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दिल्ली की सीमा से सटे फरीदाबाद के खोड़ी गांव के दस हजार घरों में रहने वाले कोई एक लाख लोगों को उजाड़ने का सुप्रीम कोर्ट का आदेश कानून के हिसाब से सटीक है, लेकिन यह एक सवाल भी खड़ा कर रहा है कि जिस तंत्र की लापरवाही से यह अवैध कब्जे का साम्राज्य खड़ा होता है, वह ऐसी मानवीय त्रासदी में निरापद कैसे रह जाता है। शायद भारत के इतिहास में इतना बड़ा अतिक्रमणरोधी अभियान कभी नहीं चला होगा जिसमें 35 धार्मिक स्थल, पांच स्कूल, दो अस्पताल, बड़ा सा बाजार सहित समूची बस्ती को उजाड़ा जा रहा है, वह भी विस्थापितों के लिए बगैर किसी वैक्लिपक व्यवस्था के। यदि बारिकी से देखें तो समूची कार्यवाही उसी सुप्रीम कोर्ट के आदेष पर हो रही है जिसके पहले भी कई ऐसे आदेषों पर राज्य सरकारें कुडली मार कर बैठी रही हैं। यह विचार करने का समय है कि यदि देष से सरकारी जमीन से सभी अवैध कब्जे हटा दिए जाएं तो भारत का स्वरूप कैसा होगा? आंचलिक क्षेत्रों की बात दूर की राजधानी दिल्ली में ही अवैध कालोनियों को नियमित करने, झुग्गी बस्ती बसाने व विस्थापन पर नए स्थान पर जमीन देने, मुआवजा बांटने के तमाषे सालों से हर सरकार करती रही है।
खोड़ी गांव अरावली पहाड़ की तली पर अस्सी के दशक में तब बसना षरू हुआ था जब यहां खनन शुरु हुआ। पहले खदानों में काम करने वाले मजदूरों की कुछ झुग्गियां बसीं, फिर इसका विस्तार लकड़पुर गांव से दिल्ली की सीमा तक होता रहा। फिर सुप्रीम कोर्ट के आदेष पर अरावली में खान पूरी तरह पाबंद कर दिया गया और यह बस्ती मेहनत-मजदूरी करने वालों से आबाद होती चली गई। अधिकांष उप्र-बिहार के श्रमिक। पावर आफ अटार्नी पर गरीब-श्रमिक जमीन खरीदते रहे और अपनी सारी कमाई लगा कर अध-पक्के ढांचे खड़े करते रहे। इधर दिल्ली सुरसा मुख सी फैल रही थी तो उधर फरीदाबाद-गुरूग्राम सड़क आने के बाद सारा इलाका नगर निगम क्षेत्र में अधिसूचित हो गया। जान कर आश्चर्य होगा कि इस एक लाख आबादी की रिहाईश भले ही हरियाणा में हो लेकिन दिल्ली से तार खींच कर यहां घर-घर बिजली दी जाती थी। बाकायदा साढ़े तेरह रूपए यूनिट की वसूली ठेकेदार करते थे । पानी के लिए टैंकर का सहारा। हर घर में बड़ी-बड़ी टंकियां थीं जिसमें एक हजार रूपए प्रति टैंकर की दर से माफिया पानी भरता था। एक घर का काम महीने भर में देा टैेकर से चल जाता। वहीं पीने के लिए बीस रूपए की बीस लीटर वाली बोतल की घर-घर सप्लाई की व्यवस्था यहां थी। जाहिर है कि यहां हर महीने अकेले बिजली-पानी का कारोबार बीस करोड़ से कम का ना था और इतने बड़े व्यापार तंत्र का संचालन बगैर सरकारी मिलीभगत से हो नहीं सकता। यहां हर एक वाषिंदे के पास मतदाता पहचान पत्र है और इस बस्ती के लिए बाकायदा चार मतदाता केंद्र स्थापित किए जाते थे।
असल में खोड़ी-लकड़पुर की कोई 100 एकड़ जमीन नगर निगम की है। पंजाब भू संरक्षण अधिनियम- 1900 के तहत यह जमीन वन विकसित करने के लिए अधिसूचित है और यहां कोई भी गैरवानिकी कार्य वर्जित है। अरावली क्षेत्र से अवैध कब्जे हटाने के लिए दायर एक जनहित याचिका पर फरवरी और अपगैल 2020 में सुप्रीम कोर्ट राज्य सरकार को खोड़ी का अवैध कब्जा हटाने के आदेष दे चुका था लेकिन राज्य सरकार जनाक्रोश और हिंसा के डर की आड़ में अतिक्रमण हटाने से बच रहे थ्ेा। सात जून 2021 को सुप्रीम केार्ट ने फरीदाबाद के उपायुक्त और पुलिस प्रमुख को अतिक्रमण ना हटा पाने की दषा में व्यक्तिगत जिम्मेदार निरूपित करते हुए छह हफ्ते में आदेश के पालन के आदेष दिए। एक अन्य जनहित याचिका में सुप्रीम केार्ट ने स्पष्ट कह दिया कि जमीन पर कब्जा कर गैरकाूननी काम करने वालों को वह कोई छूट नहीं दे सकती।
इसके बाद खोड़ी खंडहर हो रहा है। यहां की बिजली काट दी गई। कई लोग खुद ही मकान तोड़ रहे हैं। चप्पे-चप्पे र पुलिस है। कई प्रदर्षन, धरने, हिंसा भी हुई लेकिन यह सवाल अनुत्तरित रहा कि यहां से उजाड़े गए एक लाख लोग आखिर जाएं कहां ? इतनी बड़ी आबादी के लिए तत्काल घर तलाषना , वह भी अपने कार्य-स्थल के आसपास, लगभग असंभव है। हालांकि अदालत व प्रशासन से यह उम्मीद जरूर थी कि यहां जमीन, पानी व बिजली बेचने वालों पर ना केवल आपराधिक मुकदमें हों, बल्कि उनकी संपत्ति से विस्थापित लोगों को आवास मुहैया करवाया जाए।
खोड़ी के इतने बड़े विस्थापन पर राजनीतिक रूप से कोई बड़ा बवाल ना होना जताता है कि इतनी बड़ी बस्ती को बसा कर अपने महल खड़े करने वालों में हर दल के लोग समान भागीदार होते हैं।वैसे यह भी जानना जरूरी है कि देष में कुल वन भूमि के दो प्रतिशत अर्थात 13 हजार वर्ग किलोमीटर पर अवैध कब्जे होने की बात केंद्र सरकार ने एक 'सूचना के अधिकार' की अर्जी में स्वीकार की है। इससे पहले पांच जुलाई 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने देशभर में सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा कर बने धार्मिक स्थलों की सूची मांगी थी और सन 2016 में आदेश दिया था कि ऐसे बीस लाख से ज्याद कब्जे हटाए जाएं। सुप्रीम केार्ट में राज्य सरकारों ने ही बताया था कि तमिलनाडु में 77450, राजस्थान में 58253, मध्यप्रदेष में 52923, उप्र में 45152 ऐसे धार्मिक स्थल है जो सरकारी जमीन पर बलात कब्जा कर बनाए गए हैं। आदेष को पांच साल से अधिक हो गया। इसका क्रियान्वन हुआ नहीं।
आजादी के समय देश के हर गांव में एक परती या चरागाह की जमीन होती थी। हर गांव में मवेषियों के चरने के लिए बड़े हरियाली चक को छोड़ा जाता था। आज षायद ही किसी गांव में चरागाह की जमीन बची हो। देष का कोई भी षहर कस्बा ऐसा नहीं है जहां बाजार या दुकान के नाम पर कुछ फुट सरकारी जमीन पर कारोबार आगे ना बढ़ाया गया हो। पैल चलने वालों के लिए बने फुटपाथ पर दुकान सजाना तो अधिकार में षांमिल है। पाॅष कहलाने वाली हर कालोनी में घर के आगे की कुछ जमीन पर क्यारी लगाने, गाडी खडा करने का चबूतरा या शेड बनाने में किसी को कोई लज्जा नहीं आती। दिल्ली की सीमाओं पर सार्वजनिक सड़क पर कब्जे कर पक्की संरचनाएं खड़ी कर सात महीने से धरना दे रहे किसानों पर कोई कानून लागू नहीं होता। जाहिर है ऐसे 'अतिक्रमण-प्रधान देश' में खोड़ी को बगैर विकल्प के उजाड़ देना, भले ही वैधानिक है लेकिन नैतिक या मानवीय कतई नहीं।