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10 December Human Rights Day: युद्ध के विरुद्ध शांति, समता, न्याय और आजादी के लिए 75 वर्षों से चला आ रहा संघर्ष
कमल सिंह
10 December Human Rights Day: संयुक्त राष्ट्र संघ ने 75 साल पहले, 10 दिसम्बर, 1948 को “सार्वभौम मानवाधिकार की घोषणा” जारी की थी। 1950 में तय किया गया था कि मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता के लिए सभी देशों में हर साल 10 दिसम्बर को मानवाधिकार दिवस मनाया जाएगा। इस वर्ष “घोषणा”की हीरक जयंती है और हम फिलिस्तीन की जनता पर इज़राइल और उसके सरपरस्त अमेरिकी साम्राज्यवाद तथा यूरोप के अन्य साम्राज्यवादी देशों के सहयोग व समर्थन से इस सदी का सबसे भयानक जनसंहार (Holocaust) देख रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ इस युद्ध रोकने में सफल नहीं हो पा रहा है। इसकी शुरुआत फिलिस्तीन के राजनीतिक संगठन हमास द्वारा 7 अक्टूबर 2023 के हमले के बाद हुई। इस हमले के दौरान 1,200 से अधिक लोग मारे गए। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने हमास के इस काम से नाइत्तफाकी जाहिर करते हुए, इजरायल कब्जे वाले फिलिस्तीन इलाके का हवाला दिया है। उन्होंने कहा, “हमास का यह हमला शून्य में नहीं हुआ है” और "फिलिस्तीनी लोगों को 56 वर्षों के दमघोंटू कब्जे का सामना करना पड़ा" है।
“सार्वभौम मानवाधिकार की घोषणा” भी दो महायुद्ध और उसमें हुए जन संहार के बाद हुई थी। पहले विश्व युद्ध (1914-18) में लगभग 2.15 करोड़ और दूसरे विश्व युद्ध (1939-45) में लगभग 7 करोड़ लोगों की मौत हुई थी। “सार्वभौम मानवाधिकार घोषणा” का लक्ष्य शांति, निशस्त्रीकरण, स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय और समानता है। मानवता के संहारक इन दो विश्व युद्धों का मूल कारण थे साम्राज्यवादी देशों द्वारा उपनिवेशों का बंटवारा, शोषण और लूट में हिस्सेदारी। अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा 6 अगस्त 1945 को जापान के दो शहरों पर परमाणु बम गिराया गया था। इसके परिणाम स्वरूप हिरोशिमा में 1,40,000 और नागासाकी 74,000 निर्दोष लोग मारे गए, जीव-जन्तु व वनस्पतियों सहित आने वाली पीढ़ियां परमाणु विकिरण की विनाश लीला से ग्रसित हुए। गौरतलब है, अमेरिका द्वारा इस विनाशलीला को जिस समय अंजाम दिया गया, सोवियत सेनाओं के जर्मनी में प्रवेश से पहले 30 अप्रैल 1945 को हिटलर आत्महत्या कर चुका था, जर्मनी 8 मई 1945 को आत्मसमर्पण कर चुका था… युद्ध का अंत हो चुका था। युद्ध के दौरान भी जापान की राजधानी टोक्यो पर 9 और 10 मार्च, 1945 की रात अमेरिकी विमानों ने दो हज़ार टन नापाम बमों की बारिश करके एक-चौथाई शहर को नष्ट कर दिया था। एक अनुमान के अनुसार इसमें 1,00,000 निर्दोष नागरिक मारे गए थे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने भारी मात्रा में नापाम बम और ऐसे ज्वलनशील पदार्थों का इस्तेमाल कोरियाई युद्ध, वियतनाम युद्ध और 2003 में इराक पर आक्रमण के दौरान भी किया। हम फासिज्म… नात्सी हिटलर द्वारा जर्मनी में यहूदियों के जनसंहार के बारे में जानते हैं। लोकतंत्र के आवरण में अमेरिकी साम्राज्यवाद की वहशत भी हिटलर से कम नहीं है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिकी साम्राज्यवाद दुनिया में सबसे दुर्दांत आतंकवादी है। वह विश्व पर अपना प्रभुत्व कायम करने और उपनिवेशों में हस्तक्षेप, तख्तापलट, आक्रमण और उनके स्वतंत्र विकास को अवरुद्ध कर निर्भर बनाने, उनकी नव उपनिवेशवादी लूट और शोषण की व्यवस्था की हिफाजत का ठेकेदार बना हुआ है।
साम्राज्यवाद युद्ध और आतंक का ही दूसरा नाम है। प्रभुत्व की आकांक्षा “लोकतंत्र” की हिफाजत के नाम पर हो या “समाजवाद” के नाम पर; साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा के अलावा कुछ नहीं है। महाशक्तियों के बीच प्रभाव क्षेत्र के विस्तार और सामरिक प्रतिद्वंद्विता का मकसद प्रभाव क्षेत्र में बाजारों पर कब्जा, प्राकृतिक संसाधनों की लूट और श्रम शक्ति का शोषण होता है।
निशस्त्रीकरण को लक्ष्य मानने के बावजूद, प्रमुख देश अपना सैन्य बजट लगातार बढ़ा रहे हैं। इस समय परमाणु शक्ति से लैस 10 देश : रूस, अमेरिका, चीन, फ्रांस, ब्रिटेन, भारत, पाकिस्तान, इज़राइल और उत्तर कोरिया है, ईरान को भी इन देशों में गिना जाता है हालांकि अभी उसके पास परमाणु बम नहीं हैं परंतु उसकी क्षमता है वह कभी भी परमाणु बम बना सकता है। ‘स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट’ के अनुसार रूस के पास सबसे ज्यादा 7000 परमाणु हथियार हैं, अमेरिका के पास भी 6,800, फ्रांस के पास 300, ब्रिटेन के पास 215 चीन के पास 200, पाकिस्तान के पास 160, भारत के पास 120 और इज़राइल के पास 80 परमाणु आयुध हैं। युद्ध में परमाणु हथियारों का प्रयोग से होने वाला महाविनाश अकल्पनीय है। तीसरे युद्ध की आशंका मंडराती रहती है। उदाहरण के लिए हाल ही में यूक्रेन में जारी युद्ध तथा उसमें महाशक्तियों की सैन्य प्रतिद्वंद्विता के दौरान परमाणु हथियारों की तैनाती और परमाणु अस्त्रों के प्रयोग की धमकी जारी रही है। इज़राइल द्वारा गाज़ापट्टी पर हमले के दौरान तुरंत ही अमेरिका ने भूमध्य सागर में घातक हथियारों से लैस दो युद्धपोत तैनात कर दिए रूस ने भी जवाब में काला सागर में युद्धपोत तैनात कर दिए। परमाणु हथियारों के प्रयोग की आशंका भी दोनों देश व्यक्त कर रहे हैं।
मानवाधिकार, गरीबी, असमानता
विकास का दावा करने वाले मानवता के संहारक हथियारों के लिए धन उडेल रहे हैं, जबकि वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक (MPI) द्वारा जारी विज्ञप्ति (2023) के अनुसार दुनिया की 6.1 अरब(बिलियन) आबादी में से 1.1 अरब (बिलियन), मतलब 18 फीसद से अधिक लोग तीव्र बहुआयामी गरीबी में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 1921 में मानवाधिकार दिवस पर दुनिया पर असमानता कम करने पर खास जोर दिया था। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा हर साल मानवाधिकार दिवस के लिए एक खास मज़मून (theme) प्रस्तावित किया जाता है। 2020-21 में बेहतर-मानव अधिकारों के संघर्ष पर जोर था यह कोरोना महामारी का दौर था, लैंगिक समानता, जनभागीदारी, जलवायु न्याय और टिकाऊ विकास में मानवाधिकारों के महत्व पर जोर था। वर्ष 2022 का थीम था “सभी के लिए प्रतिष्ठा, स्वतंत्रता और न्याय”।
दुनिया में बढ़ रही असमनता के बारे में “क्रेडिट सुईस की ग्लोबल वेल्थ” की ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया की आबादी में सबसे निचले पायदान पर आधी से अधिक आबादी के पास कुल वैश्विक धन का 1 फीसद से भी कम हिस्सा है, जबकि सबसे अमीर 10 प्रतिशत लोगों के पास वैश्विक धन का 82 प्रतिशत है, शीर्ष पर मौजूद केवल 1 प्रतिशत लोगों के पास कुल 45 प्रतिशत धन है। सबसे अमीर एक फीसदी आबादी के पास 51.5 फीसदी संपत्ति है।
“फोर्ब्स” मैगजीन दुनिया के अरबपतियों की सूची जारी करता है उसके अनुसार दुनिया में सबसे अधिक अरबपति अमेरिका में 724, चीन में 626 के बाद तीसरा नंबर पर भारत में 140 अरबपति हैं। ऑक्सफैम के अनुसार दुनियाभर में 18 मार्च से 31 दिसंबर, 2020 तक दुनिया के 10 बड़े अरबपतियों की संपत्ति में 540 अरब (बिलियन) डॉलर का इजाफा हुआ है। जबकि इस दौरान 20 मिलियन से 500 मिलियन लोग गरीब हो गए हैं।
“ऑक्सफैम” (Oxfam) की वार्षिक असमानता रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1 प्रतिशत अमीर लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का 40 प्रतिशत से अधिक हिस्सा है। भारत की गिनती अब दुनिया के गरीब और उन देशों में होती है जहां सर्वाधिक असमानता है। "असमानता पर वैश्विक रिपोर्ट (‘World Inequality Report) 2022 में बताया गया है देश की कुल राष्ट्रीय आय का पांचवें हिस्से (22 प्रतिशत) पर 1 प्रतिशत "सुपर रिच" का कब्जा है, इसमें से भी निचले पायदान पर जीवन व्यतीत कर रही लगभग आधी आबादी के हिस्से को 13 प्रतिशत ही मिल पाता है। भारत में एक वयस्क की औसत आय 2 लाख 4200 रुपए है वहीं आम 50 प्रतिशत लोग 53,610 रुपए सालाना (4467.50 रुपए प्रतिमाह) कमा पाते हैं। ऊपरी तबके के 10 प्रतिशत लोगों की आमदनी 11 लाख 66.520 रुपये है। यह रिपोर्ट पेरिस स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की विश्व असमानता लैब में सहनिर्देशक जाने-माने अर्थशास्त्री लुकास चैनेल, थॉमस पिकेटी सहित दुनिया के प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों ने तैयार की है।
संयुक्त राष्ट्र ने बढ़ रही विषमता पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा है इसकी वजह से समाज में दरार विकसित हो रही है और आर्थिक व सामाजिक विकास अवरुद्ध हो रहा है। समाज में टकराव बढ़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुटेरेश ने इस रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा है, दुनिया गहरे और विषम वैश्विक आर्थिक संकट से गुजर रही है, विकसित व विकासशील देशों में विषमता और रोज़गार असुरक्षा के कारण व्यापक विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। “आय में असमानता और रोज़गार के अवसरों की कमी के कारण विषमताओं का कुचक्र बन गया है और लोगों में हताशा और निराशा है।
भारत में सत्ता का बढ़ता दमन और मानवाधिकार
बढ़ते आर्थिक-राजनीतिक संकट, भूख, गरीबी. बेरोजगारी, महंगाई और अभाव के कारण जन विक्षोभ और आक्रोष तेज हो रहा है। इसे कुचलने के लिए सत्ता निरंतर निरंकुश और दमनकारी हो रही है। ऐसे में नागरिक व मानवाधिकारों की हिफ़ाजत के लिए नई चुनौतियां सामने हैं। "द इकोनॉमिस्ट इंटेलीजेंस यूनिट” की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत 2019 के लोकतंत्र सूचकांक की वैश्विक सूची में 10 स्थान लुढ़क कर 51वें स्थान पर आ गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार परिषद द्वारा मोदी सरकार के शासन में भारत में लोकतंत्र, नागरिक व मानवाधिकारों के हनन पर रिपोर्ट जारी की गई है। “ग्लोबल स्टेट ऑफ डेमोक्रेसी रिपोर्ट” के अनुसार "दुनिया में लोकतंत्र का सबसे अधिक हनन एशिया-प्रशांत क्षेत्र में हो रहा है और इसमें भारत, इंडोनेशिया और श्रीलंका सबसे आगे हैं। इन देशों में बहुलवाद और धार्मिक-जातीय विविधता को तेजी से खत्म करने की कोशिश हो रही है। धार्मिक उन्माद को राष्ट्रवाद का जामा पहना कर पेश किया जा रहा है, सत्ता का केन्द्रीकरण हो गया है और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हिंसा भड़काई जा रही है।" इस रिपोर्ट की प्रस्तावना भारत के पूर्व चुनाव आयुक्त एस वाई कुरेशी ने लिखी है। रिपोर्ट में कहा गया है " विश्व के विभिन्न देशों में जहां ‘लोकतांत्रिक है, सरकार सामान्य कानून प्रणाली को खोखला और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला कर रही हैं। वे चली आ रही लोकतंत्र की व्यवस्था से भी पीछा छुड़ाने की कोशिशें कर रही हैं, अब तो भारत, दक्षिण अफ्रीका और अमेरिका जैसी वैश्विक आर्थिक और राजनैतिक शक्तियां भी इसी राह पर चल पड़ी हैं।"
भारत की वर्तमान सरकार मानवाधिकारों को नए सिरे से परिभाषित करने का प्रयास कर रही है। प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने 12 अक्टूबर, 2021 को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के 28वें स्थापना दिवस कहा, “मानवाधिकारों के नाम पर कुछ लोग देश की छवि खराब करने की कोशिश करते हैं।" राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा ने भी कहा था, "बाहरी ताकतों के इशारे पर भारत पर मानवाधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगाना नया नियम बन गया है।" उन्होंने इस अवसर पर गृह मंत्री अमित शाह का यशगान इन शब्दों में किया "आपके प्रयासों से जम्मू-कश्मीर और देश के उत्तर-पूर्वी हिस्से में अब 'शांति और कानून व्यवस्था' का एक नया युग शुरू हो गया है।” इस "नए युग" की एक झलक हाल ही में नागालैंड में 13 मासूम कोयला मजदूरों की सुरक्ष बलों द्वारा कि गई हत्या में देखी जा सकती है। राजद्रोह, यूएपीए, रासुका जैसे दमनकारी कानून और अफस्पा जैसे कानून जो सुरक्षा बलों को देश के प्रचलित कानून से उन्मुक्त करते हैं, अविलम्ब समाप्त किए जाने चाहिए। मानवधिकारों के प्रति सरकार के नज़रिए की गम्भीरता राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के वक्तव्य से और अधिक स्पष्ट होती है। प्रशिक्षु आईपीएस अधिकारियों के 73वें बैच के दीक्षांत समारोह में डोभाल ने नागरिक अधिकार संगठनों के दमन का एजेण्डा पेश करते हुए इन्हें राष्द्रोही दुश्मन की तरह बरतने की नसीहत देते हुए कि नौकरशाहों से कहा,” पारंपरिक युद्ध जिस राजनीतिक या सैन्य मकसद को हासिल करने के लिए लड़े जाते थे उसकी जगह सिविल सोसाइटी जंग का मैदान और हथियार बनेंगे इसे फोर्थ जनरेशन ऑफ वॉरफेयर कह सकते हैं।.. एक पुलिस अधिकारी की भूमिका अब कानून की रक्षा, हिफाजत या अमल तक ही नहीं बल्कि 'राष्ट्र निर्माण' में भी है।"
उत्तर प्रदेश : हिन्दुत्व की प्रयोगशाला
गुजरात के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उत्तर प्रदेश को हिंदुत्व की प्रयोगशाला के लिए चुना है और योगी आदित्यनाथ को इसकी कमान सौंपी गई है। 'लव जिहाद' के नाम पर जीवन साथी चुनने के महिला अधिकारों पर पहरेदारी, शत्रु संपत्ति के नाम पर अल्पसंख्यकों का दमन, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए मथुरा-काशी का मुद्दा आदि इसी कड़ी के अंग हैं। 2021 में ईसाइयों पर सबसे अधिक हमले (66) उत्तर प्रदेश में हुए हैं (पूरे देश में 305 हमलों की रिपोर्ट है)। मार्च 2017 में भाजपा केे सत्तारूढ़ होने के बाद प्रदेश में "ठोको राज" के नाम पुलिसिया कहर बरपा रखा है। 8,472 कथित मुठभेड़ की 3,200फायरिंग वारदातों में 146 लोग मर चुके हैं और 3,302 विकलांग हो गए हैं। इसके बावजूद तथ्य यह है कि उत्तर प्रदेश अपराध, खासकर हत्या के अपराध के मामलों में सबसे आगे है। पुलिस राज का एक उदाहरण गोरखपुर में कानपुर के व्यवसायी मनीष गुप्ता की अवैद्य वसूली के लिए हत्या का मामला है। महिलाओं एवं दलितों के खिलाफ अपराध की स्थिति हाल ही में प्रकाशित राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2019 में महिलाओं एवं दलितों के खिलाफ अपराध के कुल 405,861 दर्ज मामलों में से सर्वाधिक 14.7 फीसदी (59,853) उत्तर प्रदेश में दर्ज किए गए थे। हाथरस में दलित युवती के साथ सामुहिक बलात्कार के बाद मृतका की लाश को पुलिस द्वारा जबरन जलाने की विभत्स घटना के बाद भी बलात्कार की घटनाएं रुकी नहीं हैं। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की रिपोर्ट 2020 में बताया गया है "यूपी में हर 2 घंटे में एक महिला के साथ बलात्कार और हर 90 मिनट में बच्चों के बलात्कार मामला दर्ज किया जाता है।
उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद,वाराणसी चंदौली, देवरिया और आजमगढ़ जिलों में किसानों,नागरिक अधिकार और मानवाधिकार के लिए सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं, छात्रों, पत्रकार और बुद्धीजीवियों पर दमन का नया दौर शुरू किया गया है। राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) ने सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकारों को “अरबन नक्सल” बताकर उनके घर की तलाशी ली, लैपटॉप, मोबाइल, घर में रखी पत्र-पत्रिकाएं. पुस्तकें आदि जब्त किए और पूछताछ के लिए हिरासत में लिया। उत्तर प्रदेश पीयूसीएल की अध्यक्ष व जनवादी पत्रिका “दस्तक” की संपादक सीमा आजाद और प्रदेश सचिव सोनी आजाद के घर पर छापा मारकर मोबाइल, लैपटॉप, पत्र पत्रिकाएं पुस्तकें आदि जब्त किए तथा हिरासत में लेकर पूछताछ की। उनसे आजमगढ़ के खिरियाबाग में मंदुरी हवाई अड्डे के विस्तार के खिलाफ किसानों के आंदोलन के समर्थन में जाने कों लेकर पूढताढ के दौरान कहसा गया कि यह आंदोलन “अर्बन नक्सल” चला रहे हैं। इलाहाबाद और बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) तथा महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ सहित पूर्वांचल के दो दर्जन महाविद्यालयों में छात्रों पर दमन का नया दौर प्रारंभ हो गया है। अपनी मांगों के लिए आंदोलित छात्रों, किसानों लोकतांत्रिक विरोध, धरना प्रदर्शनों को भी “अर्बन नक्सल” कार्रवाई बताया जा रहा है। इस क्रम में सुरक्षा एजेंसियों ने राज्य में 130 अर्बन नक्सलियों को चिह्नित किया है और कहा जा रहा है कि ये लोग जन संगठनों में सक्रिय हैं तथा माहौल बिगाड़ने की साजिश कर रहे हैं।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचला जा रहा है, सत्ता समर्थक गोदी मीडिया है तो सवाल उठाने वालों पर राजद्रोह व यूएपीए जैसे दमनकारी कानूनों के इस्तेमाल की घटनाओं में पत्रकार विनोद दुआ के बाद ऑनलाइन समाचार पोर्टल न्यूज़क्लिक के संस्थापक और मुख्य संपादक प्रबीर पुरकायस्थ और उसके एचआर प्रमुख अमित चक्रवर्ती को गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत गिरफ्तार तथा 46 जाने-माने पत्रकारों से पूछताछ की गई। उन पर आईपीसी की धारा 153 ए (दो समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देना), 120 बी (आपराधिक साजिश) समेत आईपीसी की विभिन्न धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया है। सरकारी एजेंसियां पत्रकारिता को राजद्रोह मानने लगी हैं. पत्रकार होने के खतरे यहां तक बढ़ चुके हैं कि लगता है कि "अर्बन नक्सल" या "एंटी नेशनल" बता रही है। न्यूज क्लिक से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार परंजॉय गुहा ठाकुरता, जिन्होंने लगातार अडानी समूह का भंडाफोड़ किया है और राफेल समझौते पर गंभीर प्रक्रिया जनक सवाल खड़े किए हैं, को भी पुलिस स्टेशन ले जा कर सवाल किए। पुलिस ने उर्मिलेश और भाषा सिंह जैसे उन पत्रकारों से पूछताछ की जो अपने हिंदी कार्यक्रमों में सरकार के कामकाज की कमजोरियों पर सही सवाल उठाते हैं। इंडिया प्रेस फ्रीडम रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2021 में 6 पत्रकार मारे गए, 108 पत्रकारों पर हमले किए गए,तथा 13 मीडिया संस्थानों या समाचार पत्रों को निशाना बनाया गया।निष्पक्ष पत्रकारों को राजद्रोह तथा आतंकियों पर लगाए जाने वाले कानूनों में फंसाने की धमकी दी जाती है। पत्रकारों पर हमले तथा पाबंदियों के मामले में उत्तर प्रदेश अव्वल है। बीबीसी द्वारा निर्मित डाक्यूमेंट्री “इंडिया : द मोदी क्वेश्चन” को भारत में सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया है।
राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की रिपोर्ट 2020 के अनुसार यूएपीए के तहत सबसे अधिक (361) गिरफ्तारियां उत्तर प्रदेश में हुई हैं, जबकि जम्मू कश्मीर में 346 को गिरफ्तार किया गया है। प्रधानमंत्री "राजनीति से प्रेरित और मानवाधिकार कर्मियों पर "सलेक्टिव" होने का आरोप लगा रहे हैं। "रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स" की एक रिपोर्ट में कहा गया है, "भारत पत्रकारिता के लिए दुनिया के सबसे खतरनाक देशों में शामिल है। इसी संस्था द्वारा जारी 2021 की वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत को 180 देशों में 142वां स्थान पर रखा गया था। वर्षों के संघर्ष से हासिल मजदूरों के अधिकार छीने जा रहे हैं। 44 श्रम कानूनों को कतर कर चार कानूनों में समेटा जा रहा है। संगठित होने, आंदोलन और हड़ताल करने के अधिकारों को रौंदा जा रहा है।
किसान आंदोलन पर योगी सरकार का नजरिया माफिया डॉन केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र 'टेनी' के उन्मादी बयान और उसके बेटे द्वारा किसानों को गाड़ी से कुचलने के वहशी कारनामे से समझा जा सकता है। दरअसल, किसान आंदोलन ने आरएसएस/भाजपा के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के एजेंडे की हवा निकाल दी है। मोदी सरकार को झुकना पड़ा है। कॉरपोरेट परस्त सरकार इस सरकार ने संसद में चर्चा किए बगैर किसान विरोधी तीन कृषि कानून पारित किए, जिस तरह इस ऐतिहासिक किसान आंदोलन का दमन, उसे खालिस्तानी और अनेक दुष्प्रचार किया गया था, लोकतंत्र के लिए शर्मनाक. लोकतांत्रिक व मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन है। दमनकारी राजसत्ता के विरोध में उभरते जन आंदोलन के साथ नागरिक व मानवाधिकारों के संघर्ष का नया दौर शुरू हो रहा है। जेएनयू, जामिया मिलिया समेत विश्वविद्यालयों के छात्र आंदोलन, नागरिकता संशोधन (सीएए/एनआरसी) विरोधी आंदोलन, कॉरपोरेट परस्त तीन कृषि कानूनों के विरोध में किसानों का ऐतिहासिक किसान आंदोलन इसकी मिसाल रहा है। आंदोलन के दबाव में मोदी सरकार ने जन विरोधी इन कानूनों को वापस जरूर लिया पर वह दिए गए आश्वासनों को लागू करने की दिशा में कुछ भी नहीं कर रही है।
दमन का बढ़ता दायरा
भूख, मुफ़लिसी, बेरोजगारी, अभाव के कारण बढ़ते जन विक्षोभ के साथ सत्ता अधिकाधिक स्वैच्छाचारी, दमनकारी और निरंकुश हो रही है। 1971 में बने "आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम" (MISA) और आपातकाल में "भारत सुरक्ष अधिनियम" (DIR) का दुरुपयोग सबने देखा। 1980 में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून- रासुका (NSA), 1985 से 1995 तक दस साल "आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम" (TADA) के तहत सैकड़ों निर्दोषों को बरसों बिना आरोपपत्र पेश किए जेलों में सड़ाया गया। टाडा खत्म हुआ तो उसकी जगह 2002 में नया "आतंकवाद निरोधी अधिनियम" (POTA) आ गया। ये दोनों काले कानून समाप्त हुए तो 'राजद्रोह" नाम से धारा 124ए और गैर कानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधनियम (UAPA) का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहा है। यूएपीए कानून 1967 में इंदिरागांधी के काल में बनाया गया था, नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल के दौरान यूएपीए संशोधन अधिनियम 2019 के जरिए इसे और अधिक सख्त व दमनकारी बना दिया गया है। अब सरकार राजद्रोह कानून को सरकार खत्म करने के नाम 'देशद्रोह' (Treason) नाम से अधिक दमनकारी बना रही है। वर्तमान राजद्रोह कानून तीन साल तक की जेल से लेकर आजीवन कारावास व जुर्माना हो सकता सकता है। प्रस्तावित नए कानून में उम्रकैद या सात साल तक की जेल और जुर्माने का प्रवधान है।
रासुका (NSA)
इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय सुरक्षा (NSA) नाम से दमनकारी कानून बनाया था। मोदी सरकार और उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के अंतर्गत इस कानून का जमकर दुरुपयोग हो रहा है। रासुका के दुरुपयोग के ताजा मामलों में डॉ. कफील खान और भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर की गिरफ्तारियों के मामले खास चर्चा में रहे हैं। देश में 2017 और 2018 के दौरान रासुका के तहत करीब 1200 लोगों को हिरासत में लिया गया था। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की 2018 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में रासुका के अंतर्गत सबसे अधिक गिरफ्तारियां हुई। अल्पसंख्यकों और दलितों के खिलाफ इस कानून के तहत दमन के आरोप हैं। नागरिकता के लिए सीएए/एनआरसी के विरोध में आंदोलन के दौरान रासुका का बेजा इस्तेमाल हुआ।
फादर स्टेन स्वामी की मौत या न्यायिक हत्या
"राजद्रोह" के आरोप में बंद फादर स्टेन स्वामी की मौत के विरोध में पीयूसीएल ने राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया॥ झारखंड की खूंटी पुलिस ने स्टेन स्वामी समेत 20 लोगों पर राजद्रोह का मामले में आरोपी बनाया था। उनपर "अर्बन नक्सल" होने का भी आरोप था। वे रांची में पत्थरगड़ी और विस्थापन विरोधी जन विकास आंदोलन के संस्थापक सदस्य थे। उनकी आयु 84 वर्ष थी, पार्किंसन रोग से ग्रसित थे। बीमारी के आधार पर भी उन्हें जमानत तक नहीं मिली। ऐसी ही स्थिति में 90 प्रतिशत विकलांग और दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य के प्रोफेसर जी. एन. साईं बाबा भी राजद्रोह व अर्बन नक्सल आरोप में वर्षों से बंद हैं, उन्हें भी जमानत तक नहीं दी जा रही है। हृदय रोग व अन्य बीमारियों से ग्रसित उच्च न्यायालय की वरिष्ठ अधिवक्ता पीयूसीएल की राष्ट्रीय सचिव सुधा भारद्वाज को विचाराधीन बंदी के रूप में तीन साल जेल में बंद रखने के बाद न्यायालय ने इस आधार पर जमानत पर रिहा किया है कि उनके खिलाफ आरोप पत्र समय पर दाखिल नहीं हुआ था और इसके लिए अभियोजन को जिस अदालत से मोहलत दी थी वह उसके लिए वह अदालत अधिकृत नहीं थी। आईआईटी, खड़गपुर के प्रोफेसर, दलित आंदोलन के चिंतक आनंद तेलतुम्ड़े, नागरिक अधिकार कर्मी गौतम नवलखा. रोमा विल्सन,शोमा सेन. प्रोफेसर हेनी बाबू आदि 16 सामाजिक कार्यकर्ता व नागरिक अधिकारकर्मी राजद्रोह व अर्बन नक्सल के रूप में आरोपी हैं और बिना आरोपत्र, बिना जमानत जेलों में बंद हैं।
अफस्पा (AFSPA)
कानून ही नहीं दमनकारी तंत्र के दंत-नख भी तीक्ष्ण किए जा रहे हैं। इसका एक ज्वलंत उदाहरण अफस्पा (AFSPA) है। 1958 में अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय मिजोरम,नगालैंड को "अशांत क्षेत्र"घोषित करके वहां तैनात सैन्य बलों को इस कानून मातहत बेलगाम अधिकार दिए गए। 1972 में कुछ संशोधनों के बाद असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम और नगालैंड सहित समस्त पूर्वोत्तर भारत में लागू किया गया था।1983 से 1997 तक 14 बरस तक यह कानून पंजाब और चंडीगढ़ में लागू कर दिया गया।1990 में जम्मू- कश्मीर को भी "अशांत क्षेत्र घोषित करके वहां भी इसे लागू किया गया है। इस कानून के तहत सशस्त्र बलों को मिली अत्यधिक शक्तियां उन्हें असंवेदनशील और गैर-पेशेवर बनाती हैं। उन पर फ़र्ज़ी एनकाउंटर, यौन उत्पीड़न आदि के भी आरोप हैं। यह कानून मानवाधिकारों का उल्लंघन करने के साथ नागरिकों के मूल अधिकारों का निलंबन करता है जिससे लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होती हैं। अफस्पा की समीक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश बी.पी. जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में गठित पांच सदस्यीय समिति ने 6 जून 2005 को अपनी 147 पन्नों की रिपोर्ट में सिफारिश की गई थी, ‘सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून, 1958 को निरस्त करना चाहिये। यह कानून दमन का प्रतीक बन गया है'।”मणिपुर की मानवाधिकार कर्मी इरोम शर्मिला ने इसके विरोध में 16 साल तक अनशन किया था। मणिपुर में जातीय संघर्ष ने आज जो स्थिति उत्पन्न कर दी है, उसने उत्तर पूर्व में हालात बेकाबू कर दिए हैं।
"ऑपरेशन ग्रीन हंट
"ऑपरेशन ग्रीन हंट" के नाम से चर्चित अर्ध सैन्य बलों का अभियान आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, तेलंगाना, और पश्चिम बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश के अत्यधिक पिछड़ी, जनजाति बाहुल्य "लाल गलियारा" कहे जाने वाले इलाकों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उग्रवादी (नक्सलवादी) हिस्से के गैर संसदीय आंदोलन का दमन का अभियान है। सितम्बर 2009 से जारी इस दमन चक्र को 12 बरस हो रहे हैं। लगभग 3 लाख केंद्रीय अर्धसैन्य बल, विभिन्न राज्यों के सशस्त्र बल, कोबरा दल, लड़ाकू हेलीकॉप्टर, सेटेलाइट फोन आदि आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल के बावजूद यह सशस्त्र विद्रोह अगर 12 साल से अधिक समय से जारी है तो इसके जमीनी आधार को समझ कर वार्ता द्वारा समाधान के प्रयास के लिए पूर्व केंद्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर, ‘द आर्ट ऑफ लिविंग’’ के श्री श्री रविशंकर, पूर्व आई आई एस अधिकारी. गांधीवादी व आदिवासियों के लिए लंबे समय से कार्यरत रहे डॉ. बी. डी शर्मा, स्वामी अग्निवेश, एपीडीआर के नागरिक अधिकार कर्मी सुजात भद्र आदि अनेक लोग प्रयास कर चुके हैं।
सांप्रदायिक एजेंडा : सीएए/एनआरसी
दमनकारी कानूनों, दमन तंत्र को विकसित करने के अलावा लोकतंत्र को कमजोर करने की दिशा में साम्प्रदायिक विभाजनकारी कानून व उन्मादी हथकंडे पनप रहे हैं। इस क्रम में नागरिकता के लिए धार्मिक आधार की शुरुआत नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) नागरिकता पंजीयन रजिस्टर (NRC), धर्मान्तरण कानून या लव जिहाद का प्रोपेगेंडा, शत्रु संपत्ति कानून का इस्तेमाल किया जा रहा है। समाज में असहिष्णुता, मॉब लिंचिंग मतलब उन्मादी भीड़ जमा कर हत्या, दलितों व महिलाओं पर अत्याचार, जातिवाद, सांप्रदायिकता, बहुसंख्यकवाद और चुनाव तंत्र के मकड़जाल में लोकतंत्र की सांसें घुट रही हैं। शासन-प्रशासन में जनभागीदारी के लिए कोई स्थान नहीं है। संसद में निरंकुश बहुमत के बल पर जन विरोधी कानून बन रहे हैं। लोक अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में संसद की भूमिका सिमटती जा रही है। जन समस्याओं पर जन आंदोलन संगठित करने की जगह राजनीतिक दल स्वस्फूर्त आंदोलनों की पीठ पर सवार होकर सत्ता की मलाई चाटने की होड़ में लगे हैं। आज़ादी के आंदोलन के बल पर हासिल जनता के अधिकार एक के बाद एक छिनते जा रहे हैं। ऐसे में नागरिक अधिकारों की हिफाजत के संघर्ष की अहमियत बेहद बढ़ गई है।
"राजद्रोह" और यूएपीए
भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए एक दमनकारी कानून है। ब्रिटिश काल में सरकार की मुखालफत, उसके खिलाफ जन असंतोष भड़काना इस कानून के तहत "राजद्रोह" था। अब गोदी मीडिया ने इसका नया नामकरण "देशद्रोह” कर दिया है। यह वही कानून है जिसके तहत आज़ादी के आंदोलन के दौरान अनेक देशभक्तों को फांसी, कालापानी आदि सजाएं दी गई थी। लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी तक को सरकार के खिलाफ लेख लिखने पर राजद्रोह कानून के अंतर्गत जेल भेजा गया था। गांधीजी ने आजाद भारत में इस कानून को समाप्त किए जाने के लिए कहा था। 1951 में जवाहरलाल नेहरू ने इस कानून को "अप्रिय और व्यावहारिक" बताते हुए कहा था "हम इससे जितनी जल्दी छुटकारा पा लें उतना ही अच्छा है।”
कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में इस कानून को समाप्त करने का वायदा किया तो है परंतु जब वह सत्ता में रही उसने इस कानून का जम कर दुरुपयोग किया। लेखिका, समाकर्मी अरुंधति राय, कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी, पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विनायक सेन आदि अनेक बुद्धिजीवियों सामाजिक कार्यकर्ताओं व नागरिक अधिकार के लिए सक्रिय लोगों पर राजद्रोह लगाया है। तमिलनाडु में कुंड़नकुलम नाभिकीय विद्युत परियोजना व इसके विस्तार को लेकर पर्यावरण रक्षा के लिए आंदोलन पर दमन व राजद्रोह के मुकदमे इसके उदाहरण हैं। 2012 में ही अपनी मांगों को लेकर हरियाणा के हिसार में जिलाधिकारी के दफ्तर के सामने धरने पर बैठे दलितों ने मुख्यमंत्री का पुतला जलाया तो उनके खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा हुआ था। मनमोहन सिंह नीत "संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन" के राजकाल में 1910 से 1914 में “राजद्रोह" के इस कानून के तहत3762 व्यक्तियों को आरोपित किया गया था। नरेन्द्र मोदी नीत "राष्ट्रीय जनवादी गठबंधन" सरकार के दौरान देश में 7130 लोगों को "राजद्रोह" के आरोप में आरोपित किया गया। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के अनुसार 2015 में 30, 2016 में 35, 2017 में 51, 2018 में 70 और 2019 में 93 राजद्रोह के मामले दर्ज हुए हैं। इसके अनुसार राजद्रोह के मामलों में 2016 से 2019 तक 160 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। हालांकि अदालतों द्वारा सजा दर बहुत कम मामलों (3.3 फीसदी) में हुई है। जाहिर है, राजद्रोह के अधिकतर मामलों में दोष सिद्धी तो दूर चार्जशीट तक नहीं दायर हो पाती है। जेएनयू के छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष व कम्युनिस्ट नेता कन्हैया कुमार पर राजद्रोह का मामला काफी चर्चित मसला रहा है। भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकार या अन्य राज्य सरकारों जेएनयू के पीएचडी छात्र शरजील इमाम के खिलाफ, दूसरे, मुंबई में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज ('टीआईएसएस ('टीआईएसएस') के 50 छात्रों के खिलाफ देशद्रोह का आरोप लगाया है। शरजील के समर्थन में नारे लगाते हुए, और तीसरा, एक शिक्षक और एक महिला के खिलाफ, जिसके 6 साल के बच्चे ने सीएए-एनआरसी-एनपीआर के खिलाफ स्कूल के एक नाटक में भाग लिया था। इनमें से प्रत्येक उदाहरण सत्तावादी सरकार का राजद्रोह की आड़ में असहमति का गला घोंटने का एक भयावह उदाहरण है।
एनसीआरबी के 2019 में राजद्रोह के ज्यादातर मामले भाजपा या राजग शासित राज्यों में दर्ज किए गए थे। भाजपा शासित कर्नाटक में 22 , असम में अंतर्गत जम्मू-कश्मीर में 11 और उत्तर प्रदेश में 10 मामले 1919 में दर्ज हुए थे। नोएडा पुलिस ने कांग्रेस सांसद शशि थरूर सहित छह पत्रकारों पर सोशल मीडिया पोस्ट्स और डिजिटल प्रसारण राष्ट्रीय राजधानी में किसानों की ट्रैक्टर रैली के दौरान हिंसा के लिए जिम्मेदार बताकर राजद्रोह का मामला दर्ज किया था। यहां अक्टूबर 2020 में उत्तर प्रदेश पुलिस ने केरल के पत्रकार सिद्दीक़ कप्पन और तीन अन्य लोगों पर राजद्रोह सहित विभिन्न आरोपों में मामला दर्ज किया. कप्पन एक हाथरस में दलित बालिका के सामूहिक बलात्कार मामले की रिपोर्ट करने के लिए जा रहे थे।
मजदूर अधिकारों पर हमला
श्रमिकों के अधिकारों संबंधी कानूनों में फेरबदल करके 44 श्रम कानूनों को समाप्त करके चार श्रम कानून- मजदूरी संहिता, औद्योगिक सुरक्षा व कल्याण संहिता, सामाजिक सुरक्षा संहिता और औद्योगिक संबंध संहिता में सीमित किया गया है। इस दिशाा में 2002 में द्वितीय राष्ट्रीय श्रम आयोग ने उद्योगों, व्यवसायों और क्षेत्रों में 100 राज्य कानूनों एवं 40 केंद्रीय कानूनों को समेकित करने का सुझाव दिया गया था। ये नए कानून मजदूरों को संगठित होने, यूनियन बनाने, आंदोलन व हड़ताल करने के अधिकार में बाधक हैं। मजदूरों की छंटनी, ठेका मजदूरी की खुली छूट के साथ काम के घंटों की सीमा और कार्यस्थल निरीक्षण की पूरी प्रणाली को खत्म किया गया है। न्यूनतम मजदूरी, काम के घंटे जेसे मूल विषयों पर भारी अस्पषटता है। इस प्रकार आज़ादी के आंदोलन और उसके बाद दशकों के संघर्ष से हासिल श्रमिकों के अधिकारों को छीन लिया गया है। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों का तेजी से निजीकरण किया जा रहा है। श्रमिकों का 80 प्रतिशत से अधिक असंगठित क्षेत्र में है। संगठित क्षेत्र में भी काम के घंटे बढ़ए जा रहे हैं, असंगठित क्षेत्र में काम के घंटे, बालश्रम, बीमा, स्वास्थ्य श्रम कल्याण, संगठित होने आदि अधिकार प्राय: हैं ही नहीं। उत्तर प्रदेश सरकार ने तो आवश्यक सेवा अनुरक्षण अधिनियम(एस्मा) के अंतर्गत सभी सरकारी सेवाओं में हड़ताल निषिद्ध कर दी है। सरकार इसके अंतर्गत किसी भी कर्मचारी को बिना वारंट गिरफ्तार कर सकती है। रक्षा आयुध फेक्टरियों के कर्मचारियों को सवंगठित होने, आंदोलन व हड़ताल करने का अधिकार ट्रेड यूनियन अधिनियम 1926 और औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 में हासिल है। केन्द् सरकार ने आवश्यक रक्षा सेवा अध्यादेश के जरिए रक्षा उत्पादन से जुड़े संस्थानों को आवश्यक रक्षा सेवा (Essential Defence Services) की श्रेणी में लाकर इस क्षेत्र में श्रमिकों के हढ.ताल के अधिकार को समाप्त कर दिय है। अब हड़ताल करने व उसमें शामिल रहने वाले कर्मचारियों को एक वर्ष की कैद और 10 हजार जुर्माना अथवा दोनों हो सकते हैं। ऑर्डेनेन्स फैक्ट्री बोर्ड (ओएफबी) से जुड़े कारखानों में 80 लाख कर्मचारी हैं। वर्कलोड, ओवरटाइम की कटौती, फैक्ट्रियों के उत्पाद को नॉन कोर घोषित किए जाने, ईएमई और एबीडब्ल्यू में जीओसीओ व्यवस्था लागू करने तथा रक्षा उत्पादन विभाग के बजट में कटौती,ओएफबी का निगमीकरण करके इसका विखंडन, निजीकरण को बढ़ावा देने आदि मुद्दों को लेकर कर्मचारी आंदोलित है।
किसान आंदोलन और तीन कृषि कानून
तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का ऐतिहासिक आंदोलन एक वर्ष महीने से निरंतर चला। आरएसएस/ भाजपा ने आंदोलन पर खालिस्तान पंथी, माओवादी, देशद्रोही आदि जघन्य लांछन लगाए। दमन किया, बैरिकेड लगाए, खाइयां खोदकर तथा सड़कों पर कील गाड़कर अवरुद्ध करने का हर संभव प्रयास किया परंतु असफल रहने के बाद अंत में प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी को आंदोलनकारी किसानों की मांग मानकर कॉरपोरेट परस्त, किसान विरोधी तीनों कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा। लेकिन किसानों से किए गए वायसे सरकार ने पूरे नहीं किए। क
लोकतंत्र में कानून बनाने से पहले संबंधित पक्षों से सलाह-मशविरा, संसद में चर्चा करके कानून बनाए जाने चाहिए। इसकी जगह इन तीन कानूनों को संसद में हासिल बहुमत के बल पर जिस मनमाने तरीके से पारित किया गया वह स्वस्थ लोकतांत्रिक परम्परा नहीं है। इन कानूनों के जरिए संबंधित मामलों में जिला न्यायालयों के क्षेत्राधिकार को भी सीमित किया गया था।
कमल सिंह
10 दिसंबर, 2023 (मानवाधिकार दिवस)
(सुझाव व संशोधन आमंत्रित हैं, ताकि इसे 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पारित “सार्वभौम मानवाधिकारों की घोषणा” सहित प्रकाशित किया जा सके। 1950 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने हर 10 दिसंबर को सभी से मानवाधिकार दिवस मनाने की अपील की थी। इस प्रकार 2025 में 75 साल हो जाएंगे।)