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गुजरात: बीजेपी को केशुभाई पटेल का सहारा, क्यों आई याद बड़ी बात?

गुजरात: बीजेपी को केशुभाई पटेल का सहारा, क्यों आई याद बड़ी बात?
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नई दिल्लीः गुजरात में पिछले 22 साल से सत्ता में काबिज बीजेपी के लिए इस बार के विधानसभा चुनाव बड़ी चुनौती माने जा रहे है. इस बार पार्टी को सत्ता विरोधी लहर के साथ-साथ बिना नरेंद्र मोदी के बिना चुनाव मैदान में जाना है. पार्टी के लिए राज्य में लगातार बदलते सामाजिक समीकरण भी कहीं ना परेशानी का सबब बनते जा रहे है.


पटेल आंदोलन, दलित आंदोलन, ओबीसी आंदोलन ने गुजरात में बीजेपी के खिलाफ एक माहौल बना दिया है. यह माहौल विपक्षी पार्टी कांग्रेस के लिए कितना कारगर साबित होगा यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा, लेकिन केंद्र की सत्ता पर काबिज बीजेपी के लिए अपने प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय अध्यक्ष के गृह राज्य में सत्ता में वापसी करना अब साख का सवाल बन गया है.

जहां एक तरफ कांग्रेस के लिए गुजरात चुनाव में खोने को कुछ भी नहीं है लेकिन उसके लिए वापसी के कई रास्ते राज्य के जातिगत गणित ने खोल दिए है. पटेल आंदोलन के चलते बीजेपी से नाराज पाटीदार अनामत आंदोलन समिति ने जहां इशारो-इशारो में कांग्रेस को समर्थन देने की बात कही है. वही ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर पहले ही कांग्रेस में शामिल हो चुके है. गुजरात के दलित नेता जिग्नेश मेवाणी भी बीजेपी के खिलाफ कांग्रेस को वोट देने की बात कह चुके है.

ऐसे में गुजरात में अब बीजेपी के लिए सिर्फ एक ही शख्स है जिसके आने से पार्टी के हाथ से छिटकते सामाजिक जनाधार को रोका जा सकता है. वह शख्स और कोई नहीं गुजरात में जनसंघ के संस्थापक सदस्यों में से एक केशुभाई पटेल है. केशुभाई उन लोगों में से हैं, जिन्होंने राज्य में बीजेपी को खड़ा किया था.

साल 1995 में केशुभाई की अगुवाई में ही बीजेपी ने पहली बार अपनी सरकार बनाई और वह मुख्यमंत्री बने. मगर अब खराब स्वास्थ्य के चलते सक्रिय राजनीति में उनकी भूमिका कम हुई है. इसके बावजूद वह बीजेपी के लिए अहम साबित हो सकते हैं. राज्य में हार्दिक पटेल के नेतृत्व में पाटीदार समुदाय के विरोध से निपटने के लिए वह बीजेपी के लिए मददगार साबित हो सकते हैं.
पार्टी से बनते-बिगड़ते रिश्ते
बीजेपी से उनके रिश्ते बनते बिगड़ते रहे हैं. पहली बार मुख्यमंत्री बनने के सात महीने बाद ही उन्हें शंकरसिंह वाघेला से विवाद के चलते इस्तीफा देना पड़ा था. बाद में 1998 में वह फिर से मुख्यमंत्री चुने गए, लेकिन 2001 में उन्होंने पद छोड़ दिया. माना गया कि भ्रष्टाचार और भुज में आए भूकंप के दौरान कुप्रबंधन के चलते उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. इसके बाद से लगातार पार्टी से उनके रिश्तों में कड़वाहट आती रही. 2002 में वह चुनाव भी नहीं लड़े और 2007 में कांग्रेस को अप्रत्यक्ष तौर पर समर्थन किया. 2012 में आखिरकार उन्होंने पार्टी से इस्तीफा दे दिया और अलग पार्टी बना ली. मगर 2014 में वह फिर से बीजेपी से जुड़ गए.

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