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आख़िर क्यों एचआईवी के साथ जीवित लोग एक महीने से निरंतर आंदोलनरत हैं?
एक महीने से अधिक हो गया है और एचआईवी के साथ जीवित लोग, राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम के कार्यालय के बाहर अनिश्चितक़ालीन धरने पर हैं। 21 जुलाई 2022 से यह लोग दिन-रात यहाँ निरंतर शांतिपूर्वक ढंग से बैठे हुए हैं। इनकी माँग स्पष्ट है कि एचआईवी दवाओं की कमी दूर हो, और नियमित एक-महीने की खुराक हर एचआईवी के साथ जीवित व्यक्ति को मिले जब वह अस्पताल दवा लेने जाए।
भारत सरकार की 2018 मार्गनिर्देशिका भी यही कहती है कि जो लोग एचआईवी दवाओं का स्थायी रूप से सेवन कर रहे हैं उनको 3 महीने की खुराक दे दी जाए। पर अनेक प्रदेशों में सिर्फ़ 7-10 दिनों तक की खुराक मिल रही है। कहीं-कहीं तो वयस्क को बच्चे की और बच्चों को वयस्क की दवा देनी पड़ रही है क्योंकि दवाओं की कमी है।
भारत सरकार और विश्व स्वास्थ्य संगठन की एचआईवी मार्गनिर्देशिका विज्ञान पर आधारित है। यदि एचआईवी के साथ जीवित लोग, प्रभावकारी एंटीरेट्रोवाइरल दवाएँ लेंगे और वाइरल लोड नगण्य रहेगा तो वह पूर्णत: स्वस्थ रहेंगे, अवसरवादी संक्रमण से बचेंगे, और भरपूर ज़िंदगी ज़ी पाएँगे - और - उनसे किसी को एचआईवी संक्रमण फैलने का ख़तरा भी नगण्य रहेगा।
पर जब लोगों को नियमित प्रभावकारी एंटीरेट्रोवाइरल दवाएँ नहीं मिलेंगी तो एड्स उन्मूलन का सपना कैसे साकार होगा?
दिल्ली नेटवर्क ओफ़ पॉज़िटिव पीपल (डीएनपी प्लस) के पूर्व अध्यक्ष जय प्रकाश को बच्चों वाली एंटीरेट्रोवाइरल दवाएँ मिल रहीं हैं - जिसके कारण उन्हें रोज़ाना 11 गोली खानी पड़ती हैं।
लून गांगटे जो डीएनपी प्लस के नेतृत्व कर रहे हैं और दो दशक से जरूरतमंदों के, एचआईवी और हेपटाइटिस दवाओं के अधिकार के लिए निरंतर संघर्षरत रहे हैं, का कहना है कि मिज़ोरम प्रदेश से उनके एक साथी ने सूचना साझा की है कि एक बच्चे को वयस्क वाली एंटीरेट्रोवाइरल दवाएँ दी गयीं क्योंकि उपयुक्त एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं की कमी थी, जिसके कारण उसके पूरे शरीर में चकते पड़ गए हैं।
डीएनपी प्लस से जुड़े और पिछले महीने भर से अधिक इस आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता हरी शंकर सिंह का कहना है: "सरकारी एड्स कार्यक्रम का कहना है कि दवाओं की कमी नहीं है परंतु भारत के अनेक प्रदेशों के एचआईवी के साथ जीवित लोगों के समूह ने रिपोर्ट की है कि एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं की कमी है। उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़, उत्तराखंड, मणिपुर, असम और दिल्ली कुछ उन प्रदेशों के उदाहरण हैं जहां एचआईवी के साथ जीवित लोग एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं की कमी बता रहे हैं।"
दिल्ली में हालाँकि पिछले कुछ दिनों में एंटीरेट्रोवाइरल दवाएँ सुचारु रूप से मिलने लगी हैं पर बच्चों की एंटीरेट्रोवाइरल दवाएँ अभी भी सीमित उपलब्ध हैं।
भारतीय संविधान आर्टिकल-21 हमारे जीवन के अधिकार की रक्षा करता है
डीएनपी प्लस से जुड़ी सीसी का कहना है कि भारत का संविधान हर नागरिक के जीवन अधिकार की रक्षा करता है। एंटीरेट्रोवाइरल दवाएँ हमारे लिए जीवनरक्षक दवाएँ हैं जो हमें बिना-नागा जीवन-भर लेनी है। यह हमारे जीवन अधिकार का मुद्दा है जिसके लिए हम संघर्षरत हैं।
सीसी सही कह रही हैं कि दवाओं की कमी के लिए जवाबदेही तय होनी चाहिए क्योंकि किसी अधिकारी या समूह ने अपना कार्य सुचारु रूप से ईमानदारी से नहीं किया है। भारत सरकार ने एंटीरेट्रोवाइरल दवाएँ 2004 से उपलब्ध करवानी शुरू की थीं। इस दौरान भारत सरकार ने नि:संदेह प्रशंसनीय प्रगति की है परंतु दवाओं की आपूर्ति ऋंखला संतोषजनक नहीं है जिसके कारण बारम्बार दवाओं की कमी आती है।
लून गांगटे का कहना है कि भारत सरकार के एंटीरेट्रोवाइरल दवाएँ उपलब्ध करवाने के कार्यक्रम को अब 17 साल हो गए हैं। यह चौथी बार उनको अनिश्चितक़ालीन धरने पर बैठना पड़ रहा है क्योंकि फिर से दवाओं की कमी हो गयी है। पहले, धरने के 1-6 दिन के भीतर सरकार ठोस कदम उठाती थी और दवाओं की कमी दूर कर लेती थी, और नतीजतन वह धरना समाप्त करते थे। पर इस बार 32 दिन हो गये हैं (21 अगस्त 2022 को) जब धरना चालू है और एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं की कमी बनी हुई है। अभी भी धरना चल रहा है क्योंकि धरना तब तक नहीं ख़त्म होगा जब तक दवाओं की कमी दूर नहीं होती और सबको 1 महीने की खुराक सुचारु रूप से नहीं मिलने लगती।
लून गांगटे सहजता से पूछते हैं कि सरकार के अनुसार एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं की कमी नहीं है तो फिर लोगों को क्यों 7-10 दिन की खुराक मिल रही है और 1 महीने की खुराक नहीं मिल पा रही है? सरकारी मार्गनिर्देशिका में तो 2018 से 3 महीने की खुराक देने की नीति है पर वह 1-महीने की खुराक माँग रहे हैं। जब तक एक भी ऐसा व्यक्ति है वह आंदोलनरत रहेंगे।
डीएनपी प्लस से जुड़े हरी शंकर सिंह का कहना है कि राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम मानने को ही नहीं तैयार है कि एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं की कमी है। सरकार उनके समूह के साथ 7-8 बैठक कर चुकी है। सरकार के अनुसार सब सुचारु रूप से चल रहा है और 'कुछ लोग ही प्रभावित हैं'। सरकार सिर्फ़ झूठे आश्वासन दे रही है पर एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं की कमी दूर नहीं कर रही है। वह क़बूल ही नहीं रही कि कोई समस्या है। 21 जुलाई 2022 से जब अनिश्चितक़ालीन धरना शुरू हुआ तब से कुछ सकारात्मक बदलाव तो आए हैं। उदाहरण के रूप में, दोलुताग्रविर (dolutegravir) दवा अब दिल्ली में सुचारु रूप से पिछले कुछ दिनों से मिलने लगी है - हालाँकि बच्चों की एंटीरेट्रोवाइरल दवाएँ अभी भी सीमित हैं।
हरी शंकर सिंह का कहना सही है कि जो अधिकारी, एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं की आपूर्ति ऋंखला के लिए ज़िम्मेदार हैं, उनको अपना काम निष्ठा, ईमानदारी और कार्यसाधकता के साथ करना चाहिए। ज़िम्मेदारी तय करना ज़रूरी है।
एचआईवी वाइरस सरकारी आश्वासन से नहीं बल्कि एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं से नियंत्रित होगा
सरकारी लोग इस धरने को ख़त्म करवाने का प्रयास कर रहे हैं पर आंदोलनरत लोगों ने ठान ली है कि जब तक देश भर में एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं की कमी दूर नहीं होगी और सबको कम-से-कम 1-महीने की खुराक मिलने लगेगी, तब तक धरना जारी रहेगा। सरकार को 2018 की सरकारी मार्गनिर्देशिका के अनुरूप 3 महीने की एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं की खुराक हर जरूरतमंद को देनी चाहिएँ पर हालत यह है कि अनेक को सिर्फ़ 7-10 दिन की खुराक मुहैया हो पा रही है तो किसी को बच्चों की खुराक मिल रही है।
लून गांगटे ने सही कहा कि वह वहाँ पर इसलिए आंदोलनरत नहीं हैं कि सरकार के साथ बैठक पर बैठक करे। वह सिर्फ़ यही चाहते हैं कि सरकार अपना कार्य सुचारु रूप से करे - एंटीरेट्रोवाइरल दवाएँ सबको नियमित मिलें, दवाओं की कमी न हो और कम-से-कम एक महीने की खुराक सभी को मिल सके। जब ऐसा होने लगेगा और उनको एचआईवी के साथ जीवित लोगों के समूह से यह जानकारी मिलेगी, तो धरना स्वत: ही समाप्त हो जाएगा। एचआईवी वाइरस जो उनके खून में दौड़ रहा है वह सरकारी आश्वासन से नहीं कम होगा बल्कि एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं से ही कम और नगण्य होगा। इसीलिए एंटीरेट्रोवाइरल दवाएँ गोदामों में नहीं बल्कि जरूरतमंद लोगों के हाथों में होनी ज़रूरी हैं।
एक ओर सरकार कह रही है कि एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं की कमी है ही नहीं परंतु एचआईवी के साथ जीवित लोगों की 'ग्रीन बुक' (एचआईवी दवाओं से सम्बंधित दस्तावेज) कुछ और ज़मीनी सत्य बयान कर रही है क्योंकि अनेक लोगों को सिर्फ़ चंद दिनों की दवाएँ मिल पा रही हैं तो किसी को बच्चों वाली दवा मिल रही है। यदि कोई कमी नहीं है (जैसा सरकार कह रही है) तो एक महीने की खुराक क्यों नहीं दे रहे? 2018 की सरकारी मार्गनिर्देशिका में तो 3 महीने की खुराक देने की बात लिखी है पर हम लोग तो सिर्फ़ 1 महीने की खुराक माँग रहे हैं।
लून कहते हैं कि एक ओर भारत इस बात पर गर्व करता है कि दुनिया के 90% से अधिक लोग भारत में बनी एंटीरेट्रोवाइरल दवाएँ ग्रहण कर के स्वस्थ रहते हैं पर दूसरी ओर यह कैसी विडम्बना है कि भारत में ही एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं की कमी हो गयी है?
लून का कहना है कि वह किसी अधिकारी या सरकार का विरोध नहीं कर रहे हैं बल्कि अपने जीवन अधिकार की संरक्षा करने के लिए आंदोलनरत हैं। एंटीरेट्रोवाइरल दवाएँ एचआईवी के साथ जीवित लोगों के लिए जीवनरक्षक दवाएँ हैं। उनका जीवन इन पर टिका है। इसीलिए वह आंदोलनरत हैं कि सबको बिना-नागा नियमित रूप से एंटीरेट्रोवाइरल दवाएँ मिल पाएँ।
लून गांगते कहते हैं कि न पैसे की कमी है, न दवाओं की, न राष्ट्रीय कार्यक्रम की क्षमता की, पर सरकारी तंत्र में किसी ने तो अपना कार्य ईमानदारी और निष्ठा से नहीं किया होगा जिसके कारण दवाओं की कमी हुई और आपूर्ति ऋंखला की दिक़्क़तें आयीं।
हरी शंकर सिंह सटीक कहते हैं कि यह संघर्ष उनके और सभी के स्वस्थ और भरपूर जीवन जीने के अधिकार से सम्बंधित है।
दुनिया की हर सरकार ने यह वादा किया है कि 2030 तक एड्स उन्मूलन का सपना साकार होगा। एड्स उन्मूलन का सपना तब साकार होगा जब हर एचआईवी के साथ जीवित इंसान को नियमित एंटीरेट्रोवाइरल दवाएँ मिलेंगी, और एचआईवी वाइरस नगण्य रहेगा। यदि दवाओं की कमी बनी रहेगी तो यह एड्स उन्मूलन का सपना कैसे साकार होगा?
बॉबी रमाकांत - सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस)
(बॉबी रमाकांत, विश्व स्वास्थ्य संगठन महानिदेशक द्वारा २००८ में पुरस्कृत, सिटिज़न न्यूज़ सर्विस (सीएनएस) के सम्पादक हैं।