स्वास्थ्य

कोविड-19 टीकाकरण: प्रशंसा की गूंज में कहीं महत्वपूर्ण सीख न खो जाए

Shiv Kumar Mishra
23 Feb 2023 12:44 PM IST
कोविड-19 टीकाकरण: प्रशंसा की गूंज में कहीं महत्वपूर्ण सीख न खो जाए
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ओडे उडू, शोभा शुक्ला, बॉबी रमाकांत

इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि कोविड-19 टीकाकरण ऐतिहासिक रहा है। एक साल से कम समय में टीके के शोध को पूरा कर के, टीकाकरण वैश्विक स्तर पर इस गति से पहले कभी नहीं हुआ था। दुनिया (कुल आबादी 8 अरब) में 13 अरब से अधिक खुराक लग चुकी हैं, भारत में ही 2 अरब से अधिक खुराक लग चुकी हैं पर अधिकांश गरीब देशों में बड़ी आबादी को एक खुराक मुहैया नहीं। वैश्विक टीकाकरण अभियान में अनेक त्रुटियाँ रहीं हैं जिनके कारणवश स्वास्थ्य सुरक्षा ख़तरे में पड़ी। भविष्य में महामारी प्रबंधन और स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए ज़रूरी है कि हम कोविड-19 टीकाकरण से सीखें कि क्या सुधार हो सकता था।

अमरीका में वैक्सीन कॉन्फिडेंस की संस्थापिका-निदेशिका डॉ हायडी लारसन के अनुसार, भारत समेत अनेक देशों में कोविड-19 महामारी के पूर्व भी, टीके के प्रति अनेक भ्रांतियाँ रही हैं जिसके कारण लोग टीका लगवाने में झिझकते थे। इसीलिए पोलियो टीकाकरण हो या अन्य, जागरूकता अभियान के साथ-साथ भ्रांतियाँ आदि दूर करने के अभियान पूर्व में सक्रिय रहे हैं जिससे कि लोग समझदारी से टीका लगवाने का निर्णय लें। उनके शोध के अनुसार कोविड-19 टीकाकरण आरंभ करने से पहले सरकारों के पास कुछ समय था जिसमें सक्रिय जागरूकता अभियान संचालित होना चाहिए था जिससे कि पहले से व्याप्त टीके-संबंधी पूर्वाग्रह, भ्रांति, ग़लतफ़हमी आदि दूर होती। कोविड-19 टीके के वैज्ञानिक तथ्य सही तरीक़े से जनता तक पहुँचने चाहिये थे, यह अवसर हमने खो दिया। भविष्य में आपदा-महामारी प्रबंधन के लिए यह सीख ज़रूरी है।

नाइजीरिया: आरंभ में लोगों को पता ही नहीं था कि टीका कहाँ लगवाना है

नाइजीरिया के कानो प्रदेश में अनेक लोगों को सूचना ही नहीं मिल पा रही थी कि टीकाकरण कहाँ हो रहा है। रेडियो और टीवी आदि में टीकाकरण आरंभ होने के समय तो टीकाकरण संबंधी विज्ञापन दिखाए जा रहे थे परंतु कुछ समय बाद यह भी कम या बंद होते गये। कानो प्रदेश की जनता के पास टीके संबंधी जानकारी ही नहीं थी। जब पत्रकार ओडे उड्डू ने नाइजीरिया के कानो प्रदेश के 20 टैक्सी चालकों से बात की तो एक ने भी टीका नहीं लगवाया था। उन्हें यह तक जानकारी नहीं थी कि टीकाकरण कहाँ पर होता है।

भारत के उत्तर प्रदेश में स्थिति इसके ठीक विपरीत थी। सरकार ने टीकाकरण अभियान को प्रभावी प्रचार के साथ 16 जनवरी 2021 से आरंभ किया था परंतु अधिकांश प्रचार, काफ़ी हद तक और अनेक महीनों तक, शहरी इलाक़ों तक ही सीमित रहा। उत्तर प्रदेश में चूँकि सामाजिक असमानताएँ और अन्याय पहले से ही विकास को कुंठित कर रहे थे, कोविड-19 टीकाकरण को भी इनसे जूझना पड़ा।

कानपुर के वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता महेश जिन्होंने कोविड-19 महामारी के चरम पर अनेक शहरी-ग्रामीण क्षेत्रों में कोविड स्वास्थ्य हेल्पलाइन संचालित की थी, ने बताया कि ईंटे-भट्ठे पर कार्यरत मज़दूर, शहरी गरीब और झोपड़-पट्टी में रहने वाले लोग, और विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र के लोगों में जिनका शिक्षा स्तर कम था, कोविड-19 वैक्सीन से संबंधित अनेक पूर्वाग्रह, भ्रांति और ग़लत-धारणाएँ थीं।

जो लोग टीका लगवाने गये अनेक जगह उनके लिये कोई आराम करने या बैठने की व्यवस्था नहीं थी जबकि सरकारी नियमों में लिखा है कि यह ज़रूरी है कि लोगों को टीके के बाद आराम से बैठने की जगह हो जिसके पश्चात ही वह वापस जायें (जिससे कि टीका लगवाने के बाद कोई दिक़्क़त हो तो तुरंत स्वास्थ्य लाभ मिल सके)। अनेक जगह तो टीकाकरण करने वाले लोग ही मास्क या दास्तानों का उपयोग नहीं कर रहे थे।

महेश ने बताया कि ऑनलाइन पंजीकरण के बाद भी कुछ लोगों को टीका नहीं मिला क्योंकि टीका स्टॉक ख़त्म हो चुका था। लखनऊ में तो जनवरी 2023 प्रथम सप्ताह में समाचार था कि टीका स्टॉक में नहीं है जिसके कारण बूस्टर (प्रीकॉशनरी डोज़) नहीं लग पा रही थी। ऑनलाइन पंजीकरण करना भी सबके लिये सरल नहीं था।

सुल्तानपुर में कार्यरत सामाजिक कार्यकर्ता राहुल द्विवेदी भी कहते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को ऑनलाइन पंजीकरण करने में दिक़्क़त का सामना करना पड़ रहा था। कुछ जगह तो स्वास्थ्यकर्मी का प्रशिक्षण भी असंतोषजनक था। कहीं मोबाइल नेटवर्क नहीं था तो कहीं आने जाने की सार्वजनिक जन यातायात व्यवस्था कमज़ोर थी। देहाड़ी मज़दूर और ईंटे-भट्ठे पर कार्यरत मज़दूर भी परेशान थे क्योंकि उनकी देहाड़ी मज़दूरी के समय में ही टीकाकरण हो रहा था। महिलाओं को अक्सर भ्रांतियाँ थीं कि टीके से मृत्यु न हो या उसके दुष्प्रभाव न हों।

कोविड टीके से गंभीर रोग और मृत्यु की संभावना अत्यंत कम होती है, पर संक्रमित होने का ख़तरा बराबर रहता है

वैज्ञानिक शोध ने यह तो सिद्ध किया है कि कोविड-19 वैक्सीन से कोविड-19 होने पर, अस्पताल में भर्ती, वेंटीलेटर या आईसीयू आदि की ज़रूरत, या मृत्यु होने की संभावना अत्यंत कम होती है परंतु कोरोना वायरस से संक्रमित होने का और कोविड होने का ख़तरा कम नहीं होता है। इसीलिए श्रेयस्कर यही है कि कोरोना संक्रमण से बचें, और टीका लगवायें जिससे कि यदि कोविड हो जाये तो गंभीर रोग न झेलना पड़े।

महेश ने कहा कि अनेक लोग अधकचरी जानकारी के कारण यह समझने लगे कि टीका लगवाने के बाद अब उन्हें रोग होगा ही नहीं। परंतु जब पूरा टीका लगवाये हुए लोगों को कोविड हुआ तो उनका टीके पर से भरोसा डगमगा गया। समाचारपत्र बता रहे थे कि शहर के प्रख्यात डॉक्टर जो पूर्ण टीकाकरण करवा चुके थे उन्हें फिर से कोविड हो गया जिसके कारण भरोसा और डगमगाया। वैज्ञानिक तथ्य यह है कि पूरा टीका करवाये हुए लोगों को कोविड तो हो ही सकता है परंतु संक्रमित होने पर रोग के गंभीर परिणाम (अस्पताल भर्ती, वेंटीलेटर, आईसीयू, मृत्यु आदि) के होने की संभावना कम होती है। ऐसा हमने ओमिक्रोन लहर में भी देखा कि 90% से अधिक लोग जो अस्पताल में भर्ती हुए या जिन्हें वेंटीलेटर आदि की ज़रूरत बड़ी, वह लोग थे जिन्होंने टीका नहीं लगवाया था।

एचआईवी के साथ जीवित लोग और कोविड वैक्सीन

एचआईवी के साथ जीवित लोगों के समुदाय भी कोविड टीके से संबंधित जानकारी के अभाव से जूझ रहे थे। एचआईवी पॉजिटिव लोगों के गुजरात राज्य नेटवर्क का नेतृत्व कर रहीं दक्षा पटेल ने कहा कि एचआईवी के साथ जीवित लोग भी अनेक संशय से जूझ रहे थे। जैसे कि 'टीके से नुक़सान तो नहीं होगा', 'क्या हम लोगों पर भी यह कार्य करेगा', 'एचआईवी एंटीरेट्रोवायरल दवाओं के कारण इस पर दुष्प्रभाव तो नहीं पड़ेगा' आदि। इसीलिए नेटवर्क ने समुदाय में जागरूकता बढ़ाने के आशय से अनेक ऑनलाइन सत्र संचालित किए, एक दूसरे से मिलकर वैज्ञानिक तथ्यों के ज़रिए भ्रांतियों को दूर किया। निजता और गोपनीयता का मुद्दा भी था क्योंकि कोविड टीकाकरण के लिए टीकाकरण केंद्र पर फॉर्म भरना पड़ता है, जिसमें पूर्व और वर्तमान में हुए रोग आदि और दवाओं की जानकारी देनी होती है। नेटवर्क ने स्थानीय प्रशासन की मदद से अपने कार्यालय में भी टीकाकरण केंद्र को संचालित करवाया जिससे कि समुदाय के लोगों को सहजता से टीकाकरण उपलब्ध करवाया जा सके।

एचआईवी पॉजिटिव लोगों के उत्तर प्रदेश नेटवर्क के प्रमुख नरेश यादव, जो भारतीय नेटवर्क (एनसीपीई प्लस) के भी अध्यक्ष हैं, ने बताया कि कुछ लोगों को टीके का एचआईवी दवाओं पर दुष्प्रभाव पड़ने का भय था तो किसी को टीके के दुष्प्रभाव की फ़िक्र।

क्या 100% स्वास्थ्य कर्मियों ने कोविड टीके लगवाये?

स्वास्थ्य कर्मियों में भी कोविड-19 टीके के प्रति झिझक रही - हालाँकि सरकार ने सबसे पहले टीके के लिए योग्य पात्रों में स्वास्थ्य कर्मियों को शामिल रखा था परंतु अनेक जगह सब स्वास्थ्य कर्मियों ने टीका नहीं लगवाया।

डॉ सूर्य कांत जो भारत सरकार के राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन द्वारा कोविड-19 ब्रांड एम्बेसडर घोषित किए गये थे, और कोविड-19 स्पेशल टास्क फ़ोर्स के भी सदस्य रहे, ने बताया कि टीके के प्रति झिझक सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि देश में सभी जगह थी। तुलनात्मक दृष्टि से, जिन प्रदेशों में (जैसे कि केरल) शिक्षा स्तर अधिक था, जन स्वास्थ्य प्रणाली सशक्त थी, और जागरूकता अभियान सक्रिय थे, वहाँ वैक्सीन के प्रति झिझक भी कम थी, और टीकाकरण दर (प्रदेश की जनसंख्या के अनुसार) भी अधिक रहा।

जब कोविड-19 महामारी ने विश्व को जकड़ा, तब भारत सरकार के भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के महामारी-विज्ञान (एपिडमियोलॉजी) के प्रमुख पद्म-श्री डॉ रमन गंगाखेडकर थे। डॉ रमन गंगाखेडकर वर्तमान में, आईसीएमआर में डॉ सीजी पंडित चेयर आचार्य हैं और पूर्व में भारत सरकार के पुणे-स्थित भारतीय एड्स रिसर्च इंस्टिट्यूट के निदेशक भी रहे हैं।

डॉ गंगाखेडकर ने कहा कि जब भारत सरकार ने 16 जनवरी 2021 को कोविड-19 टीकाकरण आरंभ किया तो "ऐट-रिस्क" तरीक़ा अपनाया - जिसका तात्पर्य है कि किसे संक्रमित होने पर गंभीर रोग या मृत्यु होने का ख़तरा अधिक है उसको टीका लगवाने के लिए प्राथमिकता दी गई। जैसे कि, पहली पंक्ति के स्वास्थ्य कर्मी, पहली पंक्ति के अन्य कर्मी, आदि। परंतु शीघ्र ही अन्य लोगों को भी टीका लगवाने की गुहार हुई - क्योंकि सभी योग्य लोगों ने टीका लगवाया ही नहीं।

डॉ सूर्य कांत ने कहा कि जब टीकाकरण अभियान आरंभ हुआ तब उत्तर प्रदेश में कुछ स्वास्थ्य कर्मी जिनमें चिकित्सक, नर्स, अन्य स्वास्थ्य कर्मी और स्वास्थ्य सेवा प्रशासक लोग शामिल थे, उनमें टीके को ले के झिझक थी। कुछ को लग रहा था कि एक कोविड-19 वैक्सीन को बिना ठोस वैज्ञानिक प्रमाण या प्रक्रिया के संस्तुति दे दी गई है।

डॉ गंगाखेडकर ने भी इस बात को कहा कि टीके के प्रति झिझक इस बात से भी उपजी क्योंकि एक टीके जिसे देश में ही विकसित किया गया था, उनको संस्तुति वैज्ञानिक शोध के दूसरे चरण में ही दे दी गई थी जब मात्र 'इम्यूनो-जेनेसिटी' डेटा उपलब्ध था - यानी सिर्फ़ इसका प्रारंभिक प्रमाण था कि इसको लगाने से इम्यून रिस्पांस मिल सकता है पर 'एफिकैसी' का प्रमाण नहीं था कि इसको लगाने से कोरोना संक्रमण नहीं होगा या संक्रमित होने पर गंभीर रोग नहीं होगा या मृत्यु नहीं होगी। वैज्ञानिक शोध के 3 चरण होते हैं और तीसरा चरण महत्वपूर्ण है। अन्य विकसित वैक्सीन को संस्तुति तब मिली जब 'एफिकैसी' का प्रमाण भी प्रस्तुत किया गया। इसके कारणवश जो लोग वैज्ञानिक तथ्य समझ रहे थे उनमें झिझक होना स्वाभाविक था।

डॉ सूर्य कांत ने ज़रूरी बात कही कि टीके के प्रति झिझक ग्रामीण क्षेत्र में अधिक थी जहां शिक्षा का स्तर कम था। शहरों में झोपड़-पट्टी में रहने वाले लोग, दैनिक मज़दूरी करने वाले लोग, आदि, को भी दिक़्क़त थी। जिन्हें बंधी मासिक आय मिल रही थी उन्हें टीके के हलके-फुलके सामान्य दुष्प्रभाव की फ़िक्र नहीं थी क्योंकि वह अवकाश ले कर आराम कर सकते थे - परंतु जो लोग दैनिक आय या दिहाड़ी पर जीवनयापन कर रहे थे उनके लिए टीके उपरांत आराम करने का विकल्प नहीं था। एक दिन की आय को छोड़ना जटिल समस्या थी। ग़लत धारणाएँ जैसे कि टीके से 'नपुंसकता', 'कमज़ोरी', आदि होती है, भी लोगों को टीका लगवाने से दूर कर रही थीं। हृदय रोग होने का ख़तरा भी कुछ लोगों को डरा रहा था।

जनता ने आगे बढ़ कर टीकाकरण अभियान का समर्थन किया

भारत और नाइजीरिया दोनों देशों में, आम जनता ने सरकारी टीकाकरण अभियान का भरपूर सहयोग किया जिससे कि ग़लत धारणाएँ, मिथ्याएँ आदि दूर हों, वैज्ञानिक और प्रमाणित तथ्यों का प्रचार हो, और जो लोग योग्य हैं वह टीका लगवायें।

नाइजीरिया की सोसाइटी फॉर चाइल्ड सपोर्ट के निदेशक सुनुसी हाशिम ने कहा कि टीकाकरण चालू करने से पहले लोगों को जागरूक करना चाहिए था। ऐसा न करने से, टीके के प्रति झिझक बढ़ी।

पाथफ़ाइंडर और वैक्सीन नेटवर्क फॉर डिजीस कंट्रोल के सहयोग से, आम जनमानस को टीकाकरण के लिए प्रेरित किया जा सका। स्थानीय नेता आदि ने अपने क्षेत्र के लोगों को टीका लगवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में भी सरकारी कार्यक्रम का प्रभाव लोगों ने बढ़चढ़ कर आगे बढ़ाया। गुरुद्वारा हो या मंदिर-मस्जिद, इमामबाड़ा हो या खेल क्रीड़ा स्टेडियम, जगह-जगह टीकाकरण शिविर लगे जो सरकार और लोगों की साझेदारी से संचालित हुए। स्वास्थ्य कार्यकर्ता राहुल द्विवेदी बताते हैं कि सुल्तानपुर, अम्बेडकरनगर और चंदौली ज़िलों के ग्रामीण क्षेत्र में उनके संगठन ने मोबाइल-वैन के ज़रिए लगभग 70,000 लोगों का टीकाकरण करवाने में भरपूर सहयोग दिया। मुन्नी, जो लखनऊ में घरेलू कामगार श्रमिक हैं, उन्होंने बताया कि राशन की दुकान से उन्हें अनाज आदि तभी मिला जब टीका लगवाने का सर्टिफिकेट दिखाया गया (इसीलिए उन्होंने जा कर टिका लगवाया कि बिना परेशानी राशन मिल सके)।

एचआईवी के साथ जीवित लोगों के संगठन से जुड़े नरेश यादव ने बताया कि 28,176 लोगों को कोविड-19 टीके और एचआईवी से संबंधित परामर्श दिया गया और 7445 लोगों को टीका लगवाया गया। उनके समुदाय के लोगों ने बूस्टर (प्रिकॉशनरी) डोज़ भी लगवायी है।

टीके के प्रति झिझक नयी नहीं है

नाइजीरिया के कानो प्रदेश के प्रदेश टीकाकरण अधिकारी डॉ शेहू अब्दुल्लाही मुहम्मद ही वहाँ के कोविड-19 अभियान संचालन प्रमुख थे। उन्होंने बताया कि टीकाकरण अभियान से पहले समय था जब आम जनमानस में जागरूकता अभियान सक्रिय होने चाहिए थे जिससे कि ग़लत धारणाएँ और मिथ्याएँ जड़ न पकड़ सकें। परंतु ऐसा न होने के कारण अनेक प्रकार के भ्रामक प्रचार का सामना करना पड़ा।

डॉ शेहू ने बताया कि सरकार ने स्थिति का मुयाना किया और टीकाकरण नीति में ज़रूरी संशोधन किए जिससे कि मिथ्याएँ दूर हों और लोगों का विश्वास विज्ञान में बढ़े और वह टीका लगवायें। इसके नतीजे भी मिले और टीकाकरण बढ़ा।

भारत में डॉ सूर्य कांत जैसे डॉक्टरों ने सबसे पहले टीकाकरण करवाया जिसको मीडिया ने भी प्रसारित किया - इन्होंने न केवल स्वास्थ्य कर्मियों के समक्ष उदाहरण रखा बल्कि आम जन मानस को भी प्रेरित किया कि वह टीकाकरण करवायें। गौर हो कि डॉ सूर्य कांत भारत के प्रतिष्ठित श्वास रोग विशेषज्ञ हैं।

डॉ सूर्य कांत ने कहा कि मीडिया, सरकार और जन संगठनों की साझेदारी ने टीकाकरण को बढ़वाने में बड़ी भूमिका निभायी। अख़बार, टीवी और ऑनलाइन मीडिया के सहयोग के साथ-साथ, आकाशवाणी (ऑल इंडिया रेडियो) के दैनिक कार्यक्रम जो कोविड-19 पर आधारित था - उसकी बड़ी भूमिका रही क्योंकि रेडियो गाँव-गाँव तक पहुँचता है।

वयस्कों में टीकाकरण हमारी स्वास्थ्य प्रणाली के लिए नया था

भारत और नाइजीरिया में बच्चों के टीकाकरण अभियान तो दशकों से चल रहे हैं परंतु वयस्कों के लिए टीकाकरण अभियान, स्वास्थ्य प्रणाली के लिए मोटे तौर पर नया अनुभव था। वयस्कों के लिये कुछ रोगों से बचाव हेतु टीके दशकों से हैं, जो भारत और नाइजीरिया में लगते भी हैं। जैसे कि, येलो फीवर, निमोनिया, आदि। पर बहुत कम लोगों को लगते हैं यह भी सत्य है।

स्वास्थ्य और महामारी-विज्ञान के विशेषज्ञ डॉ गंगाखेडकर ने इस बात की पुष्टि की, कि कोविड टीकाकरण पहला बड़ा अनुभव था जहां टीकाकरण वयस्कों का होना था। यह प्रशंसा की बात है कि इसके बावजूद भारत में 2 करोड़ से अधिक टीके की खुराक लग चुकी हैं।

डॉ गंगाखेडकर ने महत्वपूर्ण बात कही कि हम लोगों को इस बात पर चिंतन करना होगा कि क्या हम अमरीका के एफडीए वाली प्रणाली अपनायें जहां किसी भी दवा या टीके को संस्तुति देने के पहले, जन सुनवाई होती है जहां कोई भी प्रश्न पूछने के लिए स्वतंत्र होता है?

नाइजीरिया में अभी तक 70% आबादी को टीका नहीं लगा है। भारत में भी प्रिकॉशनरी (बूस्टर) डोज़ लेने वालों की संख्या बहुत कम है।

महामारी प्रबंधन और स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए यह ज़रूरी है कि हम लोग कोविड टीकाकरण के अनुभव से सीखें, और अन्य सभी टीकाकरण अभियान को दुरुस्त करें।

ओडे उडू, शोभा शुक्ला, बॉबी रमाकांत

(ओडे उडू, नाइजीरिया के प्रख्यात डेटा पत्रकार हैं, और शोभा शुक्ला और बॉबी रमाकांत, सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस) से जुड़े हैं। यह तीनों पॉपुलेशन रिफरेन्स ब्यूरो के जन स्वास्थ्य रिपोर्टिंग कॉर्प्स के प्रथम फेलो हैं)

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