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अमेरिका बनता गया "मेकिंग आफ अमेरिका" जबकि भारत बना द अनमेकिंग ऑफ इंडिया ?
मनीष सिंह
तो वाण्डरबिल्ट ने 30% डिसकाउंट देकर, केरोसिन ढोने का सारा ठेका ले लिया। रॉकफेलर का उतना प्रोडक्शन न था, जितने की डील कर ली थी। तो कर्ज लिए, दूसरी रिफाइनरीज खरीदी, प्रोडक्शन बढाया, रेट घटाए, डिस्ट्रीब्यूटर बनाए। लाखों जॉब्स, सस्ती सुविधा, अरबो का मुनाफा .. लेकिन कम था। अब जहां कहीं वाण्डरबिल्ट कम्पनी की रेल न थी, उसने दूसरी रेलरोड कंपनी से समझौता किया। लिया 40 % डिस्काउंट।
अब वो रेल कंपनियों से खेलने लगा। मिमिमम रेट मे ढुलान, सस्ता प्रोडक्शन..
कंपनियों को समझ आया। उन्होने हाथ मिला लिए। पर रॉकफेलर से लड़ने की हिम्मत तो ले आओगे, उसके बराबर कमीनापन कहां से लाओगे। रॉकफेलर, शार्ट डिस्टेंस के लिए पाइपलाइन यूज करते थे। टेक्निक एनहांस किया, और लंबी दूरी की पाइपलाइन बिछाने लगे। सारे तेल के कुऐ खरीद लिए, पंपिंग स्टेशन लगाए, और देश भर मे अपने नेटवर्क से सप्लाई करने लगे। रेल इण्डस्ट्री का भठ्ठा बैठ गया। नौकरियां गई, दंगे हुए।
अब सरकार हरकत मे आई।
सरकार बहादुर, अमेरिका की। जहां देश बनाने के लिए टेक्नॉलजी, इन्वेस्टमेण्ट, इनोवेशन, लेबर, इन्फ्रास्ट्रकचर, सुविधा सब कुछ प्राइवेट सेक्टर दे रहा था। ये अरबपति, बड़े दानदाता थे। यूनिविर्सिटी, कालेज, लाइब्रेरी, दिल खोलकर बनवाते। कोई संपत्ति का 50% दान करता, कोई 90% सरकार तो बस, रेगुलेट करती थी। पर ये जायंट, अब एक दूसरे को बरबाद कर रहे थे। ये छोटे व्यापरियों को बढने भी नही दे रहे थे। सरकार ने एक्शन लिया।
एण्टीट्रस्ट कानून आए। ट्रस्ट याने कंपनी, या बड़ा कारपोरेशन। इसका उद्देश्य मोनॉपली रोकना था। रॉकफेलर की स्टेर्ण्ड आयल कंपनी को 35 टुकड़ों मे बांट दिया गया। जी हां, 1-2 नही 35 .. शेल, टोटल, एस्सो, शेवरॉन, एस्जॉन मोबिल ... दुनिया की जितनी तेल कंपनियों के नाम आप जानते है, स्टेर्ण्ड ऑयल के टुकड़े भर है।
कंपनी के रेलरोड, पाइपलाइन, तमाम बिजनेस अलग अलग कर दिये गए। शेयर जरूर रॉकफेलर के रहे, पर कंट्रोल नहीं। मोनॉपली के खिलाफ एक्शन अमेरिका के इतिहास का एक गजब कदम है। अमेरिका की गिल्डेड एज (स्वर्णयुग) खत्म हुई। इसके ठीक विपरीत, जब भारत 1947 मे आजाद हुआ, प्राईवेट सेक्टर, निजी व्यापारी, उद्योग यहां नॉन-एक्जिस्टेंट था।
टाटा बिड़ला, जैसे कुछ नाम दूसरो से अमीर थे, लेकिन ये प्रोड्यूसर कम, ट्रेडर्स ज्यादा थे। नमक, अफीम से लेकर मछली खरीद बेच से कमाया पैसा .. न पूंजी थी, न तकनीक, न जिगरा। देश की जरूरतें विशाल थी। तो भारत सरकार ने औद्योगिकीकरण में पब्लिक मनी लगाया। जरूरी सामान पैदा किया। आत्मनिर्भर हुए।
स्टील, पेट्रोलियम, टा्रंसपोर्ट, फाइनांस, इन्फ्रास्ट्रक्चर, मैन्यूफ्रेक्चरिंग, कंज्यूमर गुड्स। जनता की हर जरूरत के लिए फैक्ट्री खड़ा की। उन्हें इंडिपेंडेंट काम करने दिया।USA के गिल्डेड युग मे सरकारी व्यय, GDP का 3 से 5% था। भारत मे यह 90% होता। इन कंपनियों ने 1- 5 या-10 करोड से सफर शुरू किया और 100 लाख करोड तक गयीं।
वही PSU जिन्हें इनएफिशिएण्ट कहकर, हम कौड़ियों के दाम बेच रहे हैं। रेलवे, एयरपोर्ट, टेलीफोनी, हाइवेज, स्टील, मिनरल्स, पावर ... सबकुछ बेच रहे हैं।
मुठ्ठी भर लोग खरीदकर दुनिया का सबसे बड़ा अमीर बन रहे है।
ये लोग जॉब्स खत्म कर रहे है, पैसा विदेशों मे इन्वेस्ट कर रहे है। परीवार की 100 पुश्त सुरक्षित कर रहे हैं। सार्वजनिक संपत्ति को रेवडी की तरह बांटकर निजी मोनॉपली, और अरबपति बनाने का यह उदाहरण, विश्व मे सबसे अनोखा है। ठीक अमेरिका के विपरीत। और मजा देखिए, यह सब भारत को अमेरिका बनाने के सपने दिखाकर किया जा रहा है।
मूर्खो को लगता है कि प्राइवेट कर देना ही अमेरिका बनने का कदम है। ये सच है कि आज भी अमेरिका मे अनेक सार्वजनिक सेवाऐ, प्राइवेटाइज हैं। लेकिन प्राइवेट सेक्टर इसलिए मालिक है, कि उसने ईजाद किया। बनाया,बढाया,चलाया है। और वहां मोनोपॉली हटाने, और काम्पटीशन बनाए रखने को सरकार सन्नद्ध है। भारत मे जनता के पैसे से बनी प्रोपर्टी की सस्ती सेल हो रही है। इन मोनोपॉलिस्ट ने किसी सेक्टर को बनाया नही, उसे पॉलिटिकल सपोर्ट से हड़पा है।
हमारी सरकार, अपने लोगों की मोनोपॉली बना रही है। हम उसी सेवा का, आज दोगुना दाम दे रहे है। फिर 99.99% जनता का धन 0.01% लोगों की जेब मे डालकर गर्व कर रहे हैं। मोनॉपली खत्म करके, अमेरिका ने नए उद्योगों को मौका दिया। इस कदम से आगे ग्रोथ बनी रही, नए उद्योग आए, नए अरबपति, नए जॉब्स आए, दुनिया भर का टैलेण्ट अमेरिका की दिशा मे दौड़ा। अमेरिका बनता गया, बनता गया। "मेकिंग आफ अमेरिका" के ठीक विपरीत भारत की कहानी है। क्या कहें इसे ?
द अनमेकिंग ऑफ इंडिया ?