनेमाई पर्दे पर हो तो कुछ नया प्रयोग की आस हर देखने वाले में जगी होगी । पर निकला कुछ नहीं तो निराशा गहरायी होगी । सही मायने में हुआ यही है । क्योकि "ठग आफ हिन्दुस्तान" को पहले दिन देखने पर भी हाल में सीटे खाली मिली । और " सरकार " को पांचवे दिन देखने पर भी सिनेमाघर के मैनेजर से कहकर दो सीटो की व्यवस्था करानी पडी । जबकि फिल्म दिल्ली में देखी जा रही थी , चेन्नई या तमिलनाडु के किसी शहर में नहीं । तो दोनो फिल्म का आखरी सच तो यही निकला कि दोनो ही फिल्मो ने नई लकीर खिंची या पुराने मिथ तोड दिये । क्योकि अमिताभ और आमिर खान जिस तरह मौजूदा वक्त से कटे हुये एतिहासिक परिपेक्ष्य में पंचतंत्र की कहानी की तरह किसी नाटकीय भूमिका में सिलवर स्क्रिन पर नजर आये ।


तो दूसरी तरफ दक्षिण की फिल्म " सरकार " ने लोकतंत्र के उस नींव पर ही अंगुली रख दी जिसपर बहस की गुंजाइश राजनीतिक तौर पर भी हर किसी ने बंद कर दी है। वोट की चोरी। या कहे एक वोट का महत्व। या फिर एक एक वोट पर टिके लोकतंत्र को ही खरीदने की सत्ता की धमक। तो सिनेमा असरकारक भी है और बेअसर होकर असरकारक नायको को भी खारिज करने की स्थिति में आ चुका है। तभी तो पुणे में "ठग आफ हिन्दुस्तान" का शो दर्शक ही रुकवा देते है। और " सरकार " रुकवाने के लिये एआईडीएमके सरकार के इशारे पर तमिलनाडु पुलिस फिल्म के डायरेक्टर मुरुगादौस के घर पर पहुंच जाती है और डायरेक्टर को मद्रास कोर्ट से अग्रिम जमानत लेनी पड जाती है। यानी देश में सियासी हकीकत जब " सरकार " से आगे है तो फिर "ठग आफ हिन्दुस्तान" सरीखी फिल्म को लोग देखे क्यो और " सरकार " चाहे तमिल में हो देखना हिन्दी पट्टी के लोगो को भी चाहिये क्योकि जिन हालातो से वह खुद दो चार हो रहे है उसमें सरकार क्या क्या कर रही है उसका धुधलाका कुछ और साफ होता है। और सिनेमाई सरकार देखने के बाद लोकतंत्र में काबिज सरकार कैसे-कैसे हथकंडे अपनाती है ये भी समझ में आ जायेगा।

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