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- गुरुओं के सम्मान का...
अरविंद जयतिलक
आज गुरुओं के सम्मान का दिन है। 5 सितंबर को देश भर में शिक्षक दिवस के रुप में मनाया जाता है। 1962 में जब डा0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय गणतंत्र के दूसरे राष्ट्रपति बने तब उनके विद्यार्थियों ने उनका जन्मोत्सव मनाने का विचार किया। लेकिन उन्होंने इस अनुरोध को अस्वीकार कर सुझाव दिया कि अगर वे उनके जन्मोत्सव को शिक्षक दिवस के रुप में मनाएं तो ज्यादा खुशी होगी। तभी से इस दिन को शिक्षक दिवस मनाया जाता है। डा0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन अकसर कहा करते थे कि शिक्षक का कार्य केवल शिक्षण संस्थानों की परिधि तक ही सीमित नहीं है। समाज व राष्ट्र के गुणसूत्र को बदलने की जिम्मेदारी भी उसके कंधे पर होती है। इसलिए कि वह राष्ट्रीय जनमानस का प्रतिनिधि होता है। उसके आदर्शवादी मूल्य और सारगर्भित विचारधारा समाज व देश के लिए प्रेरणास्रोत होते हैं। राधाकृष्णन एक उत्कृष्ट विद्वान, महान शिक्षाशास्त्री के अलावा कुशल वक्ता भी थे। अंग्रेजी और संस्कृत पर उन्हें असामान्य अधिकार था।
भारत में सत्ता हस्तांतरित होने के गौरवशाली अवसर पर जो गिने-चुने महापुरुषों ने अपने विचार व्यक्त किए उनमें डा0 राधाकृष्णन भी थे। उनकी विद्वता और ज्ञान सिर्फ कोरी शास्त्रीय नहीं थी बल्कि इसे अपने जीवन में उतारा भी। शिक्षा में महान योगदान को देखते हुए ही भारत सरकार ने उन्हें 1954 में भारत रत्न की उपाधि से विभुषित किया। आज के घोर भौतिकवादी और आचरणविहिन आधुनिकता की दौड़ में जब सभ्य समाज के निर्माण का सवाल पीछे छूट रहा है ऐसे में शिक्षकों को आगे बढ़कर अपना उत्तरदायित्व निभाना चाहिए। एक शिक्षक ही अपने गुरुत्तर उत्तरदायित्वों एवं संवेदनायुक्त आचरण से भारत राष्ट्र व समाज को संस्कारित कर सकता है। डा0 राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर 1888 को मद्रास के निकट तिरुतानी में हुआ। शिक्षा प्राप्ति के तदोपरांत डा0 राधाकृष्णन ने सर्वप्रथम एक शिक्षक के रुप में मद्रास में लेक्चरर नियुक्त हुए। 1911 में वे मद्रास के प्रेसीडेंसी कालेज में असिस्टेंट प्रोफेसर और 1916 में प्रोफेसर बने। 1918 में वह मैसूर विश्वविद्यालय में चले गए और वहां 1921 तक रहे। 1926 और 1929-30 में आक्सफोर्ड के मानचेस्टर कालेज और 1926 में शिकागो विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे। 1927 में भारतीय दर्शन परिषद के बंबई अधिवेशन के अध्यक्ष बने और 1936 में आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्राच्य धर्मों और नीतिशास्त्र के प्रोफेसर बने। दर्शनशास्त्र उनका प्रिय विषय था। सर आशुतोष मुखर्जी के निवेदन पर वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर पद पर कार्य करना स्वीकार किया। वे वहां 1921 से 1931 तथा 1937 से 1941 तक अध्यापन कार्य किए। इसके बाद वे आंध्रप्रदेश विश्वविद्यालय में 1939 से 1948 तक उपकुलपति रहे। 1931 से 1941 तक राष्ट्रसंघ की बौद्धिक सहकारिता संबंधी अंतर्राष्ट्रीय समिति के सदस्य रहे।
बंगाल की रायल एशियाटिक सोसायटी के फैलो और भारतीय विश्वविद्यालय कमीशन के अध्यक्ष के पद का भी उन्होंने शोभा बढ़ाया। 1916 महामना मदन मोहन मालवीय द्वारा बनारस में स्थापित काशी हिंदू विश्वविद्यालय में भी उन्होंने बतौर कुलपति अपनी भूमिका का गौरवपूर्ण निर्वहन किया। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब गांधी जी ने करो या मरो का नारा दिया उस दौरान काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रों ने इसमें बढ़ चढ़कर हिंसा लिया। अपने ज्ञान-विज्ञान, दर्शन और चिंतन से भारतीय समाज और राष्ट्र के जीवन में नवीन प्राणों का संचार करने के कारण ही शिक्षक यानी गुरुओं की तुलना ब्रह्मा, विष्णु व महेश से की गयी है। गुरु अर्थात ज्ञान का वो प्रकाशपूंज जो शिष्य के अंधकार रुपी अज्ञान समाप्त करके उसे और सार्थक मनुष्य बनाता है। शास्त्रों में कहा गया है कि ‘ऊं अज्ञान तिमिररान्धस्य ज्ञानाञजनशलाकया, चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः’। अर्थात् ‘मैं घोर अंधकार में उत्पन हुआ था और मेरे गुरु ने अपने ज्ञान रुपी प्रकाश से मेरी आंखे खोल दी और मैं उन्हें प्रणाम करता हूं।’ गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है कि-गुरु बिनुभवनिधि तरइ न कोई, जों बिरंचि संकर सम होई। अर्थात भले ही कोई ब्रह्मा और शंकर के समान क्यों न हो, वह भवसागर के बिना जीवन रुपी भवसागर पार नहीं कर सकता। जीवन के आरंभ से ही गुरु की महत्ता को रेखांकित किया गया है। संत कबीर कहते हैं कि ‘हरि रुठे गुरु ठौर हैं, गुरु रुठे नहीं ठौर’। अर्थात भगवान के रुठने पर तो गुरु की शरण रक्षा कर सकती है लेकिन गुरु के रुठने पर कहीं भी शरण नहीं मिलेगा। कबीर कहते हैं कि ‘कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय, जनम-जनम का मोरचा, पल में डाले धोय’ अर्थात कुबुद्धि रुपी कीचड़ से शिष्य भरा है और गुरु का ज्ञान जल है। इनमें इतना सामर्थ्य है कि वे शिष्यों के जन्म-जन्म का अज्ञान पल भर में दूर कर देते हैं। कबीर आगे कहते हैं कि ‘गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट, अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट’ अर्थात मिट्टी के बर्तन समान शिष्य के लिए गुरु कुम्हार की तरह होते हैं। शास्त्रों में गुरु को तीर्थ से भी बड़ा कहा गया है। तीरथ गए तो एक फल, संत मिले फल चार, सदगुरु मिले तो अनंत फल , कहे कबीर विचार। गुरु शिष्य का मार्गदर्शन कर उसके जीवन को उर्जा से भर देता है। लीलारस के रसिकों का दाता श्रीकृष्ण भी सद्गुरु ही है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु रुप में शिष्य अर्जुन को संदेश दिया था कि ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज, अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यिा माम शुचः। अर्थात सभी साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरुप गुरु की शरणागत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों को नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए। भारतीय संस्कृति और सभ्यता में कहा गया है कि जिनके दर्शन मात्र से मन प्रसन्न होता है वह परमसत गुरु है। गुरु के बिना न आत्मदर्शन संभव है और न ही परमात्मा दर्शन। जप, तप, यज्ञ और ज्ञान में गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक है। किसी भी प्रकार की विद्या हो अथवा ज्ञान वह गुरु से ही प्राप्त होता है। सद्गुरु लोककल्याण के निमित्त पृथ्वी पर अवतार स्वरुप हैं। सभी ग्रंथों में गुरु तत्व की उपादेयता का गान किया गया है। वैदिककालीन महान विदुषियां लोपामुद्रा, घोषा, सिकता, अपाला, गार्गी और मैत्रेयी की रचित ऋचाओं में भी गुरुओं के प्रति सम्मान है। सद्गुरु की महिमा अनंत और अपरंपार है। उपनिषद्ों और स्मृति ग्रंथों में गुरु की महिमा का खूब बखान किया गया है। ईश्वर की सत्ता में विश्वास न रखने वाले जैन व बौद्ध धर्मग्रंथ भी गुरुओं के प्रति श्रद्धावान हैं। वशिष्ठ, याज्ञवल्क्य, पतंजलि और अगस्तय से लेकर तक्षशिला के महान गुरु चाणक्य तक गुरुओं की ऐसी आदर्श परंपरा रही है जिन्होंने अपनी ज्ञान उर्जा से राष्ट्र व समाज की अंतश्चेतना को जाग्रत व समृद्ध किया। प्रत्येक गुरु ने दूसरे गुरुओं को आदर-प्रशंसा एवं पूजा सहित पूर्ण सम्मान दिया है।
वशिष्ठ, विश्वामित्र और सांदिपनी जैसे गुरुओं ने राम व कृष्ण को परमशक्ति व परम वैभव से लैस किया। सनातन धर्म में गुरु शिष्य की परंपरा अनंतकाल पूर्व से चली आ रही है। रामायण, महाभारत और परवर्ती कालों में बड़े-बड़े राजाओं ने गुरु से शिक्षा प्राप्त कर शास्त्र और शस्त्र विद्या का ज्ञान प्राप्त कर अपने जीवन को धन्य किया है। भारत में गुरुओं की भूमिका केवल अध्यात्म और धार्मिकता तक ही सीमित नहीं रही। देश पर जब भी विपदा आन पड़ी गुरुओं ने राजसत्ता का मार्गदर्शन किया। रामायण व महाभारत काल ही नहीं हर युग में गुरुओं ने अपनी गुरुता का लोहा मनवाया है। परवर्ती काल के गुरुओं ने तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशीला विश्वविद्यालय को वैश्विक ऊंचाई दी। चीनी यात्री ह्नेनसांग ने अपने विवरण में 5 वीं शताब्दी के महान शिक्षकों-धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणपति, स्थिरमति, प्रभामित्र, जिनमित्र, आर्यदेव, दिगनाग और ज्ञानचंद्र इत्यादि का उल्लेख किया है। ये शिक्षक अपने विषयों के साथ-साथ समाज, राज्य, अर्थ, परराष्ट्र, दर्शन व संस्कृति संबंधी विषयों में भी पारंगत, निपुण और ज्ञानवान थे। नागार्जून, असंग, वसुबंधु जैसे महान बौद्ध शिक्षकों की महत्ता को कोई कैसे भूला सकता है जिन्होंने समाज व राष्ट्र को महती दिशा दी। आदिकाल से ही शिक्षक भारतीय शिक्षा, संस्कृति, चिंतन और दर्शन के प्रवाह रहे हैं। आज के आधुनिक युग में भी गुरु की महत्ता में तनिक भी कमी नहीं आयी है। एक बेहतर भविष्य के निर्माण के लिए आज भी गुरु का सानिध्य आवश्यक है।