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मूवी रिव्यू : शेरदिल, द पीलीभीत सागा (Sherdil,The Pilibhit Saga), कहानी कमजोर लेकिन पंकज त्रिपाठी का अभिनय दमदार।
ओटीटी के बादशाह कहे जाने वाले पंकज त्रिपाठी ने कमजोर कहानी वाली इस फिल्म में अपने दमदार अभिनय से जान डाल दी है। कभी हाशिए पर रहने वाले पंकज जबसे ओटीटी पर आए हैं, खूब धमाल मचाया है।
पंकज त्रिपाठी उन समर्थ और ईमानदार ऐक्टर्स में से एक हैं जिन्हें किरदारों में ढलने का गुण खूब आता है। यही वजह है कि जब नैशनल अवॉर्ड विजेता निर्देशक श्रीजीत मुखर्जी उनके कंधों पर गंगाराम के जरिए एक ऐसी कहानी का भार डाल देते हैं जो एक तरह गरीबी और भुखमरी की बात करती है, जानवर, जंगल और पर्यावरण का मुद्दा भी उठाती है, तो ऐक्टर अपनी जिम्मेदारी को बखूबी उठाते हैं। विषय को लेकर निर्देशक की मंशा या नियत पर कोई शक नहीं किया जा सकता, मगर कहानी के स्तर पर श्रीजीत ने थोड़ी और मेहनत की होती तो वे अपने मुद्दे को बेहतर ढंग से पेश कर पाते।
फिल्म शेरदिल, द पीलीभीत सागा की कहानी
कहानी सत्य घटना से प्रेरित है। गंगाराम (पंकज त्रिपाठी) गांव का एक ऐसा मुखिया है, जो गांव की भलाई और सुख समृद्धि के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। गंगाराम का गांव टाइगर रिजर्व के पास है और बाघ और जंगली जानवरों ने गांव वालों का जीना हराम कर दिया है। ये जंगली जानवर अपने जंगल की सीमा को तोड़ कर गांव में घुस आते हैं और उनकी फसल बर्बाद कर देते हैं। इतना ही नहीं कुवह सालों से खेती पर बाढ़ की मार भी पड़ी है, तो गांववाले गरीबी और भुखमरी के दंश को झलते हुए अपना जीवन बिताने को मजबूर हैं। ऐसे में गांव का मुखिया होने के नाते गंगाराम गांव को गरीबी से निजात दिलाने और अपनी आने वाली पीढ़ियों के उज्जवल भविष्य के लिए एक योजना बनाता है। उसके तहत अगर वो बाघ का शिकार हो जाता है, तो उसे सरकारी स्कीम के तहत दस लाख का मुआवजा मिलेगा और उसके गांव की समस्यायों की तरफ सरकार का ध्यान आकर्षित होगा। अपनी पत्नी सयानी गुप्ता, मां, बच्चों और गांववालों को इस योजना के लिए राजी करने के लिए वह खुद के कैंसर ग्रस्त होने की झूठी कहानी गढ़ता है कि उसके पास सिर्फ तीन महीने बचे हैं और वह मरने से पहले गांव और परिवार का उद्धार करना चाहता है। अब जंगल में पहुंचे गंगाराम की मुलाकात शिकारी जिम (नीरज काबी) से होती है। गंगाराम जिस बाघ का शिकार होने पहुंचा है, उसे ये शिकारी अपना शिकार बना कर तस्करी के धंधे में खूब पैसे कमाने की चाह रखता है।
फिल्म क्यों देखनी चाहिए
लेखक-निर्देशक के रूप में श्रीजीत मुखर्जी फर्स्ट हाफ में कहानी और किरदारों को स्थापित करने में काफी वक्त लगा देते हैं। गरीबी और पर्यावरण के मुद्दे के विषय की बुनावट और बेहतर की जा सकती थी। मगर फिल्म में कई संवेदनशील मुद्दों को उठाया गया है कि कैसे सालों से इंसान जानवरों की दुनिया में घुस कर अतिक्रमण करते जा रहे हैं, जिसके नतीजे में जानवर इंसान के खेतों और जिंदगी में हाहाकार मचाने को मजबूर हो गया है। फिल्म का पहला सीन ही सरकारी योजनाओं की बखिया उधेड़ता नजर आता है। फिल्म में इस मुद्दे पर भी फोकस किया गया है कि कैसे इंसान जानवर से ज्यादा लालची हो चुका है। फिल्म राजनीति, सटायर और फलसफे जैसे पहलुओं को भी संवादों के जरिए छूती हैं, मगर एक बिंदु पर आकर ये उपदेश लगने लगते हैं। लेखक-निर्देशक गांव की गरीबी की दारुणता को मजबूती से दिखाते, तो ज्यादा बेहतर होता। मगर हां संगीत के मामले में फिल्म की दाद देनी होगी। एक लंबे अरसे बाद हिंदी फिल्म में संत कबीर और गुलजार का फलसफा कहानी को आगे बढ़ाता नजर आता है।